आम लोगों में क़ानून से जुड़ी कई ऐसी भ्रांतियां व्याप्त हैं, जो उन्हें स़िर्फ आर्थिक ही नहीं, सामाजिक नुक़सान भी पहुंचा सकती हैं. कहीं आप भी किसी ऐसे कन्फ्यूजन में हों, तो इन्हें अभी दूर कर लें.
लोन में गारंटर के रूप में साइन करने में कोई हर्ज नहीं
गारंटर के रूप में रघुनाथ ने चार साल पहले अपने लंगोटिया यार विपिन के होम लोन के पेपर्स पर बिना सोचे-समझे धड़ल्ले से साइन कर दिया. पेपर साइन करते वक्त उसके मन में दो विचार थे. पहला- विपिन तो मेरा पुराना दोस्त है, मुझसे ग़लत पेपर्स थोड़ी साइन करवाएगा. दूसरा- अरे गारंटर की साइन ही तो कर रहा हूं. लोन कौन सा मुझे चुकाना है. वो तो विपिन की ज़िम्मेदारी है. लेकिन उसके दोनों ही विचार तब ग़लत साबित हो गए जब उसके पास बैंक का नोटिस आया और गारंटर के रूप में लोन चुकाने के लिए कड़ा तकादा किया गया. वकीलों से बातचीत करने के बाद ही उसे पता चला कि किसी भी क़ानूनी कागज़ पर बिना सोचे-समझे साइन करना कितना भारी पड़ सकता है. यह भी बाद में पता चला कि गारंटर के रूप में साइन करना महज कागज़ी खानापूर्ति नहीं होती, बल्कि कर्ज़दार के कर्ज़ न चुकाने की सूरत में बैंक गारंटर पर क़ानूनी कार्यवाही करके उससे भी वसूली कर सकता है. आप भी जान लें कि एक गारंटर के रूप में आपकी ज़िम्मेदारी तभी पूर्ण होती है, जब बैंक को लोन की रकम पूरी मिल जाती है. कर्ज़दार की मृत्यु या उसके डिफॉल्टर होने पर ऋण चुकाने की ज़िम्मेदारी गारंटर की होती है. जब तक लोन का रीपेमेन्ट नहीं हो जाता, तब तक आपकी क्रेडिट रिपोर्ट पर भी इसका असर पड़ता है औऱ आपको खुद के लिए लोन मिलने में दिक्कत आ सकती है.

वारिस को संपत्ति का हक देने के लिए ऑनलाइन वसीयत काफी है
इन दिनों कई वेब पोर्टल और कंपनियां ऑनलाइन विल लिखने के लिए उपलब्ध हैं. जहां आप उनके मार्गदर्शन के मुताबिक सूचनाएं दर्ज़ करते हुए अपनी वसीयत लिख सकते हैं. आपकी दी गई सूचनाओं को इकट्ठा करके वेबसाइट खुद ही आपकी वसीयत ड्राफ्ट कर देती है. इसमें करीब दस हज़ार रुपये के आसपास खर्च आएगा. कई लोग वसीयत ड्राफ्टिंग होकर आने पर समझते हैं कि बस अब काम पूरा हो गया, लेकिन भारतीय क़ानून ऑनलाइन विल को स्वीकार नहीं करता. आपको इस ड्राफ्टिंग का प्रिंट लेना होगा और दो गवाहों के सामने इस पर अपने हस्ताक्षर करने होंगे. बिना गवाहों या आपके हस्ताक्षर के इस ड्राफ्टिंग का कोई कानूनी महत्व नहीं है. ज़रूरी तो नहीं है, पर बेहतर होगा कि आप इसे रजिस्टर भी करवा लें. हां, वसीयत लिखते वक्त ध्यान रखें कि जिसे अपनी संपत्ति देनी हो, उसका घरेलू या आधा-अधूरा नाम न लिखें, अगर नगद रकम है, तो रक्म का स्पष्ट उल्लेख करें, अचल संपत्ति का पूरा ब्यौरा, नाप आदि अवश्य दें. जिन गवाहों के हस्ताक्षर हैं, वे खुद संपत्ति हासिल करने वाले या उसकी पत्नी/पति न हों.
किसी भी प्रतिनिधित्व के लिए लेटर ऑफ ऑथरिटी पर्याप्त है
वैसे तो अपने फाइनेंशियल मैटर्स की देखभाल यथासंभव खुद ही करनी चाहिए, लेकिन काम अधिक हो, तो व्यक्तिगत रूप से हर जगह खुद देखना संभव नहीं हो पाता. ऐसे में हम किसी व्यक्ति को अधिकार पत्र या फिर लेटर ऑफ ऑथरिटी दे देते हैं. पत्रवाहक उस पत्र को दिखाकर कई रूटीन वर्क कर सकता है, जैसे बैंक से अकाउंट स्टेटमेंट लाना, चेक बुक लाना, किसी कार्यालय से कोई कागज़ात लाना या किसी व्यक्ति या संस्था विशेष के पास रखा कोई सामान लाना आदि. लेकिन यह कोई रजिस्टर्ड डॉक्यूमेंट नहीं है, इसलिए इसे किसी बड़े लेनदेन या जटिल फाइनेंशियल ट्रांजैक्शन के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. ज़मीन-जायदाद की खरी-फरोख्त आदि के लिए आपको अपने प्रतिनिधि को पावर ऑफ एटॉर्नी देनी पड़ेगी. इसमें लेनदेन विशेष का ब्यौरा सिलसिलेवार दर्ज रहता है और यह किसी खास लेनदेन के लिए ही इस्तेमाल किया जा सकता है. आपको किसी को पावर ऑफ एटॉर्नी देते वक्त कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए कि व्यक्ति विश्वासी हो, अपने अधिकारों का दायरा समझता हो, आपको पता हो कि आप उस व्यक्ति को क्या-क्या अधिकार दे रहे हैं और डॉक्यूमेंट में उसके रद्द होने की समय सीमा औऱ ब्यौरा भी दर्ज होना चाहिए. असीमित अधिकार और सीमाहीन समय का डॉक्यूमेंट आपके लिए घातक सिद्ध हो सकता है.
कोर्ट के बाहर सेटलमेंट कर लेने के बाद कुछ नहीं हो सकता
कांति प्रसाद और उसके बिजनेस पार्टनर प्रशांत के बीच विवाद हो गया. बात कोर्ट-कचहरी तक पहुंच गई, लेकिन फिर कांतिप्रसाद के पार्टनर ने उसे आउट ऑफ कोर्ट सेटलमेंट करने की बात कही. कांति की भी कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाने में दिलचस्पी नहीं थी, इसलिए उसने हामी भर ली. लेकिन बाद में उसे पता चला कि प्रशांत ने समझौते में छिपी शर्तें डालकर उसके साथ धोखा किया है. कांतिप्रसाद हाथ मल कर रह गया, क्योंकि उसे लगा था कि अब कुछ नहीं हो सकता. बहुत सारे लोग ऐसा ही सोचते हैं, लेकिन यह सच नहीं है. सच यह है कि धोखाधड़ी के मामले में आप हमेशा अदालत के पास जा सकते हैं. अदालत इस बात की समीक्षा करेगी कि समझौता या इकरारनामा किस मंशा से और किन परिस्थितियों में किया गया. अगर कोर्ट उसमें धोखाधड़ी या ग़लत मंशा पाता है, तो करार को रद्द कर देगा. अगर आर्बिट्रेशन एग्रीमेंट भी किया गया है और आप उससे संतुष्ट नहीं हैं, तो आप किसी वकील के मार्फत इसके खिलाफ अपील कर सकते हैं.

कोर्ट में ओरीजिनल पेपर जमा करने पड़ते हैं
कई लोग अदालत में कागज़ात जमा करते वक्त बड़ी भूल कर बैठते हैं और यह सोचकर कि कोर्ट फोटोकॉपी स्वीकार नहीं करेगा, ओरीजिनिल जमा कर देते हैं. बहुत संभव है कि आपके कागज़ात खो सकते हैं. सिविल प्रोसिजर कोड 1908 के मुताबिक जब आप कोर्ट में कोई याचिका या मुकादमा दायर करते हैं, तो प्रमाण के रूप में वास्तविक दस्तावेज की सर्टीफाइड फोटोकॉपी और एफिडेबिट जमा देने की ज़रूरत होती है. हां, जब सुनवाई के लिए आपको बुलाया जाए, तब जज आपस ओरीजिनल पेपर दिखाने को कह सकते हैं, जो आपको साथ रखने चाहिए. लेकिन आपके पास किसी कारणवश ओरीजिनल पेपर नहीं हैं, तो आप उस वक्त भी उन्हें गैजेटेड ऑफिसर द्वारा सर्टीफाइड फोटोकॉपी दिखा सकते हैं. आपको ओरीजिनल पेपर अपने वकील को भी नहीं सौंपने चाहिए, क्योंकि कार्य की व्यस्तता औऱ भागदौड़ के बीच उनके खो जाने का डर रहता है. ओरीजिनल डाक्यूमेंट्स की सुरक्षा के मद्देनजर उन्हें आप स्कैन करके कंप्यूटर या क्लाउड में स्टोर करके रख लें. इसके लिए ऑनलाइन सर्विस गूगल डॉक्स (ऊेली.सेेसश्रश.लेा) का इस्तेमाल भी कर सकते हैं.
कंज्यूमर कोर्ट में जाने के लिए वकील ज़रूरी है
उत्पादकों, सेवा प्रदाताओं व अन्य कंपनियों से परेशान कई लोग उपभोक्ता अदालत में सिर्फ इस डर से नहीं जाते हैं कि कौन कोर्ट कचहरी के चक्कर में पड़े और ऊपर से वकील की मोटी फीस भी चुकानी पड़ेगी. सच तो यह है कि कंज्यूमर कोर्ट में जाने के लिए वकील की ज़रूरत नहीं होती. सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी रूलिंग दे दी है. सन् 2000 में मुंबई डिस्ट्रिक्ट कंज्यूमर फोरम ने उपभोक्ता द्वारा दो टूर ऑपरेटर्स के खिलाफ दी गई अर्जी को यह कहकर ठुकरा दिया था कि आपको वकील के मार्फत आना होगा. लेकिन बाद में फोरम के इस निर्णय के खिलाफ कहा गया कि कंज्यूमर फोरम में शिकायत के लिए वकील की कोई ज़रूरत नहीं. सुप्रीम कोर्ट ने विस्तारपूर्वक अपने निर्णय में सलाह दी कि कंज्यूमर कोर्ट की कार्यवाही का तरीका ऐसा होना चाहिए कि सामान्यजन भी अपना पक्ष पेश कर सकें. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि ऐसे मामलों में विवादित राशि काफी कम होती है. ऐसे में वादी द्वारा वकील की फीस अदा करना व्यावहारिक और तर्कसंगत नहीं होगा.
जब चाहूं कोर्ट में केस कर सकता हूं
भारतीय कानून किसी भी नागरिक को न्याय पाने का पूरा मौका देता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आप जब चाहें कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकते हैं. सिविल केस 1963 के लिमिटेशन एक्ट के दायरे में ही दर्ज किए जा सकते हैं. इसके तहत कोई मुकदमा आप घटना या शिकायत के तीन महीने से लेकर तीन साल के भीतर ही दायर कर सकते हैं. समय सीमा मामले के ऊपर निर्भर करती है. अगर आप तय समय सीमा में मुकदमा दायर नहीं करते, तो इसे टाइम बार्ड यानी समयातीत करार देकर रिजेक्ट किया जा सकता है. ज़्यादातर प्रतिवादी के वकील ऐसे केस का विरोध करते हैं. हां! कतिपय परिस्थितियों में कोर्ट समय सीमा के बाद भी किसी मामले पर सुनवाई कर सकता है. अगर केस दायर करने वाला व्यक्ति नाबालिग है या मानसिक रूप से अक्षम है, तो उसके लिए समय सीमा में छूट दी जा सकती है.

मैं पैतृक सम्पति को जिसे चाहूं गिफ्ट कर सकता हूं
माना कि एचयूएफ (हिंदू संयुक्त परिवार) की स्थापना करके आप कतिपय टैक्स लाभ अर्जित कर सकते हैं, लेकिन प्रॉपर्टी के अंतरण को लेकर कुछ प्रतिबंध होते हैं. बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा कुछ समय पहले किए गए एक फैसले के मुताबिक एचयूएफ के संयुक्त रूप से मालिकाना हक वाली पैतृक सम्पत्ति को आप तभी किसी को दे सकते हैं जब आप परिवार के अकेले जीवित सदस्य हों. किसी भी एचयूएफ में संपत्ति का मालिकाना हक सभी सदस्यों का संयुक्त रूप से होता है, इसलिए किसी भी एक सदस्य का उस पर संपूर्ण अधिकार नहीं हो सकता. जाहिर है, ऐसे में वह कोई संपत्ति तीसरे व्यक्ति को गिफ्ट में या रकम के बदले नहीं दे सकता.
(कोलकाता हाईकोर्ट के वकील इंद्रनील चंद्र और स्नेहा गिरी से बातचीत पर आधारित)
- शिखर चंद जैन