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कहानी- मृग-मरीचिका 2 (Story Series- Mrig-Marichika 2)

“अपनी रिक्वेस्ट पर तुम्हारा ओके होने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था. आज दफ़्तर में लंच करने न जाकर तुम्हें मेल लिखने बैठा हूं. मैंने तो फोटो से तुम्हें फ़ौरन पहचान लिया था. तुम्हारी वह मोनालिसा वाली सकुचाई-सी, दबी-सी मुस्कान मुझे असली चित्र से भी अधिक मोहक लगती है. पर तुम कैसे पहचानती? मेरे तो घुंघराले बाल मेरा साथ छोड़ गए हैं. आज तुम्हारा ईमेल आईडी पाकर जैसे मन की मुराद पूरी हो गई. तुम रहती कहां हो, यह नहीं बताया है तुमने फेसबुक पर.” इसके पश्‍चात् उसने गांधीधाम की अनेक बातें दोहराई थीं और मुझे अपने बारे में विस्तार से लिखने का आग्रह किया था. जीवनभर के संपर्क तो केवल रिश्तेदारी में ही निभ पाते थे. वह भी इसलिए कि ख़ुशी और ग़म के अवसरों पर मिलना हो जाता था. जिनसे मिलना न भी होता, हालचाल तो मिल ही जाता. जबकि बहुत क़रीब हो आए मित्रों से भी बिछुड़ने पर नेहपूर्वक दो-चार पत्रों का आदान-प्रदान होता, नव वर्ष अथवा कभी विवाह का निमंत्रण पत्र भेज दिया जाता और फिर ज़िंदगी की व्यस्तताओं में टूट जाते संपर्क. सागर में समा गई लहरों की तरह खो जाते मित्र भी. मैंने पढ़ाई पूरी की, विवाह हुआ और फिर बच्चों के लालन-पालन में पीछे छूट गया मेरा अतीत. धुंधली पड़ गई स्मृतियां. आज डीवी ने सब धूल झाड़, वह यादें ताज़ा कर दीं. इन वर्षों में बदलाव बहुत तेज़ी से आया है. पहले इंटरनेट और ईमेल आया. जिसकी भी याद आए, दो लाइनें लिख डालो, चाहो तो रोज़ ही. न व़क्त लगता है, न ही टिकट का पैसा और न ही डाकखाने का चक्कर. समय और आगे बढ़ा. लोग फेसबुक पर जुड़ने लगे. संबंध एकदम उलट गए. रिश्तेदारों से मिलना तो कभी-कभार होता है, पर फेसबुक पर जुड़े मित्रों की पूरी ख़बर रहती है. ‘छुट्टियों में कहां घूमने गए, कौन-सी मूवी देखी से लेकर कल रात डिनर किसके साथ लिया’ तक. फेसबुक पर जुड़े मित्र बस अपने ही बारे में बताते हैं या बता पाते हैं, जबकि हम तो मित्र को फेस-टू-फेस देखते ही उसकी मनःस्थिति समझ जाते थे. अपनी कहने से पहले पूछते, “उदास लग रहे हो, सब ठीक तो है न?” स्नेहपूर्वक उसका हाथ दबा उसे महसूस करवा देते कि वह कतई अकेला नहीं है. फेसबुक पर आप अपने मन का दर्द नहीं बांट सकते. इसीलिए शायद मित्रों की लंबी लिस्ट होते हुए भी आज हर कोई एकाकी है. अपनी लड़ाई स्वयं लड़ता हुआ, अकेला. और किसी अनजाने बोझ से दबा. यह भी पढ़ेभाई दूज के लिए स्मार्ट गिफ्ट आइडियाज़… (Smart Gift Ideas For Bhai Dooj) ख़ैर, पुराने मित्रों को खोज निकालने का अद्भुत अवसर देता है फेसबुक. जैसे आज डीवी ने मुझे खोज निकाला रिक्वेस्ट ‘कंफर्म’ होते ही संबंधित व्यक्ति के बारे में जानकारी सामने आ जाती है, जो भी वह पब्लिक में देना चाहे, उसकी ईमेल आईडी भी. देव ने अपना निवास स्थान दिल्ली बताया था. थोड़ा भय हुआ. देवव्रत चौधरी नाम का यह कोई और व्यक्ति तो नहीं, मैंने किसी अनजान व्यक्ति की फ्रेंड रिक्वेस्ट को तो कंफर्म नहीं कर दिया? अतः रिक्वेस्ट ओके करके मैंने एक प्रश्‍न पूछा, “स्कूली शिक्षा तुमने कहां से पाई है?” उसी दोपहर डीवी की एक लंबी-सी ईमेल आई. “अपनी रिक्वेस्ट पर तुम्हारा ओके होने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था. आज दफ़्तर में लंच करने न जाकर तुम्हें मेल लिखने बैठा हूं. मैंने तो फोटो से तुम्हें फ़ौरन पहचान लिया था. तुम्हारी वह मोनालिसा वाली सकुचाई-सी, दबी-सी मुस्कान मुझे असली चित्र से भी अधिक मोहक लगती है. पर तुम कैसे पहचानती? मेरे तो घुंघराले बाल मेरा साथ छोड़ गए हैं. आज तुम्हारा ईमेल आईडी पाकर जैसे मन की मुराद पूरी हो गई. तुम रहती कहां हो, यह नहीं बताया है तुमने फेसबुक पर.” इसके पश्‍चात् उसने गांधीधाम की अनेक बातें दोहराई थीं और मुझे अपने बारे में विस्तार से लिखने का आग्रह किया था. मैंने अपने बारे में बताया और पूछा, “तुम दिल्ली में क्या कर रहे हो?” जिसके उत्तर में उसने दिल्ली की एक मशहूर कंपनी का नाम बताते हुए लिखा कि वह उसमें पिछले कई सालों से काम कर रहा है और दफ़्तर के काम से ही उसका यदा-कदा चंडीगढ़ आना भी होता है और अगली बार आने पर मिलना चाहेगा. इसके बाद तो हमारे बीच ईमेल का अनवरत सिलसिला चल पड़ा. उसे गांधीधाम की सब बातें याद थीं. छोटी जगहों पर मिलने-मिलाने के और पार्टी करने के अवसर तलाशे जाते हैं. “तुम्हारे 18वें जन्मदिन पर तुम्हारे घर क्या शानदार पार्टी हुई थी.” उसने याद दिलाया. “आंटी ने बहुत कुछ तो स्वयं ही बनाया था. जादू था तुम्हारी मां के हाथों में. मैंने तो ख़ैर कई बार खाए हैं, उनके बनाए लज़ीज़ पकवान. मुझे आज तक याद है उनका स्वाद. उस दिन पीच रंग के सूट में कैसा खिल रहा था तुम्हारा रंग. फोटो तो कोई नहीं है मेरे पास, पर स्मृति में अंकित है आज भी वह चित्र.” मैंने भी तो उसका लाया उपहार- महादेवी वर्मा का काव्यसंग्रह आज तक संभालकर रखा है- किसी अमूल्य धरोहर की तरह. यह भी पढ़ेहैप्पी फैमिली के लिए न भूलें रिश्तों की एलओसी (Boundaries That Every Happy Family Respects) “समय ने बहुत कुछ छीन लिया है मुझसे.” एक बार उसने लिखा. “विवाह तो हुआ था, पर ज़्यादा दिन निभ नहीं पाया.” डीवी ने बताया कि इस बीच उसके पिता भी चल बसे. एकदम अकेला रह गया वह, सिवाय दूर-पास के कुछ रिश्तेदारों के. usha vadhava          उषा वधवा

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