स्मिता ने वीडियो देखने आरंभ किए, तो देखती ही रह गई. मॉल में हिचकिचाती मां को हाथ पकड़कर एस्केलेटर चढ़ाते नीलेश और पल्लवी, मां का विस्फारित नेत्रों से चारों ओर ताकना उसे अंदर तक गुदगुदा गया... यह मेरा धूप में सूखता स्मार्टफोन! चिकनाई हटाने के लिए मां ने डिटर्जेंट से धोकर सुखा दिया था... और यह उदास मां! चार दिनों से अनजाने में हुए इस नुक़सान का मातम मना रही हैं. मैं और पल्लवी समझा-समझाकर थक गए.
डॉ. स्मिता वैसे भी कोई कॉन्फ्रेंस, सेमिनार आदि नहीं छोड़ती थी. फिर इस बार तो कॉन्फ्रेंस उनके छोटे भाई के शहर में थी. मां से मिलने का यह सुनहरा अवसर वह भला कैसे छोड़ सकती थी? शादी के बाद से ही नीलेश और पल्लवी उसे बुला रहे हैं. पर आजकल हर कोई अपने काम में इतना मसरूफ़ है कि बिना काम कहीं जाने का व़क्त निकाल ही नहीं पाता. तभी तो पति निशांत ने भी साथ चलने से इंकार कर दिया था.
“नहीं बाबा, तुम्हारी गायनाकोलॉजिस्ट मीट में मेरा क्या काम? मैं अपना क्लीनिक ही देखना पसंद करूंगा.”
स्मिता का उत्साह इससे ज़रा भी कम नहीं हो पाया था. ‘मायका’ शब्द मात्र से स्त्रियों में भर जानेवाली ऊर्जा से वह भी अछूती नहीं थी. भाई-भाभी के लिए उपहार ख़रीदने के बाद उसने मां के लिए भी एक सुंदर-सी गरम शॉल ख़रीद ली थी. वज़न में हल्की, आरामदायक हल्के रंग की यह शॉल मां को अवश्य पसंद आएगी. कल्पना में शॉल ओढ़े सैर के लिए निकलती मां का चेहरा आंखों के सामने आया, स्मिता के चेहरे पर स्वतः ही स्मित मुस्कान बिखर गई.
मां तो उसे देखकर ही उल्लासित हुई थीं, छोटे भाई नीलेश और नई भाभी पल्लवी ने भी उसे हाथों हाथ लिया, तो स्मिता का मायके आने का उत्साह द्विगुणित हो गया. नाश्ते में मां ने उसकी मनपसंद बेडमी पूरी बनाकर परोसी, तो स्मिता के मुंह में पानी भर आया. इससे पूर्व कि वह ढेर सारी पूरियां अपनी प्लेट में रख पाती, उसके मोबाइल पर कोई आवश्यक कॉल आ गई. वह मोबाइल लेकर थोड़ा दूर हटकर बतियाने लगी, पर उसकी नज़रें डायनिंग टेबल पर ही जमी थीं. मां उठकर अपने हाथों से नीलेश की प्लेट में पूरियां परोसने लगीं, तो नीलेश ने झटके से प्लेट हटा ली.
“क्या कर रही हो मां? जानती तो हो मैं डायट पर हूं. पल्लवी मेरे लिए दो टोस्ट पर बटर लगा दो.”
“ला, मैं लगा देती हूं. उसे नाश्ता करने दे. उसे भी तो ऑफिस निकलना है.” मां ने अपना नाश्ता छोड़कर उसके लिए टोस्ट पर बटर लगा दिया था. लेकिन ढेर सारा बटर देख नीलेश फिर भड़क उठा था.
“इतना सारा बटर! मां तुम रहने दो. पल्लवी, मैंने तुम्हें लगाने को कहा था.”
“हूं... हां!” सहमी-सी पल्लवी ने अपना दूध का ग्लास रख तुरंत दूसरे टोस्ट पर हल्का-सा बटर लगा दिया था और नीलेश की प्लेट में रख दिया था. तब तक स्मिता भी फोन पर वार्तालाप समाप्त कर डायनिंग टेबल पर आ चुकी थी. सब चुपचाप नाश्ता करते रहे. स्मिता ने चाहा पूरियों की तारीफ़ कर वह वातावरण को हल्का बना दे, पर मां का उतरा चेहरा देखकर उसने चुप रह जाना ही श्रेयस्कर समझा. शाम को जल्दी लौटने का आश्वासन देकर तीनों निकल गए थे.
रात का खाना कुक ने ही बनाया था. सबने साथ बैठकर खाया. स्मिता ने खाने की तारीफ़ की, साथ ही मां के हाथ की उड़द दाल, चावलवाली तहरी खाने की इच्छा भी ज़ाहिर की.
“पल्लवी, पता है मां साबूत उड़द और चावल की इतनी खिली-खिली तहरी बनाती हैं कि देखकर ही दिल ख़ुश हो जाता है. उसमें ढेर सारे घी वाला साबूत लाल मिर्च और जीरे का तड़का! उफ़्फ़! मेरे तो अभी से मुंह में पानी आने लगा. मैंने कई बार बनाने का प्रयास किया, पर वो मां वाला स्वाद नहीं ला पाई.” स्मिता पल्लवी को विस्तार से रेसिपी समझाने लगी. फिर अंत में यह और जोड़ दिया, “नीलेश को भी बहुत पसंद हेै यह डिश. क्यों नीलेश?”
“हां बिल्कुल! बनाओ न मां!” मोबाइल पर व्यस्त नीलेश ने संक्षेप में सहमति दे दी थी.
अगले दिन स्मिता को देर से जाना था, इसलिए वह अभी तक सो ही रही थी. कानों में नीलेश के ज़ोर से बोलने का स्वर पड़ा, तो उसकी आंख खुल गई.
यहभीपढ़े: अब बेटे भी हो गए पराए (When People Abandon Their Old Parents)
“यह मेरे पसंदीदा शर्ट का क्या कबाड़ा कर दिया है पल्लवी तुमने? स़फेद को आसमानी कर दिया है. आजकल कौन नील लगाता है?”
पल्लवी सकपकाई-सी खड़ी थी. तभी मां आ गईं, “अरे, तेरे सारे स़फेद कपड़ों पर कल मैंने नील लगाई थी. याद नहीं, तू कितनी गहरी नीलवाले कपड़े पहनता था? पूरे नीले ही करवा लेता था. यह तो मैंने बहुत हल्की लगाई है, ताकि ऑफिस में ख़राब न दिखे.”
नीलेश ने झुंझलाहट में शर्ट पलंग पर फेंक दी थी और पल्लवी से आलमारी में से दूसरी शर्ट देने को कहा. मां निढाल-सी लौट आई थीं. उनकी बेचारगी देख स्मिता की आंखें गीली हो गई थीं. मां का हाथ अपने हाथों में ले वह कहे बिना नहीं रह सकी थी, “क्यों करती हो मां यह सब? जब किसी को आपकी, आपके काम की, आपकी भावनाओं की कद्र ही नहीं है...”
“मैं नहीं करती बेटी! मेरी ममता मुझसे यह सब करवा लेती है. मैं तो उन लोगों की मदद करना चाहती हूं. मेरा आत्मसम्मान मुझे किसी पर बोझ बनकर रहने की इजाज़त नहीं देता. पर क्या करूं? सब उलट-पुलट हो जाता है.”
“नीलेश-पल्लवी भी तुम्हें आराम देना चाहते हैं मां! घर में इतने नौकर-चाकर हैं तो सही. फिर अब तो पल्लवी भी है नीलेश की देखरेख को. आपको क्या ज़रूरत है सबकी फ़िक्र करने की?” स्मिता ने मां को थोथी सांत्वना दी थी. थोथी इसलिए, क्योंकि अपने आश्वासनों के प्रति वह स्वयं भी आश्वस्त नहीं थी. उसे अपना बचपन और मां-पापा का लाड़-दुलार याद आ रहा था. व़क्त के साथ-साथ रिश्तों के समीकरण इतने उलट-पुलट क्यों जाते हैं? माता-पिता के लिए अपने बच्चों की लापरवाहियों, ग़ैरज़िम्मेदाराना हरकतों को माफ़ या नज़रअंदाज़ करना कितना आसान होता है. नाराज़ या क्रोधित होने की बजाय वे उसमें भी बच्चों की मासूमियत खोज लेते हैं. लेकिन बड़े होने पर वे ही बच्चे बुज़ुर्ग माता-पिता की अज्ञानतावश की गई ग़लतियों पर खीझ जाते हैं, ग़ुस्सा करने लगते हैं. हमारी सहनशीलता इतनी कम क्यों हो गई है? यदि बुढ़ापा बचपन का पुनरागमन है, तो बुढ़ापे की नादानियों में हमें मासूमियत नज़र क्यों नहीं आती? जो कुछ उनके लिए इतना सहज, सरल था हमारे लिए इतना मुश्किल क्यों है?
बे्रकफास्ट टेबल पर नीलेश ने बताया कि रात के खाने पर उसने अपने कुछ विदेशी क्लाइंट्स को आमंत्रित किया है. उनके लिए सी फूड, मैक्सिकन आदि बाहर से आ जाएगा.
“पल्लवी, तुम थोड़ा ड्रिंक्स, क्रॉकरी, सजावट आदि देख लेना. मैं शायद उन लोगों के साथ ही घर पहुंचूं. दीदी, आप भी हमें जॉइन करेंगी न?”
“अं... टाइम पर आ गई, तो मिल लूंगी सबसे. थोड़ा-बहुत साथ खा भी लूंगी, पर वैसे मुझे यह सब ज़्यादा पसंद नहीं है. मां, आपके लिए जो बनेगा, मैं तो वही खाऊंगी.”
नीलेश पल्लवी को और भी निर्देश देता रहा. नाश्ता समाप्त कर उठने तक पार्टी की समस्त रूपरेखा तैयार हो चुकी थी. स्मिता ने कहा, वह जल्दी लौटने का प्रयास करेगी, ताकि पल्लवी की मदद कर सके. किंतु लौटते-लौटते उसे देर हो गई थी. घर पहुंचकर पता चला कि पल्लवी ख़ुद भी थोड़ी देर पहले ही लौटी है. ऑफिस में कुछ काम आ गया था.
“पर तैयारी तो सब हो गई दिखती है?” चकित-सी स्मिता ने सब ओर नज़रें दौड़ाते हुए हैरानी ज़ाहिर की, तो कृतज्ञता से अभिभूत पल्लवी ने रहस्योद्घाटन किया.
“यह सब मम्मीजी ने करवाया है. मैं तो देर हो जाने के कारण ख़ुद घबराई-सी घर पहुंची थी, पर यहां आकर देखा, तो सब तैयार मिला.”
“सब मेरे सामने ही तो तय हुआ था. तुम्हें आते नहीं देखा, तो मैंने सोचा मैं ही करवा लूं, वरना नीलेश आते ही तुम पर सवार हो जाएगा. बचपन से ही थोड़ा अधीर है वह! तुम उसकी बातों का बुरा मत माना करो... हां, कुछ कमी रह गई हो, तो तुम ठीक कर लो.”
“कोई कमी नहीं है मम्मीजी. सब एकदम परफेक्ट है! इतना अच्छा तो मैं भी नहीं कर सकती थी.” पल्लवी ने भूरि-भूरि प्रशंसा की, तो मां एकदम बच्चों की तरह उत्साहित हो उठीं.
“तुम लोग अब तैयार हो जाओ. नीलेश मेहमानों को लेकर आता ही होगा.”
जैसी कि उम्मीद थी, पार्टी बहुत अच्छी रही. सबके कहने पर मां एक बार बैठक में आकर मेहमानों से मिल लीं. बाकी समय वे अंदर ही व्यवस्था देखती रहीं. मेहमानों को विदा कर जब तीनों घर में प्रविष्ट हुए, तो देसी घी के तड़के की सुगंध से घर महक रहा था.
“वॉव, लगता है मेरी पसंदीदा तहरी बनी है.” स्मिता सुगंध का आनंद लेती हुई डायनिंग टेबल तक पहुंच गई. उसका अनुमान सही था. गरमागरम तहरी सजाए मां उसी का इंतज़ार कर रही थीं.
“तुमने तो खा लिया होता मां. तुम क्यों भूखी रहीं? मैंने तो मेहमानों के संग थोड़ा खा लिया था.” कहते हुए स्मिता ने प्लेट में तहरी परोसकर पहला चम्मच मां के मुंह में और दूसरा चम्मच अपने मुंह में रख लिया.
यहभीपढ़े: घर को मकां बनाते चले गए… रिश्ते छूटते चले गए… (Home And Family- How To Move From Conflict To Harmony)
“वाह, कब से इस स्वाद के लिए तरस रही थी. नीलेश, आ चख. तुझे भी तो यह बहुत पसंद है.” स्मिता ने आग्रह किया, तो नीलश ने एक चम्मच भरकर उसी प्लेट से खाना आरंभ कर दिया. एक, दो, तीन... नीलेश को गपागप खाते देख स्मिता चिल्ला पड़ी.
“तू अलग ही ले ले भाई.”
नीलेश सचमुच अलग प्लेट भरकर खाने बैठ गया.
“आपने अभी तो भरपेट खाना खाया था.” पल्लवी के मुंह से बेसाख़्ता निकल गया.
“लो, तुम भी टेस्ट करो. इसके लिए तो मैं बचपन में भी पेट में अलग जगह रखता था.” नीलेश को स्पीड से खाता देख पल्लवी के मन का डर ज़ुबां पर आ गया.
“आप लोगों को कम न पड़ जाए. और कुछ बना दूं?”
“अरे, तू अपने लिए परोस ना. मैंने बहुत सारी बनाई है. कम होगी, तो मैं बना दूंगी.” मां ने पल्लवी को जबरन साथ खाने बैठा लिया.
“मां, याद है बचपन में एक बार नीलेश सारी तहरी चट कर गया था. तुम दोबारा बनाने उठीं, तो वह तुम्हारी मदद के लिए रसोई में आ गया था और फिर जल्दबाज़ी में दाल-चावल के डिब्बे ही उलट डाले थे.”
“यह नटखट तो हमेशा ऐसे ही काम बढ़ाता था. मेरा किशन कन्हैया!” मां ने लाड़ से बेटे को देखा. “जाले उतारने में मदद करने आता, तो एकाध बल्ब या ट्यूबलाइट फूटना तय था. एक बार तो टीवी स्क्रीन ही तोड़ डाली थी.” मां ख़ूब रस ले-लेकर बता रही थीं.
“क्या? फिर तो ख़ूब मार पड़ी होगी इन्हें?” पल्लवी बोल पड़ी.
“नहीं. मारता तो कोई भी नहीं था. पापा ने डांटा अवश्य था और मां ने तो हमेशा की तरह प्यार से समझा भर दिया था.” कहने के बाद अपने ही शब्दों पर ग़ौर करता नीलेश कुछ सोचने लगा था.
“एक बार तो इसने मां की महंगी सिल्क साड़ी पानी में डुबोकर सत्यानाश कर डाली थी.” स्मिता ने याद दिलाया.
“दरअसल, पार्टी में मैं इसे गोद में बिठाकर खाना खिला रही थी. इससे मेरी साड़ी पर कुछ गिर गया. घर लौटकर मैंने साड़ी उतारकर ड्राइक्लीन के लिए रख दी. इसने चुपके से उसे पानी में भिगो दिया. पूरी साड़ी ही गई. बेचारा मासूम नेकी करना चाहता और नुक़सान हो जाता.”
“काहे का मासूम! बदमाश था.” स्मिता बोली.
“तू बड़ी दूध की धुली थी! रोज़ रसोई में रोटी बनाने के लिए खिलौने के चौका-बेलन लेकर आ जाती और मेरा दिमाग़ खाती.”
मां ने याद दिलाया.
“और क्या? एक बोरी आटा, तो बिगाड़ा ही होगा इसने!” नीलेश कहां चूकनेवाला था.
“किसी ने कुछ नहीं बिगाड़ा. उन छोटे-छोटे शरारती पलों ने तो रिश्तों को जोड़ने का काम किया. अपनत्व जगाकर प्यार के तंतुओं को जोड़े रखा. समय की आड़ में जब रिश्तों के महल ढहने लगते हैं, तब अपनत्वभरे उन पलों की स्मृति ही हमारा संबल बन जाती है.” भावनाओं में बहती मां उन पलों को याद कर एकाएक बहुत प्रसन्न और संतुष्ट नज़र आने लगी थीं.
दो दिनों के अल्प प्रवास में स्मिता के लिए ये सबसे यादगार सुकूनमय पल थे और सबसे भव्य दावत भी.
अपने शहर लौटकर, तो वह फिर आपाधापीभरी ज़िंदगी में व्यस्त हो गई थी. नीलेश का नाराज़गी भरा फोन आया, तो वह चौंकी, “आपको कुछ वीडियोज़ भेजे थे. तब से आपके कमेंट का इंतज़ार कर रहा हूं.”
“ओह, देखती हूं.” स्मिता ने वीडियो देखने आरंभ किए, तो देखती ही रह गई. मॉल में हिचकिचाती मां को हाथ पकड़कर एस्केलेटर चढ़ाते नीलेश और पल्लवी, मां का विस्फारित नेत्रों से चारों ओर ताकना उसे अंदर तक गुदगुदा गया... यह मेरा धूप में सूखता स्मार्टफोन! चिकनाई हटाने के लिए मां ने डिटर्जेंट से धोकर सुखा दिया था... और यह उदास मां! चार दिनों से अनजाने में हुए इस नुक़सान का मातम मना रही हैं. मैं और पल्लवी समझा-समझाकर थक गए.
‘ओह! बेचारी भोली मां.’ स्मिता बुदबुदा उठी. एक अन्य वीडियो में मां बेहद डरते हुए फुट मसाजर पर पांव रखे हुए थीं. नीलेश और पल्लवी ने एक-एक पांव जबरन पकड़ रखा था. थोड़ी देर में वे रिलैक्स होती नज़र आईं, तो स्मिता के होंठों पर मुस्कुराहट और आंखों में नमी तैर गई. उसके लिए समय थम-सा गया था. इससे पूर्व कि उसका अधीर भाई उसे दोबारा कमेंट के लिए कॉल करे, स्मिता की उंगलियां मोबाइल पर थिरकने लगी थीं.
‘क्यूटनेस ओवरलोडेड...’
इतने क्यूट कमेंट ने नीलेश की आंखें नम कर दी थीं.
संगीतामाथुर