यह युद्ध की ललकार तो नहीं थी फिर क्यों? तुम्हारे अदृश्य चक्रव्यूह की दुरूह रचना में मैं स्वयं ही चली…
मेरा उससे वादा था कि जब सूरज और सागर का मिलन होगा और रक्ताभ हो उठेंगे सूरज के गाल तो…
बदली के घूंघट को तोड़, धूप सखी इठलाकर बोली अब तो मैं मुँह दिखलाऊंगी ही, आने को है होली बिन…
कह दिया सब नई बात को बहाना कोई बाकी रहे चाहती हूं कि मेरी चाहतों में चाहना तेरा बाकी रहे…
पानी-पानी समां है, बूंदों सा बिखर जाना एक तेरा छा जाना, एक मेरा बरस जाना बस एक यही तो मौसम…
हूं बूंद या बदली या चाहे पतंग आसमान तुम बनो हूं ग़ज़ल या कविता या कोई छंद अल्फ़ाज़ तुम बनो…
कश्मकश में थी कि कहूं कैसे मैं मन के जज़्बात को पढ़ा तुमको जब, कि मन मेरा भी बेनकाब हो…
स्त्री शक्ति का अवतार है वो प्रेम, ममता, वात्सलय और स्नेह से मालामाल है जगत को जीवन देने वाली वो…
दिल की तन्हाई में एक दीप जलाने का हुनर सीखना है मुझे ऐ ज़िंदगी तुझसे जीने का हुनर सीखना है…
कितना अजीब है ना दिसंबर और जनवरी का रिश्ता जैसे पुरानी यादों और नए वादों का क़िस्सा… दोनों काफ़ी नाज़ुक…