“वैसे भी अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है? कभी फिर से घर बसाने का ख़्याल नहीं आता?” “कोई उचित पात्र मिला तो वह भी कर लूंगी. नहीं तो अपना कमा-खा रही हूं, कहां दिक़्क़त है? परिवर्तन की लहर धीरे-धीरे ही उठती है. यह कल्पना करना कि एक दिन कोई आंधी-तूफ़ान आएगा और पलक झपकते सब बदल जाएगा, बेव़कूफ़ी है.”
बाहर धूप में मां और किरण आंटी को गप्पे मारते देख मैंने अनुजा को उनके पास ही छोड़ दिया और ख़ुद आवश्यक क़िताबें और नोट्स लेने अंदर आ गई. रसोई से आती भीनी-भीनी मीठी ख़ुशबू से मेरे क़दम स्वतः ही रसोई की ओर उठ गए. मेरी पसंद का गाजर का हलवा बन रहा था. मैं अपना लोभ संवरण नहीं कर पाई. रसोई में क़दम रखने ही वाली थी कि तभी बरामदे में ही आसन जमाए बैठी दादी का कठोर स्वर गूंज उठा, “तुझे इन दिनों रसोई में घुसने की मनाही है न?”
साड़ी के आंचल से हलवा उतारती चाची के हाथ कांप गए. उन्होंने मुझे कमरे में ही हलवा पहुंचाने का इशारा किया. उखड़े मूड से मैं कमरे में आकर क़िताबें निकालने लगी. अपने मिलनसार स्वभाव के अनुरूप मेरे बाहर आने तक अनुजा मां और आंटी से दोस्ताना गांठ चुकी थी. तीनों को मज़े से गपशप करते देख मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट तैर उठी. उसे क़िताबें और नोट्स थमाकर रवाना करके मैं अंदर आ गई. पीछे-पीछे मां और आंटी भी अंदर आ चुकी थीं.
“नई आई है तेरे कॉलेज में?” मां ने बातचीत का सूत्र पकड़ते हुए कहा.
“हां! मेरे ही विषय में है. अब मेरे काम का बोझ थोड़ा हल्का हो जाएगा.”
“व्यवहार की अच्छी है. सुंदर, सुशील, मिलनसार और ऊपर से अच्छी पढ़ी-लिखी, नौकरीवाली. उम्र भी ज़्यादा नहीं लगती.” आंटी ने कहा तो मैं उनकी वैवाहिक विज्ञापन जैसी भाषा सुनकर चौंक उठी. मां ने बात स्पष्ट की.
“तेरी सहेली आंटी की जाति की ही है. अपने वकील भतीजे के लिए वह उन्हें सर्वथा उपयुक्त लग रही है.” आंटी शायद मां के बात छेड़ने का ही इंतज़ार कर रही थीं, क्योंकि इसके बाद उन्होंेने अपने भतीजे के गुणों और खानदान की तारीफ़ में जो लंबे-चौड़े कसीदे काढ़ने शुरू किए, तो मेरे रोकने पर ही रुकीं.
“मैं आपको कल ही अनुजा से बात करके बताती हूं.” कहकर मैंने बमुश्किल एकतरफ़ा वार्ता को विराम लगाया.
अगले दिन ही कॉलेज में एकांत में मैंने उसके सम्मुख किरण आंटी का प्रस्ताव रख दिया था. वह ठठाकर हंस पड़ी थी. मुझे उसकी हंसी चुभ गई.
“तुम्हें नापसंद है, तो इंकार कर दो. इसमें हंसीवाली क्या बात है?”
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“अपनी आंटी को बता देना कि मैं विधवा हूं. फिर देखते हैं कि उनकी क्या प्रतिक्रिया होती है?”
मैं अब सचमुच नाराज़ हो गई थी.
“अनुजा, मुझे ऐसे बेहूदे मज़ाक पसंद नहीं हैं. तुम्हें रिश्ता नहीं पसंद तो ऐसे ही इंकार कर दो.”
अनुजा भी अब गंभीर हो गई थी, “मैं मज़ाक नहीं कर रही, सच्चाई बता रही हूं.”
मैं हैरानी से आंखें फाड़े उसे देखती रह गई थी. आत्मविश्वास से लबरेज़ उस संयमित व्यक्तित्व की बात पर यदि अविश्वास करने की कोई वजह नहीं थी, तो विश्वास करने को भी दिल गवाही नहीं दे रहा था.
“मेरी क्लास का वक़्त हो गया है. इस विषय पर फिर कभी बात करेंगे.” घड़ी देखते हुए वह उठ गई थी. मैं देर तक उसे जाते देखती रही. चुस्त सलवार-कमीज़ पर ढीला-सा जूड़ा, आंखों पर महंगे फ्रेम का चश्मा, मीडियम हीलवाले सैंडल और एक हाथ में अदा से पकड़े नोट्स... उसके गरिमामय व्यक्तित्व में आधुनिकता और शालीनता का अद्भुत सामंजस्य था, जिसे देखकर विवाहित-अविवाहित का भेद करना ही मुश्किल था, उसके लिए विधवा होने की बात कैसे सोची जा सकती थी? जब से कुछ समझदार हुई हूं विधवा के नाम से मेरे सम्मुख चाची का चेहरा ही उभरता है.
मुड़ी-तुड़ी रंग उड़ी साड़ियों में घर के कामों में जुटी चाची. कभी कपड़े धोती, कभी खाना बनाती, कभी गेहूं साफ़ करती. इस पर भी घरवालों का नज़रिया ऐसा मानो दो वक़्त का खाना देकर उन पर एहसान कर रहे हों. मां ही कभी-कभार चुपके से उन्हें मिठाई, पकवान आदि पकड़ा देतीं. अभी दिवाली पर भी मां के आग्रह पर ही पापा सब घरवालों के नए कपड़ों के साथ चाची के लिए भी एक नई साड़ी ले आए थे, जिसे चाची ने बेहद सकुचाते हुए कृतार्थ भाव से ग्रहण कर लिया था. चाची कभी भी अधिकार भाव सेे कुछ क्यूं नहीं लेती या मांगती?... अपने मन में उठे सवाल पर मैं ख़ुद ही चौंक उठी थी, क्योंकि आज से पहले मेरे मन में इस तरह के कभी कोई सवाल नहीं आए थे.
लंच टाइम में अनुजा हमेशा की तरह हंसते-मुस्कुराते मिली, लेकिन मुझे असहज पाकर बोल उठी, “लगता है तू अभी तक सुबहवाले झटके से उभरी नहीं है?”
“और क्या! तुमने कभी बताया ही नहीं? किसी को मालूम ही नहीं!”
“तो तुम क्या अपेक्षा रखती हो कि मैं सिर पर विधवा की तख़्ती लगाकर घूमूं?” मैं उसके तीखे वार से एकदम सकपका गई.
“आई एम सॉरी! मेरा वो मतलब नहीं था. दरअसल, हमेशा से ही घर में ऐसा वातावरण देखा, तो मेरी सोच भी वैसी ही हो गई थी.
मुझे ख़ुद आश्चर्य हो रहा है कि इससे पहले मैंने कभी अपने पूर्वाग्रहों के खोल से बाहर आने का प्रयास क्यों नहीं किया? सुबह से अब तक मैं इस बारे में कितना कुछ सोच चुकी हूं, जो आज से पहले कभी दिमाग़ में आया ही नहीं.” मैंने उसे अपने घर के वातावरण के बारे में सब कुछ खोलकर बता दिया था. सुनकर वह गंभीर हो गई थी.
“मुझे तुम्हारी दादी पर तरस और चाची पर ग़ुस्सा आ रहा है.”
“तुम ग़लती से उल्टा बोल गई हो.” मैंने उसे तुरंत टोका था.
“नहीं, मैं सही बोल रही हूं. अपनी हालत के लिए दूसरे लोगों से ज़्यादा इंसान ख़ुद ज़िम्मेदार होता है. तुम्हारी चाची ने ख़ुद को पूरी तरह से क़िस्मत और दूसरों के रहमोकरम पर छोड़ रखा है. क्या वे नहीं जानतीं कि क़िस्मत के भरोसे काग़ज़ उड़ता है, पतंग तो अपनी क़ाबिलीयत से ही उड़ती है? क़िस्मत साथ दे न दे, क़ाबिलीयत ज़रूर साथ देती है. मयंक की दुर्घटना में मौत के बाद कुछ समय तक मैं भी काग़ज़ की तरह इधर-उधर उड़ती रही थी. जिधर हवा का झोंका बहा ले जाता, बह जाती. कभी मायकेवालों के भरोसे, तो कभी ससुरालवालों के भरोसे.
लेकिन जल्दी ही इस बेग़ैरत ज़िंदगी से मैं ऊब गई. आगे बढ़ने के लिए अपनों को सीढ़ी बनाकर सहारा लेना तो उचित है, पर उन्हें हमेशा के लिए बैसाखी बनाकर चिपके रहना सर्वथा ठीक नहीं. मैंने नौकरी के लिए हाथ-पांव मारने आरंभ किए. घर की चारदीवारी से निकली, ताज़ी हवा में सांस ली, चार लोगों से मिली तो ख़ुद को बना-संवारकर रखने की आवश्यकता महसूस हुई. फिर जब नौकरी पर जाने लगी, हाथ में चार पैसे आने लगे, तो अपनी तरह से जीने की इच्छा जाग उठी.”
“वैसे भी अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है? कभी फिर से घर बसाने का ख़्याल नहीं आता?”
“कोई उचित पात्र मिला तो वह भी कर लूंगी. नहीं तो अपना कमा-खा रही हूं, कहां दिक़्क़त है? परिवर्तन की लहर धीरे-धीरे ही उठती है. यह कल्पना करना कि एक दिन कोई आंधी-तूफ़ान आएगा और पलक झपकते सब बदल जाएगा, बेव़कूफ़ी है.”
“हूं” मेरी गर्दन सहमति में हिलने लगी थी. “पर दादी पर तरस क्यों आता है? वे तो इतनी निरंकुश हैं!”
“दरअसल, जितनी वे निरंकुश हैं, अंदर से ख़ुद को उतना ही असुरक्षित महसूस करती हैं. दिन-प्रतिदिन बढ़ती शारीरिक अक्षमता इंसान की मानसिक असुरक्षा का दायरा बढ़ा देती है. उन्हें हर पल यह भय सताता रहता है कि घरवालों की नज़र में उनकी अहमियत कम से कमतर होती जा रही है. किसी भी तरह ख़ुद से बांधे रखने की चेष्टा में वे हर समय सबका ध्यान आकर्षित करने का प्रयास करती रहती हैं. कभी अपनी बीमारी का हवाला देकर, कभी अपना असंतोष ज़ाहिर कर वे तिल का ताड़ बनाने का प्रयास करती हैं. उनका दिमाग़ हर वक़्त यही रणनीति बनाने में व्यस्त रहता है कि किसका ध्यान कैसे आकर्षित करना है, किसको कैसे अपने चंगुल में रखना है. अब ऐसे इंसान पर तरस नहीं आएगा, तो और क्या होगा? मन में वे भी जानती हैं कि वे तुम लोगों का कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं. वे यह भी जानती हैं कि उनके प्रति तुम्हारा सम्मान मात्र दिखावा है, प्यार नहीं. पर वे बेचारी इसी से ख़ुद को भरमाने का प्रयास कर रही हैं.”
“सार यह है कि हैं तो दोनों ही असंतुष्ट और अवांछनीय.” मैंने कटु सच्चाई उगल दी थी.
“और ऐसा बनने के लिए औरों से ज़्यादा वे ख़ुद ज़िम्मेदार हैं. एक तो कुदरत ने पति नामक संबल छीनकर उन पर वैसे ही घोर अत्याचार किया है. ऐसे विपरीत परिस्थितियों में उनके अंदर से इस तरह की अतिशय प्रतिक्रियाएं निकलकर आना स्वाभाविक है. मेरा अनुभव कहता है कि मुश्किल भरे दौर में भी इंसान जितना सहज और सरल बना रहे, मुश्किलों का सामना करना उतना ही आसान हो जाता है. ज़िंदगी चाहे थोड़ी बची हो, चाहे ज़्यादा उसे जीभर कर जी लेने में ही समझदारी है.”
मेरी सोच की दिशा अचानक ही बदलने लगी थी. चाची इतनी निरीह क्यों बनी रहती हैं? स़िर्फ इसलिए कि वे विधवा हैं? पर विधवा होना कोई अपराध तो नहीं? विधवा तो दादी भी हैं. पर उनका कैसे घर में एकछत्र साम्राज्य चलता है? घर में सब उनसे कैसे डरे-डरे रहते हैं! बरामदे में तख़्त पर बैठे-बैठे वे सब घरवालों को निर्देश देती रहती हैं. तो क्या उनका सम्मान उनकी उम्र की वजह से है? जब चाची उम्रदराज़ हो जाएंगी, तो क्या वे भी ऐसे ही तख़्त पर बैठकर हुक्म चलाएंगी? बात मेरे गले के नीचे नहीं उतर रही थी. मुझे ख़ुद पर भी आश्चर्य हो रहा था, मैं अब तक इतने तार्किक ढंग से क्यूं नहीं सोच पाई? बरसों से घर में जो देखते-सुनते बड़ी हुई, उसे ही सच और सही मानने लगी. कभी अपने नज़रिए से किसी बात को जानने-समझने का प्रयास ही नहीं किया. उम्र में अनुजा मुझसे 4-5 वर्ष बड़ी, तो चाची से लगभग इतनी ही छोटी होगी. लेकिन दोनों के वैधव्य में मुझे कोई साम्य नज़र नहीं आ रहा था.
अगले दिन मैंने मां को अनुजा की सच्चाई बताई, तो मेरी तरह वे भी बौखला उठीं, “क्या ज़माना आ गया है? विधवाएं भी ऐसे बन-ठनकर रहने लगी हैं.” मेरी नज़रें कमरे में झाड़ू लगाती चाची पर अटक गईं. एक ज़माने में कितने आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं वे? और आज कितनी दीन-हीन लग रही थीं. मैं तुरंत मां को टोक बैठी थी, “इसमें बुराई क्या है मां? सुदर्शन व्यक्तित्व न केवल दूसरों को सुहाता है, वरन् ख़ुद को भी संतुष्टि देता है. औरों के लिए न सही, इंसान को ख़ुद के लिए सलीके से बन-संवरकर रहना चाहिए.”
मैं कह रही थी, तब देखा चाची के झाड़ू लगाते हाथ थम-से गए हैं. तीर निशाने पर लगता देख मैंने आगे बात बढ़ाई, “और फिर आत्मनिर्भरता, स्वाभिमान ये तो ऐसे गहने हैं, जो इंसान के व्यक्तित्व में वैसे ही चार चांद लगा देते हैं.”
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चाची को सोच में डूबा देख मैं समझ गई कि काम हो गया है. मैं नहाकर निकली, तो दादी ने आवाज़ लगाई.
“अपनी मां से क्या बहस कर रही थी? समाज के जो तौर-तरी़के होंगे, उसी हिसाब से तो हर इंसान को रहना होगा न! पूर्वजों ने कुछ सोच-समझकर ही सब नियम-कायदे बनाए हैं. हम भी तो सब मान रहे हैं. तू क्या अनूठी है?”
“नियम-कायदे अप्रासंगिक हो जाएं, तो उन्हें बदल देने में ही समझदारी है.” मैंने हिम्मत करके कड़ा प्रतिवाद किया.
“तू अपने साथ पूरे परिवार को पाप का भागी बनाएगी. ले यह भगवान के पाठ की क़िताब पकड़, आज से रोज़ नहा-धोकर भगवान का पाठ किया कर. तभी तुझे सद्बुद्धि आएगी.”
“मुझे कॉलेज के लिए देर हो रही है. वैसे भी इन पुस्तकों में मेरी रुचि नहीं है. मैं तो कभी आपको मेरी पुस्तकें पढ़ने के लिए नहीं कहती? रही बात नियम-कायदे मानने की, तो यह अपनी-अपनी समझ की बात है. यह ज़रूरी नहीं कि एक स्थिति विशेष में सभी इंसान समान प्रतिक्रिया दें. गरम पानी में उबालने पर अंडा सख्त हो जाता है, जबकि आलू नरम. आपदा आने पर इंसान टूटकर बिखर भी सकता है, तो निखरकर उभर भी सकता है. परिस्थिति से ज़्यादा इंसान की अपनी क्षमता उसे शक्तिशाली या कमज़ोर बनाती है. मेरी नज़र में शक्तिशाली वह है जिसकी बात लोग दिल से मानें न कि डर से.” दादी मेरा इशारा समझ भौंचक्की-सी मुझे देख रही थीं.
घर के लोग एक-एक कर आसपास जुटने लगे थे. उनकी चिंतनशील मुद्राएं बता रही थीं कि घर में परिवर्तन की लहर उठ चुकी है.
संगीतामाथुर