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‘वो मर्द है, तुम लड़की हो, तुमको संस्कार सीखने चाहिए, मर्यादा में रहना चाहिए…’ कब तक हम अपनी बेटियों को सो कॉल्ड ‘संस्कारी’ होने की ऐसी ट्रेनिंग देते रहेंगे? (‘…He Is A Man, You Are A Girl, You Should Stay In Dignity…’ Why Gender Inequalities Often Starts At Home?)

हम भले ही कितनी भी बातें कर लें, समाज के बदलाव का दावा ठोक लें लेकिन सच तो यही है कि आज भी औरत और मर्द के बीच का फ़र्क़ हमारी हर छोटी-छोटी बात में और व्यवहार में नज़र आता है.

…अरे, इतना ज़ोर से क्यों हंस रही हो… अरे, धीरे बात किया करो, लड़कियों को इतनी ज़ोर से बात करना शोभा नहीं देता… क्या बाहर लड़कों के साथ हा-हा, ही-ही कर रही थी, लोग देखेंगे तो बातें बनाएंगे… रात के आठ बज चुके तुम अब घर आ रही हो… लड़कियों की इतनी देर तक बाहर नहि रहना चाहिए… अक्सर हमारे घरों में लड़कियों को ऐसी हिदायतें दी जाती हैं… और इसे संस्कारी होने का टैग दे दिया जाता है…

और जब बेटियां इन बातों पर सवाल करती हैं और पूछती हैं कि भाई भी तो देर से घर आता है, वो भी ज़ोर से हंसता है… तब यही जवाब मिलता है कि उसका क्या है, वो लड़का है… तुमको कल पराए घर जाना है… वहां सब क्या कहेंगे कि इसके घरवालों ने इसको संस्कार ही नहीं दिए.

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आख़िर क्यों और कब तक हम अपनी बेटियों को ऐसी सो कॉल्ड संस्कारी बनाने की ट्रेनिंग देते रहेंगे… क्यों नहीं हम बेटों को भी मर्यादा में रहने की ट्रेनिंग देते? ये भेदभाव ही बेटों की इस सोच को हवा देता है कि हम लड़कियों से ऊपर हैं, हम जो चाहें कर सकते हैं.

हम भले ही लिंग के आधार पर भेदभाव को नकारने की बातें करते हैं, लेकिन हमारे व्यवहार में, घरों में और रिश्तों में वो भेदभाव अब भी बना हुआ है. 

अक्सर भारतीय परिवारों में घरेलू काम की ज़िम्मेदारियां स़िर्फ बेटियों पर ही डाली जाती हैं. बचपन से पराए घर जाना है की सोच के दायरे में ही बेटियों की परवरिश की जाती है. यही वजह है कि घर के काम बेटों को सिखाए ही नहीं जाते और उनका यह ज़ेहन ही नहीं बन पाता कि उन्हें भी घरेलूकाम आने चाहिए. चाहे बेटी हो या बेटा- दोनों को ही हर काम की ज़िम्मेदारी दें.

चाहे बात करने का तरीक़ा हो या हंसने-बोलने का, दूसरों के सामने बच्चे ही पैरेंट्स की परवरिश का प्रतिबिंब होते हैं. ऐसेमें बहुत ज़रूरी है कि बेटों को भी वही संस्कार दें, जो बेटियों को हर बात पर दिए जाते हैं. लड़कियों से कैसे बात करनी चाहिए, किस तरह से उनकी ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए, उन्हें किस तरह से सम्मान देना चाहिए… आदि बातों की भी शिक्षा ज़रूरी है.

अगर बेटियों के लिए रात को देर तक बाहर रहना असुरक्षित लगता है तो बेटों को भी सिखाया जाए कि या तो वो भी समय पर घर आए या अगर बाहर रहे तो किसी लड़की को छेड़ने की हिम्मत न करे, क्योंकि बेटे हद में रहेंगे, संस्कारी बनेंगे तभी वो अपनी मर्यादा पहचान सकेंगे और हमारी बेटियों का सम्मान कर पाएंगे.

बेटियों को पराए घर जाने की ट्रेनिंग देने की बजाय उनको आत्मनिर्भर बनाएं, अपने हक़ के लिए लड़ना सिखाएं और बेटे-बेटियों में फ़र्क़ होता है ये सोच न लड़कों के मन में और न लड़कियों के मन में पनपने दें.

हालांकि हमारा समाज अभी इतना परिपक्व नहीं हुआ है, लेकिन कहीं न कहीं से बदलाव की शुरुआत तो होनी हुए चाहिए, तो हमसे और हमारे घर से ही क्यों न हो?

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