यह आज देश के हर उस डॉक्टर-नर्स और मेडिकल स्टाफ की कहानी है, जो पिछले दो महीने से कोरोना वायरस पीड़ितों की देखभाल में रात-दिन जुटे हैं. इनमें से कईयों ने तो अपने बच्चों को पिछले दो महीने से देखा भी नहीं है. जितना प्रेम इन्हें अपने परिवार से है, उतनी ही संवेदना कोरोना पीड़ितों के प्रति भी है… आइए, इनसे जुड़ी कहीं-अनकही भावनाओं से ओतप्रोत मर्मस्पर्शी दास्तान से रू-ब-रू होते हैं…
आंखों में कई रतजगों की थकान, मन के किसी कोने में अपनों से जल्द-से-जल्द मिलने की इच्छा और दिल में संयम और संकल्प. संयम अपने आपको परिवार और बच्चों से दूर रखने का और संकल्प देश पर आई इस कठिन घड़ी में अपने कर्तव्यों को निभाने का.
आसान नहीं होता लंबे समय तक अपने परिवार और घर से अलग रहना. बच्चों की नन्ही अठखेलियां इन्हें याद आती होंगी… इनको अपने बच्चे को गोद में उठा लेने का मन करता होगा… परिवार की याद भी आती होगी, पर यह हमारे देश के आधुनिक राम हैं, जिन्होंने अपनी ख़ुशी से वनवास और एकांतवास को अपनाया है. इन सभी को अपने स्वास्थ्यकर्मी होने पर गर्व है.
जहां इस कोरोना काल में हम सभी अपनों की सुरक्षा को लेकर फिक्रमंद हैं, वहीं यह कोरोना योद्धा निरंतर पीपीई किट पहने 12 से 14 घंटे रोगियों की देखभाल कर रहे हैं. क्या आप जानते हैं कि इस दौरान तीन-चार परतोंवाले पीपीई किट को उतारा नहीं जा सकता, इसलिए यह स्वास्थ्यकर्मी ना ही खाना खा पाते हैं और ना ही पानी पी सकते हैं. कइयों को तो डिहाइड्रेशन की तकलीफ से भी गुज़रना पड़ रहा है. पर यह सब इनके जज़्बे को कम नहीं कर पा रहा.
और मेरे जैसे लोग अभी सिर्फ अपने परिवार के बारे में सोचेंगे, तो फिर कोरोना बाधित परिवारों का क्या होगा?...
1999 में अपना नर्सिंग करियर शुरू करनेवाली मीना सप्पटी आजकल नागपुर के अस्पताल में कोविड-19 पॉज़िटिव रोगियों की सेवा कर रही हैं. मीना के दो बच्चे हैं. छोटी बेटी की उम्र सिर्फ 3 साल है. मीना बताती हैं कि पिछले लगभग डेढ़ महीने से वह अपने ही घर में एक अलग कमरे में रहती हैं, ताकि घरवालों और बच्चों को किसी तरह का संक्रमण ना हो. वह बताती है, "मेरे बच्चों को तो पता ही नहीं है कि मैं उसी घर में रहती हूं, जहां वो रहते हैं. बच्चे मेरे बारे में पूछते हैं, तो मेरे पति उन्हें बहला लेते हैं. रोज मैं उनके सोने के बाद उन्हें दूर से देख लेती हूं. बहुत मन करता है कि उन्हें कसकर गले लगा लूं, पर फिर अपने मन को समझा लेती हूं." कोरोना पीडितों की सेवा के बारे में कहती हैं कि मैं अपनी मर्जी से कोरोना महायुद्ध में अपनी सेवाएं देने आई हूं. मुझे ख़ुशी हुई थी, जब मेरा चयन कोरोना पीड़ितों की सेवा के लिए हुआ था. यह समय अपने स्वार्थों से ऊपर उठकर कुछ करने का है. अगर मैं और मेरे जैसे लोग अभी सिर्फ अपने परिवार के बारे में सोचेंगे, तो फिर कोरोना बाधित परिवारों का क्या होगा? मैं चाहती हूं कि जो लोग संक्रमित हैं वे जल्द-से-जल्द ठीक हो जाएं.
मीना आगे बताती हैं कि मैं लोगों से प्रार्थना करना चाहूंगी कि इस मुश्किल के समय में हमें सहयोग करें. हम अपने परिवारों और बच्चों को छोड़कर अपनी जान जोखिम में डालकर, बीमारी के ख़िलाफ लड़ रहे हैं.
बेटियां और पत्नी दूर से मुझे देखते हैं और सुरक्षित रहने को कहते हैं…
मुंबई के वाशी में एक निजी अस्पताल में काम करनेवाले डॉक्टर विशाल घाटगे पिछले 20 सालों से चिकित्सा क्षेत्र में है. वह कहते हैं कि उनके लिए चिकित्सा के क्षेत्र में काम करना किसी सपने के पूरे होने जैसा है. वह आगे बताते हैं, "मैंने हमेशा आईसीयू में काम किया है. इससे पहले मैंने एड्स और स्वाइन फ्लू संक्रमण के दौरान भी अपनी सेवाएं दी हैं. मेरा अनुभव है कि कोई भी महामारी हमें जीवन जीने के नए तरीक़े सिखाती है. अगर कुछ सावधानियां बरती जाएं और सहयोग किया जाए, तो इस मुश्किल समय में आसानी से मात दी जा सकती है."
विशाल आगे बताते हैं कि यह बीमारी कोरोना वायरस अत्यधिक संक्रमणशील है, इसलिए हम मेडिकल स्टाफ को बहुत सावधानी बरतने की ज़रूरत है, ताकि यह संक्रमण हमारे माध्यम से हमारे घरवालों में ना फैले. हम सभी मेडिकल स्टाफ हाइड्रोक्लोरोक्वीन की खुराक ले रहे हैं.
पिछले डेढ़ महीने से मैं अपने ही घर में अलग रह रहा हूं. दो बेटियां हैं, जो मेरी अवस्था को समझती हैं. ना मैं उनके साथ खाना खा पाता हूं और ना ही बात कर पाता हूं. किसी अजनबी की तरह घर में प्रवेश करता हूं और वैसे ही किसी अजनबी की तरह सुबह घर से निकल भी जाता हूं. बेटियां और पत्नी दूर से मुझे देखते हैं और सुरक्षित रहने को कहते हैं. इन सभी प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद मैं ख़ुद को भाग्यशाली मानता हूं कि मुझे इस महायुद्ध में शामिल होने का मौक़ा मिला."
यह एक युद्ध है और मैं एक योद्धा.. और ऐसे में मुझे अपनी भावनाओं को दरकिनार करना होगा…
इस कड़ी में आगे प्रियंका प्रसाद चौलकर, जो बीएमसी कुर्ला के अस्पताल में परिचारिका हैं, बताती हैं, "हमने नर्सिंग की शिक्षा लेने के बाद शपथ ली थी कि हम रोगियों की सेवा करने से कभी पीछे नहीं हटेंगे. आज इस शपथ को पूरा करने का समय आया है और मैं अपने देश की सेवा में अपना योगदान देने के लिए तत्पर हूं." ऐसा कहनेवाली प्रियंका रोज कई भावनात्मक युद्ध लड़ रही हैं. घर में इनका 3 साल का बेटा है, जो अक्सर वीडियो कॉल कर अपनी मां से पूछता है कि मां आप घर क्यों नहीं आती हो? मुझे आपकी याद आती है. ऐसे में उनके पति अपनी पत्नी और बेटे दोनों को भावनात्मक रूप से संभालते हैं. प्रियंका बताती हैं , "पिछले डेढ़ महीने से मैं अपने घर नहीं गई हूं. हम सभी के रहने की व्यवस्था सरकार ने होटल में की है. मैंने अपने बेटे को डेढ़ महीने से नहीं देखा. उससे बात करते समय मैं कमज़ोर भी नहीं पड़ सकती, क्योंकि मुझे देखकर वह भी रोने लगेगा. मैंने और मेरे पति ने उसे बताया है कि अगर मैं हॉस्पिटल से बाहर निकली, तो कोरोना वायरस पकड़ लेगा. वह समझ तो जाता है, पर मेरा मन कचोट जाता है. लेकिन फिर लगता है कि यह एक युद्ध है और मैं एक योद्धा… और ऐसे में मुझे अपनी भावनाओं को दरकिनार करना होगा."
जज़्बे को सलाम…
इस युद्ध में प्रियंका के पति उनका पूरा साथ दे रहे हैं. कुछ दिनों पहले प्रियंका की शादी की सालगिरह थी. वह मिल तो नहीं पाए, पर प्रियंका के पति ने प्रियंका के जज़्बे को सलाम करते हुए उनके नाम सोशल मीडिया पर एक पत्र लिखा. प्रियंका के लिए परिस्थितियां और भी मुश्किल हो गईं, जब 15 दिन पहले एक कोरोनाग्रस्त को ऑक्सीजन लगाते वक़्त सिलेंडर उनके पैर पर गिर गया और उनका पैर फ्रैक्चर हो गया, पर इस चोट ने उनके जज़्बे को कम नहीं किया. वह बस कुछ दिनों में अपने काम पर लौटने वाली हैं.
एक पहलू यह भी…
- इन सभी की यह यात्रा आसान नहीं है. जहां इन्हें एक ओर ख़ुद को शारीरिक रूप से स्वस्थ रखना है, वहीं मानसिक तौर पर अपने आपको मोटिवेटेड भी रखना है.
- यह सभी बहुत नकारात्मक और प्रतिकूल परिस्थितियों में काम कर रहे हैं. ऐसे में यह अपनी हिम्मत कैसे बनाएं रखते हैं? इस पर डॉ. विशाल बताते हैं, "मेरी मां की चिकित्सकों में बहुत आस्था थी. मैं डॉक्टरों की कहानियां सुनकर ही बड़ा हुआ. अब शायद वही काम आ रहा है."
- वहीं इन प्रतिकूल परिस्थितियों में भी कुछ ऐसा भी होता है कि इन सभी का मनोबल दुगना हो जाता है.
- प्रियंका बताती है कि कुछ दिनों पहले एक डेढ़ महीने के बच्चे को कोरोना हुआ था. और वह हमारे अस्पताल में आया. उसकी देखभाल करने के बाद जब वह पूरी तरह से ठीक हो गया, तो हम सभी का मनोबल दुगना हो गया.
- ऐसे बच्चों के चेहरों पर हम अपने बच्चों की मुस्कान ढूंढ़ लेते हैं…
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मरीज़ों का मनोबल बढ़ते ये फरिश्ते…
इन सभी के संघर्ष अतुलनीय हैं, पर इस भावनात्मक संघर्ष को यह कभी भी अपने कर्तव्यों के बीच में नहीं आने देतें. प्रियंका बताती हैं, "जब पीड़ित आते हैं, तो वह बहुत डरे होते हैं. उस पर से कोरोना वायरस की वजह से मिलनेवाला एकांतवास उन्हें और भी घबरा देता है. ऐसे में हम कोशिश करते हैं कि उन्हें अपनों की कमी कम महसूस हो. हम उनसे बात करते हैं. उनके पास जाकर दवाइयां देते हैं. उनके मनोबल को बनाए रखते हैं. और उन्हें विश्वास दिलाते हैं कि वह कुछ दिनों में पूरी तरह से ठीक हो जाएंगे."
यह सभी बदले में बस यह चाहते हैं कि पीड़ित और उनके परिजन इलाज के दौरान सहयोग करें. स्वास्थ्यकर्मी उनकी मदद करने के लिए दिन-रात तत्पर है. वाक़ई ये किसी फरिश्ते से कम नहीं.
इन कोरोना योद्धाओं के सेवा, त्याग, अपनापन, जज़्बे और सहयोग को सलाम!.. साथ ही हमारी सभी से गुज़ारिश है कि वे डॉक्टर, नर्स, सफ़ाई कर्मचारियों यानी हर उस व्यक्ति को सहयोग और सम्मान दे, जो कोरोना वायरस की लड़ाई में अपना तन-मन समर्पित किए हुए हैं.
- विजया कठाले निबंधे