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दांत लौटाएंगे आंखों की रोशनी (How Does Tooth-in-Eye Surgery Work?)

यह पढ़कर आपको लग रहा होगा कि आंखों के डॉक्टर दृष्टिहीन व्यक्ति की आंख में दांत लगाएंगे और आंखों की रोशनी लौट आएगी. विश्‍वास नहीं हो रहा ना? परंतु यह सच है. इसे जादू कहें या विज्ञान का करिश्मा. यह सच कर दिखाया है, डेंटल सर्जन डॉ. नूपुर श्रीराव सिंह, आई सर्जन डॉ. अनुराग सिंह और आक्युलोप्लास्टिक सर्जन डॉ. नेहा श्रीराव मेहता ने.

इस ऑपरेशन को टूथ इन आई सर्जरी या डॉक्टरी भाषा में मॉडिफाइड ऑस्टियो ऑरडोंटो केराटोप्रोस्थेसिस कहते हैं. डॉ.अनुराग सिंह कहते हैं कि यह हम सभी डॉक्टरों का सामूहिक सफल प्रयास है, जो मरीज़ को पूर्णतया समर्पित है. हम सभी अपने-अपने कौशल और निपुणता से इस पेचीदा प्रक्रिया को पूर्ण कर मरीज़ की आंखों की रोशनी वापस लौटाते हैं.

कैसे हुई शुरुआत?
इटालियन सर्जन बेनडेटो फाल्सिनेली ने लगभग 1960 में यह तकनीक ढूंढ़ निकाली थीं, परंतु उसमें अनेक कमियां थीं, जिसकी वजह से उचित परिणाम नहीं आ रहे थे. डॉ. फाल्सिनेली ने उसमें अनेक सुधार किए और अच्छे नतीजे आने लगे. अब तक डॉ. फाल्सिनेली विश्‍व में ऐसे 275 ऑपरेशन कर चुके हैं. उन्होंने भारत के चेन्नई में आकर लगभग तीन वर्ष तक अपनी देखरेख में अनेक डॉक्टरों को ट्रेनिंग दी. इस तरह के ऑपरेशन वहां भी किया जा चुके हैं.
डॉ. फाल्सिनेली की आई सर्जन बनने की कहानी बड़ी रोचक है. उनका बचपन का जिगरी दोस्त एक दुर्घटना में अपनी आंखें खो बैठा. फाल्सिनेली ने डॉक्टर बनने की ठान ली और उसकी आंखें लौटने का वादा किया. उन्होंने मॉडिफाइड ऑस्टियो ऑरडोंटो केराटोप्रोस्थेसिस में सुधार लाकर उसे नया रूप दिया और अपने मित्र को आंखों की रोशनी का नज़राना भी.


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कैसे होता है ऑपरेशन?
पहले यह प्रक्रिया चार से पा़च हिस्सों में की जाती थी, परंतु अब इसे सरल कर दो हिस्सों में बांट दिया गया है.
पहली स्टेज में गाल के अंदर स्थित म्यूकस मेंब्रेन लगभग तीन सेंटीमीटर निकाली जाती है. इसे पूरी आंख पर फ्लैप की तरह ऊपरी पलक से लेकर निचली पलक तक ढंक दिया जाता है. इसके बाद कैनाइन दांत को जड़ और जबड़े की हड्डी के कुछ भाग के साथ निकालकर तराशा जाता है. उसमें एक छोटा सा छेद किया जाता है, जिसमें कृत्रिम कॉर्निया फिट कर दिया जाता है. मोतियाबिंद के ऑपरेशन में जिस तरह का लेंस लगाया जाता है, यह कृत्रिम कॉर्निया भी उसी तरह के पदार्थ से बना होता है. अब इसे गाल की त्वचा पर आंख के एकदम नीचे रोप दिया जाता है, ताकि उसमें सॉफ्ट टिशूज और नई रक्त नलिकाएं पनप सकें. इसमें लगभग दो-तीन महीने लग जाते हैं.
दूसरी और अंतिम स्टेज में इसे गाल की त्वचा से निकाला जाता हैै. आंख की पर्याप्त तैयारी करने के बाद इसे म्यूकस मेंब्रेन के फ्लैप के नीचे ग्राफ्ट कर छोटा सा छेद इस तरह किया जाता है कि केवल कॉर्निया ही फ्लैप के बाहर फैल सके और बाकी का भाग अंदर ही रहे. छेद करने से आंख में होकर जाने वाली रोशनी का रास्ता खुल जाता है और मरीज एक हफ़्ते बाद अच्छी तरह देख सकता है.

रिस्क फैक्टर
डॉ. नेहा श्रीराव मेहता के अनुसार इसकी सफलता की दर 60-70% है. ऑपरेशन के बाद डॉक्टर की सलाह के अनुसार सावधानी बरतना बहुत आवश्यक है, अन्यथा अनेक उलझनें हो सकती हैं. कुछ रोगियों में ग्लूकोमा, म्यूकस मेंब्रेन घुलने या डिसलोकेशन और रिजेक्शन की समस्या देखी गई है. परंतु इसका अनुपात बहुत कम है. वैसे इस पर रिसर्च चल रही है. आनेवाले वर्षों में यह समस्या भी दूर हो जाएगी.

आवश्यक फैक्टर
डॉ. नूपुर श्रीराव सिंह के अनुसार इस ऑपरेशन के लिए मरीज़ की उम्र कम से कम 18 वर्ष होनी चाहिए, क्योंकि तब तक सारे दांत उग जाते हैं. उम्र चाहे ज़्यादा हो, परंतु कैनाइन दांत होना ज़रूरी है. यदि यह दांत सलामत है, तो आपकी आंखें रोशनी से महरूम नहीं रह सकतीं.

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ऑपरेशन का ख़र्च एवं समय
प्रत्येक स्टेज के ऑपरेशन में लगभग 5 से 6 घंटे लगते हैं. यह छोटा ऑपरेशन नहीं है. पूरी प्रक्रिया में लगभग चार से पांच महीने तक का समय लगता है, जिसमें कुछ दिन अस्पताल में रहना पड़ता है. इसमें लगभग डेढ़ से दो लाख रुपए तक का ख़र्च आता है. ऑपरेशन ख़र्चीला है. आनेवाले समय में ख़र्च में कमी होने की संभावना है.
इन डॉक्टरों के अनुसार मॉडिफाइड ऑस्टियो ऑरडोंटो केराटोप्रोस्थेसिस एक लंबी प्रक्रिया है. ऑपरेशन के बाद मरीज़ का उसी डॉक्टर के पास आना और नियमित फॉलो अप करना बहुत आवश्यक है.
भारत में लगभग चार करोड़ से ज़्यादा और विश्‍व में क़रीब दस करोड़ से ज़्यादा लोग कॉर्नियल ब्लाइंडनेस से पीड़ित हैं. इस ऑपरेशन से लाखों दृष्टिहीनों के मन में दुनिया देख पाने की उम्मीद जगी है.

- डॉ. सुषमा श्रीराव

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