दिवाली की झालरें… ..टिम-टिम करती रंग-बिरंगी झिलमिलाती हुईं झालरें बतियाती रही रातभर दो सहेलियों की तरह कभी हंसतीं-खिलखिलाती.. कभी चुप-चुप…
पूर्णता की चाहत लिए प्रतीक्षारत कविताएं.. कुछ अधमिटे शब्दों की प्रस्तावित व्याख्याएं.. कब से, पल-पल संजोई हुई आशान्वित कल्पनाएं.. संभावनाओं…
मुझे तन्हाई से अक्सर मिला हैख़्यालों में वहीं दिलबर मिला है यूं मिलने के ठिकाने और भी थे कभी छज्जे…
कभी-कभी मैं कुछ नहीं भी कहती हूं तुम तब भी सुन लेते हो.. कैसे! कभी-कभी मैं कुछ कहती हूं तुम…
* गुज़र जानी थी ये उम्र किसी बेनाम कहानी की तरह कि बियाबान में फैली ख़ुशबू और उसकी रवानी की…
बारिश की बूंदों ने आज फिर दिल को गुदगुदाया है रिमझिम फुहारों ने मौसम को आशिक़ाना बनाया है ठंडी बयार…
हालात मेरे देखकर क्यूं आसमां हैरान हैमैं अकेला ही नहीं, हर शख़्स परेशान है वादा किया था जिसने साथ निभाने…
लॉकडाउन पर विशेष... सब प्रतीक्षारत हैं बैठे हैं वक़्त की नब्ज़ थामे कि कब समय सामान्य हो और रुके हुए…
सुनो कवि.. पहाड़ी के उस पार वो स्त्री.. रोप रही है नई-नई पौध सभ्यताओं की और उधर.. गंगा के किनारे…
झूठ-मूठ खांसा क्या बहू ने बन गए झटपट काम पलंग छोड़ सासू भागी, उनका जीना हुआ हराम जीना हुआ हराम…