अनमोल हैं बेटियां जीने दो इन्हें (don’t kill your precious daughter)
Share
5 min read
0Claps
+0
Share
आज़ाद, क़ामयाब, आसमान की बुलंदियों को छूती महिलाएं... लेकिन ये तस्वीर का स़िर्फ एक पहलू है. इसका दूसरा पहलू बेहद दर्दनाक और भयावह है, जहां क़ामयाबी की राह पर आगे बढ़ना तो दूर, लाखों-करोड़ों बच्चियोेंं को दुनिया में आने से पहले ही मार दिया जाता है. तमाम तरह के क़ानून और जागरूकता अभियान के बावजूद कन्या भ्रूण हत्या का सिलसिला थमा नहीं है. पेश है, इस सामाजिक बुराई के विभिन्न पहलुओं को समेटती एक स्पेशल रिपोर्ट.सच बहुत कड़वा है
हमारे पुरुष प्रधान समाज में आज भी बेटियों को बेटों से कमतर आंका जाता है. कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो ज़्यादातर परिवारों में बेटियों के जन्म पर आज भी मायूसी छा जाती है. बेटी के जन्म पर बधाई देते हुए अक्सर लोग कहते हैं, ङ्गङ्घमुबारक हो, लक्ष्मी आई है.फफ लेकिन सच ये है कि धन रूपी लक्ष्मी आने पर सभी को ख़ुशी होती है, लेकिन बेटी रूपी लक्ष्मी के आने पर सबके चेहरे का रंग उड़ जाता है. उसे बोझ समझा जाता है. इसी मानसिकता के चलते कन्या भ्रूण हत्या जैसे जघन्य अपराध का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा, बल्कि व़क्त के साथ बढ़ता ही जा रहा है.
शिक्षित वर्ग भी नहीं है पीछे
ऐसा नहीं है कि स़िर्फ गांव, कस्बे और अशिक्षित वर्ग में ही लड़कियों को जन्म से पहले मारने के मामले सामने आते हैं, हैरत की बात ये है कि ख़ुद को पढ़ा-लिखा और मॉडर्न कहने वाले लोग भी निःसंकोच इस जघन्य अपराध को अंजाम दे रहे हैं. कुछ मामलों में तो परिवार वाले मां की मर्ज़ी के बिना ज़बरदस्ती उसका गर्भपात करवा देते हैं. इसके अलावा छोटे परिवार की चाहत रखने वाले अधिकतर दंपति पहली लड़की होने पर हर हाल में दूसरा लड़का ही चाहते हैं, इसलिए सेक्स डिटर्मिनेशन टेस्ट करवाते हैं और लड़की होने पर एबॉर्शन करवा लेते हैं. ताज्जुब की बात ये है कि पढ़ी-लिखी और उच्च पदों पर काम करने वाली महिलाओं पर भी परिवार वाले लड़के के लिए दबाव डालते हैं.
एक प्रतिष्ठित कंपनी में एक्ज़ीक्यूटिव पद पर कार्यरत स्वाति (परिवर्तित नाम) बताती हैं, "बेटी होने की ख़बर सुनते ही मेरे ससुराल वालों के चेहरे पर मायूसी छा गई, क्योंकि सबको बेटे की आस थी. बेटी के जन्म के कुछ महीनों बाद से ही घर में बार-बार दूसरे बच्चे की प्लानिंग की चर्चा होने लगी. इतना ही नहीं, दूसरी बार भी लड़की न हो जाए इसके लिए लिंग परीक्षण कहां करवाया जाए,इस पर भी सोच-विचार होने लगा. हैरानी तो तब हुई जब मेरे पति भी दूसरी बार लड़की होने पर एबॉर्शन की बात करने लगे.''
कुछ ऐसी ही कहानी दीपिका की भी है. एचआर प्रोफेशनल दीपिका कहती हैं, "शादी के 4 साल बाद मुझे लड़की हुई, लेकिन बेटी के जन्म से घर में कोई भी ख़ुश नहीं था. उसके जन्म के 1 साल बाद ही मुझ पर दोबारा मां बनने का दबाव डाला जाने लगा, लेकिन मैं इसके लिए न तो शारीरिक रूप से तैयार थी और न ही मानसिक. उस दौरान मेरी हालत बहुत अजीब हो गई थी. घर वालों की बातें सुनते-सुनते मैं बहुत परेशान हो गई थी. मुझे समझ में नहीं आता, आख़िर लोग ये क्यों भूल जाते हैं कि लड़के को जन्म देने के लिए भी तो लड़की ही चाहिए. सब कहते हैं लड़कों से वंश आगे बढ़ता है, लेकिन लड़कियां ही नहीं रहेंगी, तो आपकी पीढ़ी आगे कैसे बढ़ेगी?''
दीपिका का सवाल बिल्कुल जायज़ है, वंश और ख़ानदान को आगे बढ़ाने के लिए लड़के जितने ज़रूरी हैं, लड़कियां भी उतनी ही अहम् हैं. ये गाड़ी के दो पहियों के समान हैं. यदि एक भी पहिया निकाल दिया जाए तो परिवार और समाज की गाड़ी आगे नहीं बढ़ पाएगी, लेकिन लोग इस बात को समझ नहीं पा रहे हैं. बेटे के मोह में महिलाओं का कई बार गर्भपात करवाया जाता है, बिना ये सोचे कि इसका उनके शरीर और मन पर क्या असर पड़ेगा. इतना ही नहीं, कई बार तो पांचवें-छठे महीने में भी गर्भपात करवा दिया जाता है, जिससे कई महिलाओं की जान भी चली जाती है.
कन्या भ्रूण हत्या के कारण
हमारे देश में दशकों से बेटों की चाह में बेटियों की बलि चढ़ाई जाती रही है. कहीं जन्म लेने के बाद उसे मार दिया जाता है, तो कहीं जन्म से पहले. अब नई तकनीक की बदौलत उन्हें दुनिया में आने ही नहीं दिया जाता. आख़िर क्या कारण है कि लोग लड़कियों को जन्म ही नहीं लेने देते?
* लड़कियों को बोझ समझने की सबसे बड़ी वजह है बरसों पुरानी दहेज प्रथा, जो आज भी फल-फूल रही है. शादी के समय बेटी को लाखों रुपए दहेज देना पड़ेगा, यही सोचकर लोग लड़कियों के जन्म से डरते हैं.
* लड़कियां तो पराया धन हैं, शादी के बाद पति के घर चली जाएंगी, लेकिन लड़के बुढ़ापे का सहारा बनेंगे, वंश आगे बढ़ाएंगे, ख़ानदान का नाम अगली पीढ़ी तक ले जाएंगे, ये सोच लड़कियों के जन्म के आड़े आती है.
* कई परिवार लड़कों के जन्म को प्रतिष्ठा से जोड़कर देखते हैं, ऐसे परिवारों में लड़कियों के जन्म को शर्मनाक समझा जाता है.
* यदि पहली लड़की है, तो दूसरी लड़की को जन्म नहीं लेने दिया जाता.
* गरीबी, अशिक्षा और लड़कियों को बोझ समझने वाली मानसिकता कन्या भ्रूण हत्या के लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं.
अपने हक़ से महरूम है आधी आबादी
स्त्री को मां और पत्नी के रूप में अपनाने वाला समाज न जाने क्यों उसे बेटी के रूप में स्वीकार नहीं कर पाता. बेटियों को जन्म से पहले ही मारकर न स़िर्फ उनसे जीने का अधिकार छीना जा रहा है, बल्कि ऐसा करके लोग प्रकृति के संतुलन को भी बिगाड़ने की कोशिश कर रहे हैं.
इसी मानसिकता के चलते आज भी कई परिवारों में लड़के-लड़कियों की परवरिश में फर्क़ किया जाता है. ये भेदभाव अनपढ़ ही नहीं, बल्कि पढ़े-लिखे परिवारों में भी होता है. कई अभिभावक बेटे की हर जायज़-नाजायज़ मांग तुरंत पूरी करते हैं, लेकिन वही मांग अगर बेटी करे, तो उसकी उपेक्षा कर दी जाती है.
घटती तादाद चिंता का विषय
जिस रफ़्तार से लड़कियों की तादाद कम हो रही है, उसे देखते हुए यह कहना ग़लत नहीं होगा कि वो दिन दूर नहीं जब शादी के लिए लड़कियां ही नहीं मिलेंगी. कई जगहों पर तो ये समस्या शुरू भी हो चुकी है. इतना ही नहीं, इस असंतुलन से समाज में महिलाओं से जुड़े अपराध और सेक्स संबंधी हिंसा के मामलों में और बढ़ोतरी होगी. यदि इसी तरह से लड़कियों को कोख में मारने का सिलसिला चलता रहा, तो संभव है कि भविष्य में हर पुरुष को पत्नी न मिल पाए. ऐसे में एक औरत को कई पुरुषों के बीच बांटा जाएगा. हो सकता है, औरत पर अपना हक़ जताने के लिए लड़ाइयां भी शुरू हो जाएं. ये सारी बातें समाज के नैतिक पतन की ओर इशारा करती हैं, लेकिन कन्या भ्रूण हत्या जैसा घिनौना अपराध करने वाले लोग इस भयावह स्थिति के बारे में सोचने तक की ज़हमत नहीं उठाते. यदि बेटी को जन्म ही नहीं लेने दिया जाएगा, तो ममता की छांव व मार्गदर्शन करने वाली मां और हर मुश्किल में साथ देने वाली पत्नी कहां से मिलेगी. बिना औरत के सभ्य समाज की कल्पना नहीं की जा सकती. इतनी अनमोल होते हुए भी न जाने क्यों कुछ लोग बेटियों की अहमियत नहीं समझ पाते.
क्या कहता है क़ानून?
बॉम्बे हाईकोर्ट की वकील ज्योति सहगल के मुताबिक, प्री-कन्सेप्शन एंड प्री-नैटल डायग्नोस्टिक टेक्नीक्स(पीसीपीएनडीटी) एक्ट 1994 के तहत, प्रेग्नेंसी के दौरान लिंग परीक्षण और जन्म से पहले कन्या भ्रूण की हत्या को ग़ैर क़ानूनी ठहराया गया है, लेकिन इस क़ानून का व्यापक असर नहीं हुआ है. कन्या भ्रूण हत्या प्रतिबंधित है, लेकिन मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (एमटीपी) एक्ट के तहत निम्न परिस्थितियों में क़ानूनन गर्भपात की अनुमति है.
* प्रेग्नेंसी की वजह से महिला की जान को ख़तरा हो.
* महिला के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य को ख़तरा हो.
* प्रेग्नेंसी की वजह रेप हो.
* यदि बच्चा गंभीर रूप से विकलांग या अपाहिज पैदा होने की संभावना हो.
कब होती है सज़ा?
कन्या भ्रूण हत्या जैसे गंभीर ज़ुर्म के लिए क़ानून द्वारा निम्न सज़ा तय की गई हैंः
आईपीसी धारा 313- महिला की अनुमित के बिना ज़बरदस्ती गर्भपात करवाने वाले को आजीवन कारावास या जुर्माने की सज़ा हो सकती है.
आईपीसी धारा 314- गर्भपात करवाने के लिए किए गए कार्यों से यदि महिला की मृत्यु हो जाती है, तो 10 साल की सज़ा या जुर्माना या फिर दोनों की सज़ा हो सकती है. यदि एबॉर्शन महिला की मर्ज़ी के बिना किया जा रहा हो तो सज़ा आजीवन कारावास होगी.
आईपीसी धारा 315- बच्चे को ज़िंदा जन्म लेने से रोकना या ऐसे कार्य करना जिससे जन्म लेते ही उसकी मृत्यु हो जाए दंडनीय अपराध है. इसके लिए अपराधी को 10 साल की सज़ा या जुर्माना या फिर दोनों से दण्डित किया जा सकता है.
सख़्त क़ानून के साथ ही मानसिकता बदलने की ज़रूरत
सोशल एक्टिविस्ट वर्षा देशपांडे कहती हैं, "कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए स़िर्फ मज़बूत क़ानून और पॉलिसी बनाने की ही नहीं, बल्कि उसे सख़्ती से लागू करने की भी ज़रूरत है.फफ एडवोकेट ज्योति सहगल भी इस बात से सहमत हैं. उनका मानना है, ङ्गङ्घक़ानून को अमल में लाने की जो प्रक्रिया है उसे सुधारना ज़रूरी है. साथ ही कन्या भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक बुराई को ख़त्म करने के लिए लोगों की सोच बदलनी भी बेहद ज़रूरी है. जब तक लोगों के विचार नहीं बदलेंगे स़िर्फ क़ानून बनाने से कुछ नहीं होगा. पहली पत्नी के ज़िंदा रहते दूसरी शादी करना क़ानूनन ज़ुर्म है, बावजूद इसके आज भी कई लोग ऐसे हैं जो पहली पत्नी से बेटा न होने पर दूसरी शादी कर लेते हैं और समाज इसे ग़लत नहीं मानता. जब तक ये स्थिति नहीं बदलेगी लड़कियों को उनका हक़ नहीं मिलेगा. जन्म से पहले ही लड़कियों को मारना हत्या जैसा ज़ुर्म है और इसके लिए डॉक्टर के साथ ही वो व्यक्ति भी सज़ा का हक़दार है जो गर्भपात करवाता है.''
लेक लाडकी अभियान
कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए महाराष्ट्र में लेक लाडकी अभियान की शुरुआत करने वाली सोशल एक्टिविस्ट वर्षा देशपांडे का कहना है कि डिज़ाइनर साड़ियों की तरह ही आजकल लोग डिज़ाइनर बेबी चाहते हैं. पढ़े-लिखे और रसूखदार लोग लाखों रुपए देकर लिंग परीक्षण करवा रहे हैं. वर्षा का कहना है कि लिंग भेद के मामले में महाराष्ट्र की स्थिति हरियाणा से भी बदतर है. कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए वर्षा सबसे ज़्यादा ज़ोर सेक्स डिटर्मिनेशन टेस्ट बंद करवाने पर देती हैं. वर्षा कहती हैं, "पहले लिंग परीक्षण पर रोक लगाना ज़रूरी है. जब परीक्षण ही नहीं होगा तो कन्या भ्रूण हत्या भी नहीं होगी. कन्या भ्रूण हत्या के बढ़ते मामलों के लिए वर्षा डॉक्टरों को भी आड़े हाथों लेती हैं. उनके मुताबिक ङ्गङ्घडॉक्टर्स लॉबी में एथिकल क्राइसेस हैं. चंद रुपयों की ख़ातिर ये लोग टेक्नोलॉजी का दुरुपयोग कर रहे हैं.''
आज भी कई गांव व शहरों में कन्या भू्रण हत्या की जा रही है. आज भी कई लोग ऐसे हैं जो लड़की को बोझ समझते हैं और सोचते हैं कि लड़की से ख़ानदान आगे कैसे बढ़ेगा? महिलाओं की सामाजिक स्थिति में सुधार लाने के लिए सबसे पहले इस विचारधारा को बदलने की ज़रूरत है.मेघना मलिक, टीवी कलाकार
बेटियों की घटती संख्या को उजागर करते आंकड़े
2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में प्रति हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या स़िर्फ 914 रह गई है, जो आज़ादी के बाद से सबसे कम है.
2001 में ये तादाद 927 थी.
सबसे बदतर हालात हरियाणा में हैं. यहां लड़कियों का अनुपात स़िर्फ 861 है.
युनाइटेड नेशंस पॉप्युलेशन फंड एजेंसी के आंकड़ों के मुताबिक, अकेले महाराष्ट्र में हर साल क़रीब 55,000 लड़कियों को जन्म से पहले मार दिया जाता है.
महाराष्ट्र में साल 2001 में प्रति हज़ार लड़कों पर लड़कियों कि संख्या 913 थी जो 2011 में घटकर 883 हो गई.