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लघुकथा- दोपहर का भोजन (Laghukatha- Dopahar Ka Bhojan)

सब पशोपेश में पड़ गए, यह कैसे सम्भव है? बिना कोहनी मोड़े निवाले को मुंह तक कैसे ले जाया जा सकता है? कौरवों ने मुंह से थाली में भोजन उठाने का प्रयत्न भी किया, परन्तु सब विफल. पांडव भी उलझन में थे.

महाभारत की कथा छोटी-बड़ी अनेक शिक्षाप्रद कहानियों का ख़ज़ाना है. इन्हीं मे से एक यह कहानी भी है. इसे आप बच्चों को पढ़ने के लिए दे सकते हैं अथवा स्वयं पढ़कर सुना सकते हैं.

पांडु की जब मृत्यु हुई तो पांडव अभी बालक ही थे. माद्री अपने दोनो पुत्रों- नकुल और सहदेव को कुन्ती के हवाले कर स्वयं पांडव के संग सती हो गई थीं.
अपने श्राप के कारण ही राजा पांडु अपना राज्य अपने भ्राता धृतराष्ट्र को सौंप प्रायश्चित्त करने वन को चले गये थे. और जब वह ही न रहे, तो कुन्ती का वनों में अकेले रहने का क्या औचित्य? समय आ गया था कि राजकुमारों को राज्य का संरक्षण मिले, विशेष रूप से पितामह भीष्म का. अत: कुन्ती पांचों पांडवों को राजभवन ले आई, जहां वह सुरक्षित भी रहें और विद्याअर्जन भी कर सकें.
एक दिन कौरव और पांडव भाई दोपहर का भोजन करने बैठे. भोजन परोसा जा चुका था कि पितामह भीष्म वहां आन पहुंचे.

Laghukatha


उन्होंने कहा, “चलो आज एक खेल खेलते हैं. आप सब भोजन करो, परन्तु कोई भी अपनी बांह को कोहनी से नहीं मोड़ेगा. बिना कोहनी मोड़े ही भोजन करना होगा.”
सब पशोपेश में पड़ गए, यह कैसे सम्भव है? बिना कोहनी मोड़े निवाले को मुंह तक कैसे ले जाया जा सकता है? कौरवों ने मुंह से थाली में भोजन उठाने का प्रयत्न भी किया, परन्तु सब विफल. पांडव भी उलझन में थे.
अंत में धर्मराज युधिष्ठिर को एक उपाय सूझा. उनके कहे अनुसार, सब ने अपने-अपने हाथ में भोजन का निवाला उठाया. तब युधिष्ठिर ने कहा, ”अब सब अपने हाथ का निवाला अपने पड़ोस में बैठे संगी के मुख में डालो.”
इस प्रकार सब ने पेट भर भोजन कर लिया.


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यही जीवन का नियम भी है.
यदि आप सिर्फ़ अपने बारे में ही न सोच दूसरों की भी सोचेंगे, तो दुनिया एक बेहतर जगह बन जाएगी.
और इसमें औरों की भलाई तो है ही आपकी भी भलाई है.

Laghukatha
Usha Wadhwa
उषा वधवा

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