ये सच है कि तमाम संघर्ष और विपरीत परिस्थितियों के बीच महिलाएं सशक्त बन रही हैं… पुरुष समाज में तेज़ी से अपनी जगह बना रही हैं.. महिलाओं की स्थिति तेज़ी से बदल रही है, लेकिन ये भी सच है कि महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा आज भी घर-परिवार, समाज में अपने अधिकारों से वंचित है. आज भी हमारे देश में महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक, शारीरिक, व्यक्तिगत और पारिवारिक स्तर पर पराधीनता और तमाम मुश्किलें झेलनी पड़ रही हैं. उन्हें सशक्त और आज़ाद करने के लिए कानून तो बना दिए गए हैं, उनके लिए कई योजनाएं भी चलाई जा रही हैं, लेकिन ये आज़ादी मुट्ठीभर महिलाओं तक ही पहुंच पाई है और आज भी ज़्यादातर महिलाओं के लिए आज़ादी अधूरी ही है. सही मायने में महिलाओं की बेहतरी के लिए, संतुलन बनाने के लिए सिर्फ क़ानून बनाना काफी नहीं, बल्कि महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति सजग करने की भी ज़रूरत है. उन्हें पूरी आज़ादी दिलाने के लिए और किन मुद्दों पर काम करना अभी बाकी है, इस पर विमर्श करना ज़रूरी है-
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सही पोषण की आज़ादी
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 2015-2016 के अनुसार भारत में मां बनने की उम्र वाली 53% फीसदी महिलाएं खून की कमी यानी एनीमिया की शिकार हैं. कुछ ही समय पहले ऐडू स्पोर्ट्स द्वारा किए गए 8 वें सालाना हेल्थ एंड फिटनेस सर्वे (2017-2018) और कुछ अन्य स्कूली सर्वे में पाया गया कि लड़कों की तुलना में लड़कियों का बीएमआई असंतुलित होता है. लड़कियों की शारीरिक मजबूती और ऊर्जा में भी काफी कमी पाई गई. शोधकर्ताओं के अनुसार इसका मूल कारण यह है कि भले ही लड़कियां भी बाहर जाती हैं और कामकाज भी करती हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप से अब भी बड़ी संख्या में माता-पिता अपने बेटों को अच्छी खुराक देना पसंद करते हैं, क्योंकि उन्हें बाहर भाग-दौड़ करनी पड़ती है, वे खेलते-कूदते हैं और उन्हें कमाना है. यह स्थिति और सोच बदलनी चाहिए. घर की लड़कियों को भी सही पोषण की आज़ादी है और उन्हें ये मिलनी ही चाहिए.
बालविवाह से आज़ादी
शहरों में भले ही स्थितियां बदल गई हों, भले ही सरकार ने लड़कियों की शादी की उम्र 21 वर्ष कर दी हो, लेकिन शिक्षा में कमी, पुरानी सोच और हमारे रूढ़िगत सामाजिक ढांचे के कारण अब भी ग्रामीण भारत में लड़कियों को एक जिम्मेदारी या पराया धन माना जाता है और पढ़ने-लिखने और खेलने-कूदने की उम्र में उनका विवाह कर दिया जाता है. जिस उम्र में बच्ची खुद को ही ठीक से नहीं संभाल पाती, उस उम्र में उसकी शादी हो जाती है. वहां उसे खुद को अच्छा साबित करने के लिए न सिर्फ ढेर सारा काम करना पड़ता है, बल्कि कई बार तो वह किशोरावस्था में ही मां भी बन जाती है. तमाम जागरूकता अभियानों के बावजूद अब भी 27 फीसदी लड़कियों का विवाह 18 वर्ष से कम वर्ष की आयु में हो जाता है. इसमें पश्चिम बंगाल और राजस्थान काफी आगे है. यूनिसेफ की ओर से जारी फैक्टशीट चाइल्ड मैरिजेज 2019 शीर्षक रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर इस सामाजिक कुरीति पर अंकुश न लगाया गया, तो देश में 2030 तक 15 करोड़ लड़कियों की शादी उनके 18 वें जन्मदिन से पहले हो जाएगी.
बॉडी शेमिंग से आज़ादी
हमारे समाज में अक्सर कहा जाता है कि लड़कों की सुंदरता नहीं, कमाई देखी जाती है, लेकिन लड़कियों के मामले में स्थिति इसके उलट है. अच्छे वर की चिंता में बेटियों पर सुंदर, स्लिम, गोरी और दमकती-चमकती दिखने के लिए दबाव बनाया जाता है. उन्हें हर वक्त खुद को आकर्षक दिखाने की चिंता सताती रहती है. परिवार के सदस्य हों या फ्रेंड्स, किसी प्रोडक्ट का विज्ञापन हो या मीडिया- सब जगह महिलाओं की शारीरिक ख़ूूबसूरती का इतना बढ़ा-चढ़ा कर बखान किया जाता है कि वे अपने वज़न, रंग और शरीर की बनावट को लेकर वे ओवर कॉन्शियस हो जाती हैं. लड़की जरा भारी शरीर की हो तो मोटी, सांवली या पक्के गेहुएं रंग की हो तो उसे काली कहने में लोग जरा भी संकोच नहीं करते. जबकि बेटी के अंदर गुणों का विकास ज़रूरी है, उसे सक्षम बनाना ज़रूरी है, ताकि वो अंदर से ख़ूबसूरत और कॉन्फिडेंट इंसान बने.
लैंगिक विभाजन से आज़ादी
हमारे समाज ने कामकाज, खेलकूद और प्रोफेशन का भी लैंगिक विभाजन कर दिया है. आज भी आपको इलेक्ट्रिक मिस्त्री, प्लम्बर या कार मैकेनिक के रूप में लड़कियां अपवाद स्वरूप ही देखने को मिलेंगी. माना कि क्रिकेट, फुटबाल, कुश्ती, कबड्डी और कराटे जैसे खेलों में लड़कियों ने अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवाई है, लेकिन उनकी संख्या कितनी कम है, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है. इस दीवार को ढाहना है तो शुरू से ही बेटियों से किसी काम के लिए यह न कहें कि यह काम लड़कियों के लिए नहीं है. बेटी को रसोई का सामान लाने तक सीमित न करें. चाहे घर में बल्ब बदलना हो, साइकिल में हवा भरनी हो, फ्यूज़ में वायर लगाना हो या दीवार में कील ठोकनी हो, ये सब काम बेटियों से भी करवाएं. उसे कंप्यूटर ठीक करना, बाइक या कार रिपेयरिंग, इलेक्ट्रीसिटी के छोटे-मोटे काम सिखाएं. शुरू से ही स्पोर्ट्स में सक्रिय होने के लिए प्रोत्साहित करें.
अच्छी सेहत की आज़ादी
आज की तारीख में हर ओर महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा, नौकरी या रोजगार में लिंग भेद, यौन हिंसा, तलाक, हलाला व अन्य मुद्दों पर तो खूब बात हो रही है, लेकिन इन सबके बीच एक अहम् मुद्दा कहीं पीछे छूट गया है. यह मुद्दा महिलाओं की सेहत से जुड़ा है. अक्सर महिलाएं घर के दूसरे सदस्यों का खूब ख़्याल रखती हैं, लेकिन अपने पोषण, सेहत और मानसिक परेशानियों को लेकर चुप्पी साधे रखती हैं. अक्सर वे डॉक्टर के पास तब तक नहीं जातीं, जब तक स्थिति बहुत गंभीर न हो जाए. महिलाओं की सेहत भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी पुरुषों की, इस बात पर गौर करना ज़रूरी है.
मासिक छुआछूत से आज़ादी
मासिक स्त्राव एक सामान्य कुदरती एवं शारीरिक प्रक्रिया है. इसे आधार बनाकर महिलाओं को घर में सबसे दूर रहने या अलग-थलग रहने को न कहा जाए. हमारे यहां ही नहीं, दुनिया के कई देशों में मासिक चक्र के दौरान महिलाओं से भेदभाव किया जाता है. पाकिस्तान में एक पति अपनी पत्नी की हल्की पिटाई कर सकता है, अगर वह यौन संबंध बनाने के बाद या मासिक स्त्राव के बाद स्नान न करे, पति की इच्छा के मुताबिक कपड़े न पहने या उसका कहना न माने. नेपाल में आज भी रजस्वला महिलाओं या बेटियों को रज घर में बहुत वाहियात हालत में रहना पड़ता है. ये सोच बदलने की ज़रूरत है.
आराम करने की आज़ादी
महिलाओं को देर तक बाहर रहने पर टोका जाता है. शादी के बाद ससुराल और पति पर ही पूरा ध्यान देने की उम्मीद की जाती है. होममेकर्स को पुरुषों से भी ज़्यादा देर तक काम करना पड़ता है. पुरुष भले ही 8-10 या 12 घंटे काम करते हों, लेकिन होममेकर्स को राउंड द क्लॉक यानी 24 घंटे ऑन ड्यूटी रहना पड़ता है. कामकाजी लोगों को शनिवार, रविवार, राष्ट्रीय अवकाश या स्थानीय त्योहारों पर अवकाश तो मिल जाता है, लेकिन गृहिणियों को तो 365 दिन काम में लगा रहना पड़ता है. इस मुद्दे पर गंभीरता से सोचा जाना चाहिए और गृहिणियों को भी अवकाश मिलना चाहिए, ताकि वे खुद को रिचार्ज कर सकें और अपने शौक पूरे कर सकें.
शादी के बाद करियर की आज़ादी
शानदार एकेडमिक रिकॉर्ड, अच्छी-खासी डिग्री और प्रतिष्ठा वाला जॉब ये सब होने के बावजूद ज़्यादातर महिलाओं को शादी के बाद अपनी वित्तीय ज़रूरतों के लिए अपने पति की सहमति और स्वीकृति पर निर्भर रहना पड़ता है. बच्चे होने के बाद अधिकांश महिलाएं जॉब छोड़ देती हैं और इनमें से बहुत कम महिलाएं दोबारा जॉब ज्वाइन करती हैं. कुछ अपने मर्जी से ज्वाइन नहीं करतीं, कुछ सास-ससुर या पति के दबाव से तो कुछ बच्चों में ही अपना भविष्य देखने की वजह से. कई बार घर और ऑफिस दोनों जगह के दबाव को न झेल पाने की वजह से महिलाएं नौकरी छोड़ने के लिए बाध्य हो जाती हैं. महार्वर्ड केनेडी स्कूल के शोधकर्ताओं की एक टीम द्वारा युवा और एकल महिलाओं पर किए गए अध्ययन में भी यह तथ्य सामने आया है.
पैतृक सम्पत्ति में व्यावहारिक समानता की आज़ादी
ज़्यादातर देशों में महिलाओं का या तो पैतृक संपत्ति पर अधिकार नाम मात्र का है या फिर दिखावे के लिए ही है. कहने को तो भारत में भी पैतृक सम्पत्ति पर बेटियों को बराबर का हक है और वे कानूनन इस पर दावा कर सकती हैं. लेकिन यह सब कहने भर को ही है. सब जानते हैं कि व्यावहारिक रूप से कोई बेटी ऐसा दावा कर ले तो उसके भाई हमेशा के लिए इससे मुंह मोड़ लेते हैं. साथ ही समाज के लोग ऐसी बेटियों को लालची, स्वार्थी और धोखेबाज जैसे तमगे थमा देते हैं.
समान वेतन की आज़ादी
वेतन के मामले में भी महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है. भारत में एक ही जैसे काम के बदले पुरुषों को महिलाओं से 20 फीसदी ज़्यादा वेतन दिया जाता है, ऐसा मोंस्टर सैलेरी इंडेक्स की लेटेस्ट रिपोर्ट में बताया गया है. मोंस्टर डॉट कॉम के अनुसार 11 साल या इससे ज़्यादा अनुभव रखने वाले पुरुषों को महिलाओं की तुलना में 25 फीसदी ज़्यादा वेतन मिलता है. विशेषज्ञों का कहना है कि महिलाओं के प्रति भेदभाव में अमीर-गरीब या विकसित और विकासशील सारे देशों का रवैया लगभग एक जैसा है. कुछ समय पहले बीबीसी जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान से खबर आई जिसमें बताया गया है कि बीबीसी चीन की संपादक कैरी ग्रेसी ने असमान वेतन का आरोप लगाते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया. उन्होंने एक खुले पत्र में कहा कि बीबीसी में वेतन संबंधी संस्कृति रहस्यमय और अवैध है. जबकि वे बीते 30 वर्षों से ज़्यादा समय से इस संस्थान में काम कर रही हैं. उनका कहना था कि यहां महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले कम वेतन दिया जाता है.
- शिखर चंद जैन