आज मुझे आदित्य उस राजा के समान प्रतीत हो रहे थे, जो पूर्ण निष्ठा के साथ अपने देश और उसकी प्रजा के लिए हर सम्भव प्रयत्न कर रहा है. किंतु स्थितियां निरंतर रेत की तरह हाथों से फिसली जा रही थीं और वे विवश खड़े देख रहे थे. मेरे हृदय और मस्तिष्क की कल्पना के घोड़े भी उस कल्पवृक्ष की चाहत में बेलगाम दौड़ने लगे. काश मेरे पास भी एक कल्पवृक्ष होता और मैं भी उस चमत्कारिक कल्पवृक्ष से आदित्य की मदद करने की प्रार्थना करती.
सूरज भी वही, सुबह भी वही, चिड़ियों की चहचहाहट भी वही, किंतु आज फ़िज़ा में एक अजीब-सी हताशा और घबराहट है या फिर मेरा अंतर्मन घबराया हुआ, इसलिए मुझे हर तरफ़ वैसा ही एहसास हो रहा है. जो सड़के रोज़ लोगों की चहलक़दमियों और गाड़ियों के हॉर्न से गुलज़ार होती थीं, आज वही सूनी सड़के लॉकडाउन के कारण लोगों की आहटों का, गाड़ियों के कलरव की राह देख देख रही थी. मैं भी तो अपने समवेगों पर नियंत्रण रख रसोई में आदित्य का नाश्ता तैयार कर रही थी. इन सब का एकमात्र कारण था वो कोरोना वायरस. उसकी न्यूज़ जो निरंतर टीवी पर आ रही थी. यक़ीनन न्यूज़ थी भी घबरानेवाली. कितने विस्मयवाली बात है कि एक सूक्ष्म से एक इंद्रयीय जीव ने समस्त पंच इंद्रयीय जीवों के जीवन में तांडव मचा रखा था. कब रुकेगा वो तांडव… कोई नहीं जानता था.
शायद ये मनुष्यों द्वारा प्रकृति के साथ अत्यंत खिलवाड़ करने का परिणाम था, जिसे प्रकृति कोरोना वायरस के रूप में प्रतिशोध ले रही थी. विश्व के समस्त डाक्टर्स, चिकित्सक कर्मचारी और सफ़ाई कर्मचारी, सरहद पर तैनात वीर सैनिकों की भांति इस कोरोना वायरस नामक दुश्मन से युद्ध लड़ रहे है. नतमस्तक है हम सभी इनके आगे. किंतु मैं भी क्या करूं, मेरी घबराहट तो पल-पल बढ़कर मेरे ही नियंत्रण से बाहर जा रही है.
"चीन से फैलते हुए धीरे -धीरे करोना वायरस ने पूरे विश्व को अपनी चपेट में ले लिया. इस वायरस के कारण अभी तक सबसे ज़्यादा मृत्यु अमेरिका में हुई थी. धीरे-धीरे कोरोना का प्रकोप विश्वभर में फैल गया था…"
"अरे अंतरा टीवी क्यूं बंद किया." मेरे पति डॉक्टर आदित्य एकदम बोले.
"क्या सुबह-सुबह ये न्यूज़ चलाकर बैठ
गए तुम. पहले तुम इत्मिनान से नाश्ता कर लो
आदित्य. आख़िर आज कितने दिनों के पश्चात तुम घर पर हमारे साथ नाश्ता कर रहे हो." एक कुशल अभिनेत्री की तरह मैंने अपनी घबराहट छुपाते हुए कहा, पर मुझे आदित्य के मस्तिष्क पर चिंता की लकीरें स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही थीं.
"अंतरा, तुम अनुमान भी नहीं लगा सकती कि इस कोरोना की वजह से स्थिति कितनी गम्भीर है. अगर इसे शीघ्र ही नियंत्रण नहीं किया गया, तो न जाने कितने लोग अकाल मृत्यु की बलि चढ़ेंगे." अत्यंत चिंतित होकर आदित्य बोले चिंता की रेखाएं उनके ललाट पर स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही थी. वे प्रत्यक्ष रूप से वहां बैठकर नाश्ता तो ज़रूर कर रहे थे या ये कहें कि निगल रहे थे, किंतु उनका चित्त तो हॉस्पिटल में अटका था. आख़िर वो भी तो एक वीर योद्धा के भांति अपने प्राण जोखिम में डाल वकर युद्ध लड़ रहे थे.
"आदित्य इस कोरोना का कोई इलाज नहीं है क्या? ये तो अपना विकराल रूप लेकर महामारी में परिवर्तित हो गया है. ठीक वैसे ही जैसे कि कुछ साल पहले…" दोबारा टीवी खोलकर न्यूज़ सुनते हुए मैंने कहा. और कहते कहते मेरी आवाज़ और आंखें दोनों नम हो गईं.
"आदित्य तुम हॉस्पिटल नहीं जाओगे." अपने आपको सम्भालते हुए मैंने कहा.
"कैसी बात कर रही हो अंतरा. मैं एक डॉक्टर हूं और डाक्टर जीवनदान देते हैं न कि परिस्थिति से पलायन करते हैं. अपने मरीज़ों की चिकित्सा एवं उनकी देखभाल करना मेरा प्रथम और परम कर्तव्य है."
"किंतु आदित्य यह एक संक्रामित रोग है. एक रोगी से दूसरे से पल में फैलता है और फिर…"
"तुम व्यर्थ ही चिंता कर रही हो. हम डॉक्टर पूरी तरह से एहतियात बरतते हैं. हम पीपीई अर्थात् पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विप्मेंट का उपयोग करते
हैं, जो हमें इस वायरस से सम्पूर्ण रूप से
सुरक्षित रखता है. अगर हम डॉक्टर ही अपने कदम पीछे कर लेंगे, तो यह हमारे पेशे और हमारी हिप्पोकरेटिक ओथ के प्रति नाइंसाफ़ी होगी. अपने पेशे के लिए सम्पूर्ण रूप से समर्पण ही उसके प्रति सच्ची श्रद्धा है. मैं तुम्हारी मनोस्थिति को अच्छी तरह से वाक़िफ़ हूं, किंतु मैं फ़र्ज़ के आगे विवश हूं. तुम्हीं सोचो अगर हम डाक्टर्स भी इससे डरकर घर बैठ जाएंगे, तो मरीज़ों का क्या होगा. आशा करता हूं तुम बात समझ रही हो.
और हां, एक सबसे अहम बात, ये संक्रमण मेरे द्वारा घर पर तुम्हें या बच्चों को न लग जाएं, इसलिए एहतियात के तौर पर मैं कुछ दिन हॉस्पिटल में रहूंगा. हॉस्पिटल में सभी डाक्टर्स और पूरे स्टाफ के लिए रहने व खाने की उचित व्यवस्था कर दी गई है, ताकि यह संक्रमण घरवालों में ना फैले."
"अंतरा, जिस तरह एक सैनिक की पत्नी अपने आप को मानसिक रूप से हर परिस्थिति का सामना करने के लिए अपने आप को पूर्ण रूप से तैयार रखती है, तुम्हें भी उन्हीं की भांति ऐसे ही तैयार रहना है. स्मरण रहे तुम और तुम्हारा मनोबल मेरा मनोबल बन कर मुझे कभी भी डरकर या फिर हताश होकर पलायन नहीं करने देंगे, अपितु मेरी शक्ति बन कर मुझे संघर्ष करने की प्रेरणा देंगे." कहते कहते उनकी आंखें नम हो
गईं.
"बस एक बार तुम्हें और बच्चों को जी भर देख
कर, उन्हें प्यार कर अपना हृदय तृप्त कर लूं. पता नहीं अंत क्या होगा?" अत्यंत बोझिल हृदय व नम आंखों से उन्होंने बच्चों को गले लगा लिया. फिर मुझे अपनी बांहों में भरकर, मेरे माथे पर अपने प्रेम की मोहर लगा दी.
मेरे आंसू तो बांध तोड़कर निरंतर बह रहे थे. नियति की भी कितनी अजीब विडम्बना है. एक स्त्री सब के लिए तो कठोर और मज़बूत बन सकती है, किंतु जब भूमिका पत्नी की हो, तो वो कितना भी मज़बूत बनने का प्रयत्न करे, परंतु अपने सुहाग के लिए वो हमेशा कमज़ोर पड जाती है. अपने सिंदूर पर ख़तरा मंडराते देख लड़खड़ा जाते हैं उसके कदम.
पर मेरे पास विकल्प भी तो कोई नहीं था. यह जानते हुए कि मैं शायद आदित्य को फिर कभी न देख पाऊं, हृदय पर पत्थर रखकर मुस्कुराहट के साथ विदा किया. वे नम आंखों और विचलित हृदय के साथ चले गए अपने हॉस्पिटल की ओर मरीज़ों के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करने.
मैं किंकर्तव्यविमूढ खड़ी पाषाण बनी अनिमेष दृष्टि से उन्हें देख रही थी, जब तक वो मेरी आंखों से ओझल न हो गए. आंखें अनवरत बह रही थीं. उनको जाता देख मुझे बचपन में कई बार मां की सुनाई हुई वो 'रानी और उसका कल्पवृक्ष' की काल्पनिक कहानी याद आ रही थी. जो वे अक्सर हमें कल्पना लोक की सैर करवाने के लिए सुनाती थीं.
कहानी में एक समृद्ध राज्य में अत्यंत कर्तव्यपरायण, निष्ठावान और बहादुर राजा राज करता था. उसकी एक सुंदर रानी थी, जो भगवान शिव की परमभक्त थी. उस रानी के पास भगवान शिव द्वारा वरदान प्राप्त एक कल्पवृक्ष था. कल्पवृक्ष अर्थात् इच्छा पूरी करनेवाला वृक्ष. जब भी रानी को किसी प्रकार की इच्छा उत्पन्न होती, वो तुरंत उस कल्पवृक्ष के माध्यम से अपनी इच्छा की तृप्ति कर लेतीं. जब भी राजा के राज्य में या उसकी प्रजा पर किसी भी प्रकार की मुसीबत आती, वो तुरंत रानी के समक्ष जाकर उस मुसीबत का समाधान हेतु कल्पवृक्ष से प्रार्थना करने का अनुरोध करते. वो कल्पवृक्ष तुरंत अपने चमत्कार से मुसीबत को दूर कर देता था. एक बार उस राजा के राज्य में एक संक्रमित रोग, एक महामारी के रूप में फैल गया. धीरे-धीरे उसकी प्रिय प्रजा उस संक्रमित रोग से ग्रस्त होने लगी. सभी वैध की औषधि निष्फल हो रही थी. राजा-रानी समेत समस्त प्रजा के प्राण संकट में
थे. अंत में राजा ने रानी से प्रजा हित के लिए अपने कल्पवृक्ष से प्रार्थना करने का अनुरोध किया और तुरंत उसकी प्रार्थना स्वीकृत हो गई. कहानी सुनने के पश्चात हमारा बाल मन उस कल्पवृक्ष को पाने के लिए लालायित हो जाता.
आज मुझे आदित्य उस राजा के समान प्रतीत हो रहे थे, जो पूर्ण निष्ठा के साथ अपने देश और उसकी प्रजा के लिए हर सम्भव प्रयत्न कर रहा है. किंतु स्थितियां निरंतर रेत की तरह हाथों से फिसली जा रही थीं और वे विवश खड़े देख रहे थे. मेरे हृदय और मस्तिष्क की कल्पना के घोड़े भी उस कल्पवृक्ष की चाहत में बेलगाम दौड़ने लगे. काश मेरे पास भी एक कल्पवृक्ष होता और मैं भी उस चमत्कारिक कल्पवृक्ष से आदित्य की मदद करने की प्रार्थना करती. उनकी हताशा को
हौसलें में बदलवाती और उनकी उदासी को मुस्कुराहट में परिवर्तित करने की विनती करती अर्थात् सब कुछ ठीक करने की प्रार्थना करती… काश!
आदित्य के जाने के बाद मैं असमंजस और चिंतित स्थिति में वहीं बैठी रही. बच्चे अपने कमरे में चले गए. वो निसंदेह इतने परिपक्व नहीं हुए थे कि इस स्थिति की गम्भीरता को समझ सकें. आदित्य की चिंता मुझे लगातार सता रही थी. कोविड -19 के समाचार निरंतर टीवी पर चल रहे थे. हर पल इसके मरीज़ों की संख्या में वृद्धि हो रही थी. इन समाचारों के कारण न जाने विचारों और यादों के कितने द्वन्द युद्ध मेरे मस्तिष्क में युद्ध लड़ रहे थे और मैं एक अकेले हारे हुए योद्धा की भांति फिर भी उनसे लड़ने पर भरसक प्रयत्न कर रही थी. मुझे आदित्य की कर्तव्यनिष्ठा पर गर्व हो रहा था. एक तरफ़ जहां पूरा विश्व अपने जीवन की रक्षा हेतु घर पर बैठकर काम करने को विवश हो गया था, यहां तक कि मंदिरों के द्वार भी बंद हो गए, वहीं आदित्य और उसके जैसे विश्वभर के तमाम डॉक्टर, नर्सें अपने जीवन को दांव पर लगा कर निस्वार्थ मानवता की सेवा में लगे हैं. अपना जीवन किसे प्रिय नहीं होता. विचारों और यादों की नाव में सवार होकर मैं अतीत के समुन्द्र में लहराने लगी. आंखों के समक्ष हॉस्पिटल के आईसीयू का वो दहशत और बेबसीवाला मंजर घूमने लगा. विदेश से आए इस लाइलाज स्वाइन फ्लू एच1एन1 वायरस के प्रकोप से पूरा देश सहमा हुआ था. संक्रमित रोग होने के कारण पल-पल इसके रोगियों की संख्या में वृद्धि हो रही थी. सबसे ज़्यादा इसका असर गुजरात में था. वहां तो यह महामारी का रूप ले चुका था.
मृत्यु का भय मनुष्य से क्या-क्या करवा देता है. उसके भीतर का स्वार्थ अपनी पूरी चरमसीमा पर होता है. इसी स्वार्थ का उदाहरण उन दिनो देखने को मिला. जब स्वाइन फ्लू ग्रस्त रोगियों को अपनी रक्षा के ख़ातिर उनके घरवाले उनका त्याग कर रहे थे. किंतु डाक्टर्स उन्हें न सिर्फ़ पनाह दे रहे थे, बल्कि अपने प्राणों की परवाह किए बिना उनके लिए मसीहा बन निस्वार्थ उनकी सेवा कर रहे थे. उन्हीं सेवाकृत डाक्टर्स में था डॉक्टर रोहित मेरा एकलौता भाई.
मैं उन दिनो छुट्टियों में अपने मायके गई हुई थी. इसी बीच यह स्वाइन फ्लू की महामारी फैल गई थी. हॉस्पिटल में रोगियों की तादाद बढ़ने लगी और डाक्टर्स भी जी जान से अपने फ़र्ज़ के प्रति पूर्ण न्याय कर रहे थे. रोहित की डयूटी भी उन रोगियों के उपचार के लिए लगी थी. एक बार तो मां-बाऊजी ने पुत्र मोह में स्वार्थी बन रोहित को इस आपदा से दूर रहने के लिए बहुत समझाया. किंतु जब उसे कर्तव्य और फ़र्ज़ के चलते मां के आंसू किंचित भी विचलित न कर सके, तो उन दोनों ने आशीर्वाद देकर नम आंखों से विदा किया.
और मैं वहां मूक दर्शक बनी खड़ी थी. शब्दहीन हो गई थी मैं उस वक़्त. अपने भाई को मैं अथाह प्रेम करती थी, इसलिए उसके वापस न आने की सोच से ही मेरी रूह कांप गई. जिस बात कर भय था आख़िर वही हुआ.
कुछ दिनो पश्चात हॉस्पिटल से फोन आया, "हेलो मैं डॉक्टर रोहित के हॉस्पिटल से बोल रही
हूं. क्या मैं उनकी मां या पिताजी से बात कर सकती हूं."
"जी, मैं उनकी बड़ी बहन बोल रही हूं कहिए."
"मैम, एक दुखद सूचना देनी थी कि डॉक्टर रोहित अपने कर्तव्य की निभाते-निभाते स्वाइन फ्लू की चपेट में आ गए हैं और उनकी स्थिति अत्यंत गंभीर है और…"
"और क्या?.." मैंने रोते हुए पूछा.
"प्लीज़ वक़्त बहुत कम है. आप शीघ्र हॉस्पिटल के आईसीयू पहुंच जाएं." कहकर उसने फोन रख दिया. मैं वही जड़वत हो गई. बेहद कठिनाई से बदहवास हालत में हम तीनों हॉस्पिटल पहुंचे. रोहित की हालत देख मां लगभग बेहोश हो गई थीं. बेहोश रोहित कितना मासूम लग रहा था. उसके पूरे शरीर पर नलियों का क़ब्ज़ा था. डाक्टर्स ने बताया की रोहित अपनी परवाह न करते हुए दूसरों की सेवा में लगे हुए थे, जिस कारण वो इस स्थिति में पहुंच गए. उनका बचना मुश्किल है…
यह सब सुन कर हमारे हाथ-पैर सुन्न पड़ गए. कभी सोचा भी नहीं था कि हम बिंदास और सदा बेफ़िक्र जीवन जीनेवाले रोहित को ऐसी अवस्था में देखेंगे. जहां उसकी चेतना उसका साथ छोड़ चुकी थी. उसे तो इतना भी नहीं पता कि उसके साथ क्या-क्या हो रहा था. मां और बाऊजी का बुरा हाल था. फिर भी एक वीर सैनिक के जन्मदाता की तरह वे अपनी भावनाओं पर किसी तरह नियंत्रण रखे हुए थे. संक्रमण फैलने की विवशता की बेड़ियां हमें उसके समीप जाने से रोक रही थी. डाक्टर्स की आंखें कुछ और कह रही थी, पर ये हृदय उसको मानने को तैयार नहीं था. चमत्कार की उम्मीद हृदय में अभी भी जीवित थी. उम्मीद और यथार्थ में धीरे-धीरे यथार्थ का पलड़ा भारी होने लगा था. अंत में बहुत देर जीवन-मृत्यु की जंग में मृत्यु की विजय हुई.
रोहित के पार्थिव शरीर देख कर मां -बाऊजी रोए नहीं, अपितु विपरीत इसके उसके समक्ष नतमस्तक हो कर बोले, "हमारा बेटा मरा नहीं, बल्कि एक सैनिक के भांति देश के लिए शहीद हुआ है. हमें अपने बेटे पर गर्व है." कहकर उन्होंने उसका माथा चूम लिया.
ये मंज़र गहराई तक मेरे हृदय और मस्तिष्क पर अंकित हो चुके था. आदित्य को जाता देख अतीत का वो मंजर स्वतः चलचित्र के भांति मेरे आंखों के समक्ष चलने लगा. उनको खोने का डर न चाहते हुए भी मुझे रोहित की याद दिला रहा था.
"अंतरा बिटिया, क्या हुआ? रो काहे रही हो?" कांताबाई की आवाज़ मुझे अतीत से बाहर ले आई. बाहर आने के पश्चात भी मन अभी भी उस कल्पवृक्ष की चाहत में अटका हुआ था.
"अरे कांताबाई, तुम कैसे और क्यूं आई हो काम पर? तुम्हें पता नही कि देश में किसी को भी, कहीं भी जाने की अनुमति नही है. तुम अपने प्राणों को जोखिम में क्यूं डाल रही हो. काम तो मैं स्वयं कर लेती. घर पर तुम्हारा पूरा परिवार है और…"
"कैसी बात करती हो बिटिया. मैं क्या जानती नही कि पांव के ऑपरेशन के बाद तुम्हें काम करने में कितनी तकलीफ़ होती है, इसलिए जब तक सब ठीक नहीं हो जाता मैं यहीं सर्वंट रूम में रहूंगी और अपना काम करुंगी. और घर परिवार का क्या… उसे तो मेरी बहू भी सम्भाल लेगी. और फिर बिटिया जब साहब अपने परिवार और अपने प्राणों की परवाह न करते हुए देश और मानवता की निस्वार्थ सेवा में लगे हैं. जब वो देश का विश्वास और उम्मीद बनकर पर्वत की तरह अटल हैं तो बिटिया… मैं तो एक साधारण सी कामवाली हूं. मैं कैसे तुम्हारे विश्वास को तोड़ देती. क्या मैं तुम्हारे पास रहकर तुम्हारा काम भी नही कर सकती. साहब के योगदान के आगे तो ये कुछ भी नहीं है. ना बिटिया ना… इतनी ख़ुदगर्ज़ और स्वार्थी नहीं हूं मैं.
और मेरी तो उम्र हो रही है. अगर मुझे कुछ हो भी गया न बिटिया, तो मेरे घरवालों को मेरी मृत्यु पर शोक नही गर्व होगा की मुसीबत के इस वक़्त में उनकी अम्मा अपना कर्तव्य निभाते-निभाते गई." कहकर वो अपने काम में लग गई. कितनी सरलता से कांताबाईं अपनी बात कह गई. उनकी कही छोटी-सी बात में कितना गूढ़ अर्थ छिपा था, जिसका मेरे हृदय ने स्पष्ट रूप से समझ लिया था. परिणामस्वरूप मेरे हृदय में हताशा और स्वार्थ के सारे कपाट खुल गए थे और उसमें उम्मीद और विश्वास की नई आभा भर गई थी. अब मुझे सारी फ़िज़ा आशा और विश्वास से खिलखिलाती प्रतीत हो रही थी.
मुझे अब विश्वास था कि आदित्य यह कोरोना वायरस के प्रचंड युद्ध में विजय प्राप्त कर ज़रूर वापस आएंगे… और निसंदेह यह अटल विश्वास, हिम्मत, धैर्य, आस्था और दिल से की हुई दुआएं ही मेरा कल्पवृक्ष थे.
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