बचपन से कुछ ज़्यादा, जवानी से कुछ कम... न अपनों की चिंता, न दुनिया का ग़म... उमंगों का तूफ़ान और मन में ढेर सारे सवाल... कुछ भोली नादानियां, कुछ मीठी शैतानियां... छोटी-छोटी ख़ुशियां और कभी छोटी-सी बात पर बड़ी परेशानियां... कुछ ऐसी ही होती है इस उम्र की मेहरबानियां...
पीयर और फैमिली प्रेशर: दोस्त कहते हैं पार्टी में चल, मॉम-डैड कहते हैं पूजा में चल. कहां जाएं? किसकी बात सुनें? यह दुविधा हर टीनएजर के मन में होती है. * दरअसल जो चीज़ पैरेंट्स के लिए पीयर प्रेशर है, वही टीनएजर्स के लिए पीयर प्लेज़र है. उन्हें वो प्रेशर नहीं लगता. उन्हें लगता है कि जो दोस्त कहते हैं, वही सही है. * दोस्तों का प्रभाव इस उम्र में इतना ज़्यादा होता है कि उनकी हर बात सही लगती है. उनके साथ ही मन भी लगता है. ऐसे में पैरेंट्स चिंतित होते हैं कि क्या करें, क्या न करें? * बच्चों को मनमानी करना भाता है. उन्हें सही-ग़लत का अंदाज़ा नहीं होता है. इसी पीयर प्रेशर में वो अक्सर ग़लत राह पकड़कर भटक भी जाते हैं. * शराब-सिगरेट और यहां तक कि सेक्स को लेकर भी काफ़ी एक्सपेरिमेंट करने लगते हैं. एक्सपर्ट सलाह: बच्चों को समझाएं कि उनकी अपनी मर्ज़ी, अपनी सोच और अपना निर्णय कितना महत्व रखता है. वो हर बात, हर समस्या आपसे शेयर करें. यदि कोई उन पर किसी भी तरह का दबाव बनाना चाहता है, तो अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ वो दबाव में न आएं. दूसरों के प्रभाव में रहनेवाला व्यक्ति कमज़ोर माना जाता है. इससे उनका भविष्य और रिश्ते भी प्रभावित हो सकते हैं, यह बात उन्हें समझाएं. अपोज़िट सेक्स के प्रति आकर्षण: हमारे समाज में आज भी सेक्स को टैबू ही माना जाता है. इस शब्द तक को ‘बुरा’ और ‘गंदा’ बताया जाता है. ऐसे में टीनएजर्स जब हार्मोनल बदलाव के चलते अपोज़िट सेक्स के प्रति आकर्षण महसूस करते हैं, तो उनके मन में सबसे पहले यही दुविधा होती है कि यह आकर्षण ग़लत चीज़ होती है. * यही वजह है कि वो इसके बारे में किसी को बताने से भी हिचकते हैं और फिर यहां-वहां से ग़लत जानकारियां इकट्ठी करते हैं. * दोस्तों में जो बातें होती हैं, उन्हें ही सही मानकर ग़लत रास्ता पकड़ लेते हैं या फिर ख़ुद को अपराधी महसूस करके डिप्रेशन में चले जाते हैं. एक्सपर्ट सलाह: सबसे पहले तो पैरेंट्स को ही यह बात समझनी होगी कि सेक्स और आकर्षण को लेकर अपने बच्चों के मन में नकारात्मक विचार न डालें. उन्हें यह न बताएं कि यह बहुत गंदी व ग़लत चीज़ है. उन्हें बताएं कि यह एक प्राकृतिक भावना है, लेकिन इसकी सही उम्र व सही व़क्त होता है. किसी को पसंद करना या किसी की तरफ़ अट्रैक्ट होना बहुत नेचुरल है. इसे स्वीकारने में कोई बुराई नहीं, लेकिन अपनी इन भावनाओं को सही दिशा कैसे दी जाए, यह भी जानना ज़रूरी है. वो आपसे सब कुछ आसानी से शेयर कर सकें, उनमें इतना विश्वास जगाएं. रैगिंग और बुली: स्कूल में बच्चे को चिढ़ाना, सताना व मारपीट करना बहुत-से बच्चों के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाता है. * उनके मन में एक डर बैठ जाता है. कॉलेज में सीनियर्स द्वारा रैगिंग के चलते भी न जाने कितनी युवा ज़िंदगियां ख़त्म होती हैं हर साल. * क़ानूनी प्रावधान के बावजूद ये वारदातें होती हैं और शायद होती भी रहें, क्योंकि स़िर्फ क़ानून काफ़ी नहीं है. * ये समस्याएं बहुत हद तक सामाजिक और पारिवारिक पहलुओं से भी जुड़ी हैं. जब तक वहां से कोई ठोस शुरुआत नहीं होगी, समाधान लगभग नामुमकिन है. एक्सपर्ट सलाह: जो लड़के/लड़कियां हॉस्टल में रैगिंग का शिकार होते हैं, उनके पैरेंट्स की ज़िम्मेदारी होती है कि जब वो अपने बच्चे को बाहरी दुनिया में जाने के लिए खुला छोड़ रहे हैं, तो उन बच्चों में इतना आत्मविश्वास भी भरें कि वो ग़लत व अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा सकें. अपने बच्चों को अच्छा इंसान बनाने की ट्रेनिंग हर व़क्त जारी रखें, ताकि वो किसी को परेशान न करें. बच्चे में आत्मविश्वास जगाएं, ताकि वो इस तरह की चीज़ों से परेशान होकर ग़लत क़दम न उठाए. उसे समझाएं कि दूसरों को परेशान करनेवाले दरअसल ख़ुद बहुत कमज़ोर व्यक्तित्व के होते हैं, ऐसे में उनसे डरने की बजाय स्कूल-कॉलेज और घरवालों से मदद लें. डिप्रेशन और सुसाइड: कभी अपने अफेयर्स टूटने के कारण, कभी पढ़ाई में पीछे रह जाने के चलते या कभी पैरेंट्स या टीचर्स से हल्की-सी डांट खाने पर भी टीनएजर्स डिप्रेशन में आकर आत्महत्या जैसा क़दम उठाते देर नहीं लगाते. * इस उम्र में वो इमोशनली इतने मैच्योर नहीं होते, उनके लिए हर छोटी चीज़ भी बड़े मायने रखती है. * छोटी-सी बात पर उनका दिल टूट जाता है, छोटी-सी डांट से उनकी इनसल्ट हो जाती है... उनकी यही अपरिपक्वता उनकी समस्याओं को बड़ा बना देती है. एक्सपर्ट सलाह: इस उम्र में मूड स्विंग्स बहुत होते हैं. कभी बेहद ख़ुश, तो कभी बेहद दुखी. सेल्फ एस्टीम भी कभी-कभी लो हो जाता है. जहां कुछ टीनएजर्स फिलॉसॉफिकल हो जाते हैं, तो कुछ में बचपना ही बना रहता है. ऐसे में पैरेंट्स को चाहिए कि वो ख़ुद को तैयार करें. अपने बड़े होते बच्चे के साथ कैसे रहना है, यह उन्हें जानना होगा. बच्चे में यदि कोई भी परिवर्तन दिखे, तो नज़रअंदाज़ न करें. उनसे बात करें. उन्हें समय दें. उन्हें बीच-बीच में समझाते रहें कि जिन बातों को जितना महत्व दे रहे हैं, दरअसल वो उतनी महत्वपूर्ण हैं ही नहीं. आगे चलकर जब कुछ सालों बाद वो इनके बारे में सोचेंगे, तो ख़ुद पर ही हंसेंगे. यदि बच्चों में नकारात्मक बातें और व्यवहार नज़र आने लगे, तो फ़ौरन काउंसलर की मदद लें. हर पल उन पर नज़र रखें. उन्हें अकेला न छोड़ें. कंफ्यूज़न- सही-ग़लत का फ़र्क़: उम्र के इस दौर में सही-ग़लत का निर्णय लेना या सही-ग़लत में फ़र्क़ समझ पाना ही उनके लिए बहुत मुश्किल होता है. * पैरेंट्स और टीचर्स की रोक-टोक, पाबंदियां उन्हें अपनी आज़ादी में खलल लगती हैं. * वहीं दूसरी तरफ़ वो अपनी ही आइडेंटिटी और अपने रोल को लेकर भी कंफ्यूज़ रहते हैं. * उन्हें लगता है कि समाज में उन्हें कोई एक्सेप्ट नहीं करता और न ही उनकी समाज और परिवार को कोई ज़रूरत है. * उन्हें न तो बच्चा समझकर उतना प्यार-दुलार मिलता है और न ही बड़ों-सा सम्मान. हर व़क्त रोक-टोक और सलाहें दी जाती हैं. * ये सब बातें उन्हें और कंफ्यूज़ करती हैं. * किसी लड़की से बात करें, तो सौ हिदायतें दी जाती हैं, दोस्तों के साथ रहें, तो भी सलाहें दी जाती हैं. उन्हें लगता है कि हर कोई उन्हें ग़लत ही साबित करने पर तुला है और यही वजह है कि वो किसी पर भी भरोसा नहीं कर पाते. * अपनी बातें किसी से शेयर नहीं करते और यही चीज़ें आगे चलकर परेशानियों का सबब बन जाती हैं. एक्सपर्ट सलाह: यह पैरेंट्स की ज़िम्मेदारी है कि वो अपने टीनएज बच्चों को उनका महत्व समझाएं. उन्हें घर-परिवार की कुछ ज़िम्मेदारियां भी सौंपें, जिससे उन्हें महसूस हो कि उनका भी कोई रोल है आपकी ज़िंदगी में. हर व़क्त रोक-टोक न करें. कभी-कभी उनकी मस्तियों में ख़ुद भी शामिल हो जाएं. उनकी सराहना करें और अपने कॉलेज के दिनों का उदाहरण देकर बताएं कि आप भी तब इसी तरह व्यवहार करते थे. सेक्सुअल हैरेसमेंट: बच्चे ही नहीं, टीनएजर्स भी सेक्स एब्यूज़ का शिकार होते हैं और टीनएजर्स एब्यूज़ करते भी हैं. सेक्स को लेकर समाज में जिस तरह की धारणाएं हैं, उसी के चलते इस उम्र में सबसे ज़्यादा भटकाव होता है. पैरेंट्स न तो बच्चों के सेक्स से जुड़े सवालों के जवाब देते हैं और न ही सेक्स एजुकेशन. स्कूल के टीचर से लेकर सीनियर्स तक सेक्सुअल हैरेसमेंट करते हैं और डर की वजह से इसका शिकार होनेवाले लड़के-लड़कियां कुछ नहीं कहते. कभी राह चलते, कभी बस स्टॉप पर और कभी ख़ुद अपने ही घर में सेक्सुअल एब्यूज़ की शिकार लड़कियां चुप रहकर सब सहती हैं, क्योंकि उन्हें ऐसी बातों को दबाकर रखने की ही सलाह बचपन से दी जाती है. वहीं लड़कों को ज़रूरत से ज़्यादा आज़ादी मिलती है, तो वो सेक्सुअल क्राइम तक में आसानी से शामिल हो जाते हैं. एक्सपर्ट सलाह: जो लड़कियां सेक्सुअल हैरेसमेंट का शिकार होती हैं, उन्हें दरअसल समझ ही नहीं आता कि वो आवाज़ उठाएं या नहीं. कंफ्यूज़न के कारण वो चुप रह जाती हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि ज़्यादा बोलने पर या तो लोग उन्हें बदतमीज़ समझेंगे या फिर क्या पता कोई उनका भरोसा करेगा भी या नहीं. एक तरफ़ लड़कों को यह समझाना-सिखाना ज़रूरी है कि वे महिलाओं और लड़कियों की इज़्ज़त करें, वहीं लड़कियों को भी इतना साहसी बनाना ज़रूरी है कि वो अपने साथ हो रही छेड़छाड़ के बारे में खुलकर बात कर सकें और उसका विरोध कर सकें.- मेरी सहेली संपादकीय
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