अपने ख़्वाबों को जीने के लिए जुनून की हद तक जाना ज़रूरी है- बॉक्सर स्वीटी बूरा (Exclusive Interview: World Number 2 Boxer Sweety Boora)
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एक ख़ूबसूरत ख़्याल जब पनपता है, तो उसे हक़ीक़त का रूप लेते देखना बेहद सुखद होता है... लेकिन इस सुखद एहसास को जीने की बड़ी क़ीमत भी चुकानी पड़ती है, क्योंकि कोई भी मुक़ाम इतनी आसानी से हासिल नहीं होता और कोई भी ख़्याल हक़ीक़त में इतनी सरलता से तब्दील नहीं होता... इसमें व़क्त तो लगता ही है, साथ ही ज़रूरत होती है बुलंद हौसलों की, जिसमें कठिन संघर्षों का दौर से भी गुज़रना पड़ता है और कई सामाजिक बंदिशों को भी तोड़ना पड़ता है... एक ऐसा ही मुक़ाम हासिल किया है वर्ल्ड नंबर 2 बॉक्सर स्वीटी बूरा ने. अपने नाम ही की तरह बेहद स्वीट और इरादों में बेहद टफ स्वीटी क्या कहती हैं अपने सपनों और संघर्षों के बारे में, उन्हीं से जानते हैं-बॉक्सिंग, जिसे आज भी हमारे समाज में मर्दों का खेल ही माना जाता है, आपकी इसमें रुचि कैसे जागी?
स्पोर्ट्स में मुझे बचपन से ही दिलचस्पी थी. मैं पहले कबड्डी खेला करती थी. स्टेट के लिए सिलेक्ट भी हुई थी, पर फिर भी कहीं न कहीं यह एक टीम गेम था और मेरे पापा हमेशा मुझे कहते थे कि तुझे इंडिविज़ुअल गेम पर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि मैं जब भी कुछ ग़लत होते देखती थी, तो भले ही ज़ुबान से कुछ न बोलूं, पर अपने पंचेस को रोक नहीं पाती थी. शायद मेरे पापा ने मेरी इस प्रतिभा को पहचान लिया था, इसलिए मैंने बॉक्सिंग शुरू कर दी और 2009 से मैं बॉक्सिंग ही कर रही हूं.
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फैमिली का पूरा सपोर्ट रहा. मेरे मम्मी-पापा ने तो हर क़दम पर मेरा साथ दिया. उनके सपोर्ट के बिना कुछ भी करना सम्भव नहीं था. हालांकि आस-पास के लोग व रिश्तेदार ताने भी देते थे कि लड़की बिगड़ जाएगी, लेकिन पापा ने कभी उनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया. उनका कहना था कि बिगड़ना होगा, तो कहीं भी बिगड़ सकता है कोई, इसके लिए किसी के हुनर को दबाना बेहद ग़लत है. इसी तरह मम्मी ने कभी कोई रोक-टोक नहीं की. ये उनका ही विश्वास था, जिसने मुझे इस मुक़ाम तक पहुँचाया. मेरे पेरेंट्स ने मुझे कभी भी ये महसूस नहीं होने दिया कि मैं लड़की हूँ और मुझे लड़कों की तरह सपने देखने का हक़ नहीं या मुझे ज़्यादा छूट मिली तो मैं बिगड़ जाऊँगी.
वैसे भी बिगड़ने की परिभाषा क्या है? क्या लड़की होकर स्पोर्ट्स में दिलचस्पी रखना बिगड़ जाना होता है? लड़कों को सारी छूट देना और लड़कियों पर तमाम पाबंदियां लगाना न बिगड़ने की गारंटी देता है? लोगों को सोच बदलनी चाहिए और बदल भी रही है, अब तो बहुत फ़र्क़ आ गया है, लेकिन फिर भी लड़कियों के लिए संघर्ष थोड़ा बढ़ जाता है. मेरे मम्मी-पापा का साथ था मुझे, तभी मैं यहां तक पहुंच पाई.
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फ्यूचर तो अच्छा ही है, लेकिन और अच्छा हो सकता है, जिसके लिए सबको मेहनत करनी होगी. लड़कियां हमेशा मेडल्स लाती हैं, बेहतर प्रदर्शन करती हैं, लेकिन उन्हें उतनी लाइमलाइट नहीं मिलती, जितना लड़कों को.
आप मेरी ही बात कर लो, मैं वर्ल्ड नंबर 2 हूं, लेकिन मुझे कितने लोग जानते हैं? आज तक मुझे कोई स्पॉन्सर तक नहीं मिला.
लड़कियों को आज भी उतना सीरियसली नहीं लिया जाता, लेकिन कहते हैं न, उम्मीद पर दुनिया कायम है, तो मैं पॉज़िटिव हूं, क्योंकि बदलाव हो रहे हैं. अब तक लड़कियों की स़िर्फ 3 वेज कैटेगरी ही थी, फेड्रेशन भी सस्पेंडेड थी. पर यदि लड़कियों की भी लीग शुरू होगी, तो लोगों की दिलचस्पी बढ़ेगी. उन्हें बढ़ावा मिलेगा, सुविधाएं बढ़ेंगे, एक्सपोज़र बढ़ेगा.
वरना तो मैरी कॉम जैसी इतनी बड़ी बॉक्सर को भी अपनी पहचान बनाने के लिए काफ़ी संघर्ष करना पड़ा था. 5 बार वर्ल्ड चैंपियन बनना अपने आप में एक मिसाल है, लेकिन उन्हें भी काफ़ी मश़क्क़त करनी पड़ी थी.
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विदेशी खिलाड़ियों के मूवमेंट्स अच्छे होते हैं, वो देखने में फिट लगते हैं, जबकि हमारा स्टेमिना उनसे बेहतर होता है.
उनका शेड्यूल हमसे बहुत अलग होता है. आजकल गेम से लेकर फिटनेस तक हर चीज़ टेक्नीकल हो गई है. अब हर प्लेयर टेक्नीक समझता है या समझना चाहता है और उस टेक्नीक को इंप्लीमेंट करने के लिए फिटनेस बेहद ज़रूरी है.
हमारे यहां खाने-पीने से लेकर फिटनेस ट्रेनिंग तक में जानकारी की बहुत कमी है. हमें ख़ुद पता नहीं होता कि क्या खाना सही है, कैसी ट्रेनिंग ज़रूरी है, जबकि विदेशों खिलाड़ियों को पूरी जानकारी रहती है. बस, यही फ़र्क़ है, वरना हम फिटनेस लेवल हमारा भी उतना ही होता है.
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जैसाकि मैंने पहले भी बताया कि हमारा स्टेमिना ज़्यादा होता है, हम मेहनत भी ज़्यादा करते हैं, बस डायट का गायडेंस मिल जाए, तो और बेहतर हो सकता है फिटनेस का स्तर, जिससे रिज़ल्ट और बेहतर होंगे.
मेरी समस्या यह है कि मैं डायट सही नहीं लेती हूं. जितनी ज़रूरी है उससे कम डायट लेती हूं, लेकिन अभी मैंने शेड्यूल टाइट किया है. डायटिशियन के निर्देशानुसार खाती हूं. स्पीड ट्रेनिंग, फिटनेस ट्रेनिंग, पावर ट्रेनिंग सब करती हूं. दिन में 3 बार ट्रेनिंग होती है. सुबह 6.30, फिर 11 बजे और 4.30 बजे.
किसी भी फील्ड में आगे बढ़ने के लिए मेहनत बहुत ज़रूरी है. कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है और अपने सपनों को पूरा करने के लिए जुनून की हद तक जाना पड़ता है.
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मैं भजन सुनती हूं. जी हां, आपको अजीब लगेगा, लेकिन भजन से मुझे मानसिक शांति मिलती है.
मैं ड्रॉइंग भी करती हूं और कविताएं भी लिखती हूं. क्रिएटिविटी आपको फोक्स्ड रखने में मदद करती है.
जहां तक मेरी हॉबीज़ की बात है, तो वैंपायर डायरीज़ देखती हूं, जो मुझे बेहद पसंद है.
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जब भी अपसेट हो जाती हूं, तो अकेले में ज़ोर-ज़ोर से भजन गाती हूं. इससे मेरा सारा तनाव छू मंतर हो जाता है.
आगे की क्या प्लानिंग है?
एशियन चैंयपियनशिप है, कॉमनवेल्थ गेम्स होंगे, तो उनकी तैयारियों में जुटी हूं, बहुत मेहनत कर रही हूं, ताकि देश के लिए मेडल्स ला सकूं.
अपने फैंस को कुछ कहना चाहेंगी?
यही कहूंगी कि चाहे जो भी फील्ड हो, मंज़िल पर नज़र रखो, मेहनत करो. जो भी करो, मन से करो. लोग भले ही मज़ाक उड़ाएं, उन पर ध्यान मत दो. मेरा भी उड़ाते थे, मेरे पापा का भी, लेकिन अब वही लोग बहुत प्यार और सम्मान से पेश आते हैं. अपने जुनून को जीयो, कायम रखो, सफलता अपने आप मिलेगी.
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