महाभारत मुख्य कथा के साथ ही अनेक छोटी कहानियों का भी भण्डार है, जो नैतिक ज्ञान तो देती ही हैं, साथ में वह रोचक भी हैं और उपयोगी भी. प्रस्तुत है उनमें से एक.
महाभारत का युद्ध पूरे ज़ोरों पर था. कुरु सेनापति एक-दूसरे से बढ़कर वीर, रणकौशल में अद्वितीय और संख्या में भी अधिक थे. कौरव सेना भी पांडव सेना से कहीं अधिक थी. फिर भी पितामह भीष्म युद्धस्थल से हटाए जा चुके थे. आचार्य द्रोण का निधन हो चुका था. परन्तु कर्ण! कर्ण पर्वत की भांति अडिग खड़े थे.
परशुराम के इस शिष्य को हराना इतना सरल न था. संयम और शीतला की प्रतिमूर्त्ति युधिष्ठिर भी अधीर हो उठे. अर्जुन को छोड़ कर्ण बारी-बारी सब भाइयों को मात दे चुका था. वह तो कुन्ती से वचनबद्ध होने के कारण उसने पांडव भाइयों की हत्या नहीं की थी. परन्तु उस बिन्दु तक प्रत्येक को लाकर छोड़ा था, जहां से वह सहजता से उनका वध कर सकता था. किन्तु यह जीवन स्वाभिमानी वीरों के लिए हार से भी बदतर था, मृत्यु से भयंकर था. हताशा में डूबे युधिष्ठिर ने संध्याकाल के एक कमज़ोर क्षण में अर्जुन पर क्रोध निकाला, “तुम स्वयं को विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर मानते हो और उस सूतपुत्र को युद्ध क्षेत्र से नहीं हटा सकते. धिक्कार है तुम्हें, धिक्कार है तुम्हारे गांडीव को.”
अर्जुन अपनी भ्रत्सना सुन सकते थे,पर अपने गांडीव की नहीं.
‘जो भी उनके गांडीव का अपमान करेगा, उसे वह जीवित नहीं रहने देंगे.' ऐसा प्रण था उनका.
परन्तु अपमान करनेवाला और कोई नहीं उनका ज्येष्ठ भ्राता था, उनके पिता तुल्य. उनकी हत्या की तो सोची भी नहीं जा सकती थी.
पर अपना प्रण? उससे भी झूठे कैसे पड़ें?
दुविधा में थे अर्जुन और उन्हें इस दुविधा से उबारा श्री कृष्ण ने. उन्होंने एक राह सुझाई, “पितृ निन्दा पितृ हत्या के समान है. अत: तुम वैसा कर अपने प्रण की रक्षा कर सकते हो.”
अर्जुन ने युधिष्ठिर की, उनके द्यूत व्यसन की निन्दा की, जिसके कारण ही वह सब इस अवस्था मे पहुंचे थे. वर्षों पत्नी समेत वनों में भटके थे. अपमान के अनेक दंश सहे थे.
युधिष्ठिर की प्राण रक्षा तो हो गई, पर अर्जुन के सिर पितृ हत्या का पाप लग गया और अर्जुन इस बोझ को लेकर नहीं जीना चाहते थे. अत: उन्होंने आत्महत्या की ठानी.
चिता सुलगाई गई.
संकट अभी टला नहीं था.
हर समस्या का हल खोज निकालने में निपुण कृष्ण ने कहा, "आत्मप्रशंसा आत्महत्या के समान है, अत: तुम आत्मप्रशंसा कर अपने पाप से मुक्त हो सकते हो.”
अर्जुन ने वैसा ही किया. इस प्रकार अर्जुन अपने प्रण से भी नहीं डिगे और दोनो भाइयों की जीवन रक्षा भी हो गई.
‘आत्मप्रशंसा आत्महत्या के समान है…' श्रीकृष्ण के इस कथन को आज कितने लोग याद रखते हैं?
बड़ी-बड़ी डींगे मारना, स्वयं की झूठी प्रशंसा एवं औरों को नीचा दिखाना, यही मानो आज के युग की पहचान ही बन गई है!
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