युधिष्ठिर की संतुष्टि हो गई. गुरु द्रोण के पूछने पर अब वह कह सकते थे कि ‘अश्वस्थमा मारा गया है’ पर सत्य पर अडिग रहनेवाले युधिष्ठिर ने एक शर्त और रखी-
“मैं साथ में यह अवश्य कहूंगा कि ‘या वह मनुष्य था या हाथी…'
महाभारत में सत्य और झूठ की सूक्ष्म विवेचना की गई है. आपसे यदि झूठ की परिभाषा करने को कहा जाए, तो आप कहेंगे- ‘यह तो सभी जानते हैं.’ परन्तु क्या आप जानते हैं कि झूठ के भी दो रूप होते हैं? एक स्वयं हित के लिए बोला झूठ और दूसरा जन हित के निमित बोला गया झूठ और दोनों के बीच अंतर हो सकता है.
इसी दुविधा का सामना करना पड़ा था युधिष्ठिर को- महाभारत के द्रोण पर्व में.
दुर्योधन के व्यंग्यबाणों से कुपित सेनापति द्रोण, सामान्य सैनिकों पर ही अपने अस्त्र चलाने लग गए थे. उस समय की युद्ध नीति अनुसार, विशेष अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग केवल उन्हीं के विरुद्ध किया जा सकता था, जो उनका काट जानता हो, परन्तु दुर्योधन के क्रोध से उकसाए द्रोण ब्रह्मास्त्र इत्यादि का प्रयोग पैदल सैनिकों पर करने लगे और एक ब्रह्मास्त्र से पूरी एक अक्षौहिणी सेना समाप्त हो जाती. असहाय सिपाहियों को बचाना आवश्यक था. अर्जुन चिन्तित हुए और श्री कृष्ण चिन्तित हुए.
आचार्य द्रोण को रोकना आवश्यक था, किन्तु सहज नहीं. कौरवों व पांडवों दोनो के गुरु थे वह.
दूसरा विकल्प था किसी भी तरह उन्हें युद्ध स्थल से हटाना.
एक उपाय था- उनका पुत्र अश्वस्थमा उन्हें अत्यंत प्रिय था. यदि कोई उनसे कह दे कि ‘अश्वस्थमा मारा गया है’ तो वह अवश्य अवसाद में डूब युद्ध त्याग देंगे. परन्तु वह तब तक विश्वास नहीं करेंगे, जब तक वह युधिष्ठिर के मुख से न सुन लें. अत: वह युधिष्ठिर से पूछेंगे अवश्य और यह सर्वविदित था कि युधिष्ठिर झूठ नहीं बोलेंगे.
श्री कृष्ण नें एक युक्ति लगाई. हाथी का एक बच्चा मंगवाया गया. विधिवत उसका नामकरण किया गया- ‘अश्वस्थमा’ और फिर उसे समाप्त कर दिया गया. युधिष्ठिर की संतुष्टि हो गई. गुरु द्रोण के पूछने पर अब वह कह सकते थे कि ‘अश्वस्थमा मारा गया है’ पर सत्य पर अडिग रहनेवाले युधिष्ठिर ने एक शर्त और रखी-
“मैं साथ में यह अवश्य कहूंगा कि ‘या वह मनुष्य था या हाथी…'
ऐसा ही हुआ. अश्वस्थमा की मृत्यु का समाचार सुनने पर आचार्य द्रोण ने युधिष्ठिर की ओर उन्मुख होकर पूछा, “युधिष्ठिर, क्या यह सत्य है? क्या अश्वस्थमा वास्तव में मारा गया है?”
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, “अश्वस्थमा हतो-नरो वा-कुंजरो वा…" (अश्वस्थमा मारा गया है या वह नर था या हाथी…)
युधिष्ठिर के ‘अश्वस्थमा हतो’ कहते ही पूर्व योजना अनुसार ज़ोर ज़ोर से ढोल-नगाड़े बजाने शुरु कर दिए गए, जिसमें वाक्य का दूसरा अंश शोर में डूब गया.
द्रोण केवल प्रथम भाग ही सुन पाए और अपने अस्त्र त्याग वहीं समाधिस्थ हो गए.
श्रीकृष्ण के संकेत पर अर्जुन ने उन्हें तुरन्त समाप्त कर दिया.
शब्दों के अर्थ पर जाएं, तो युधिष्ठिर ने जो कहा वह झूठ नहीं था. अश्वस्थमा सच में मारा जा चुका था, परन्तु युधिष्ठिर जानते थे कि गुरु द्रोण के प्रति उनका आशय झूठ ही था. उनके यह स्पष्ट कर देने के बाद भी कि ‘वह नर है अथवा हाथी’ वह स्वयं के प्रति झूठे ही थे.
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झूठ केवल उतना ही नहीं होता, जो शब्दों द्वारा बोला जाए. उसके पीछे बोलनेवाले का आशय भी प्रासंगिक है.
अत: युधिष्ठिर का रथ जो पहले पृथ्वी से दो उंगली ऊपर रहता था, पृथ्वी पर आ लगा एवं मृत्यु पश्चात उन्हें स्वर्ग से पहले एक घंटा नर्क में बिताना पड़ा था.
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