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कहानी- नसीहत (Story- Nasihat)

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     उमा शंकर दुबे
Hindi Short Story
“नल खुला छोड़ दिया. पानी व्यर्थ में बह रहा है. इस देश में तमाम लोग पानी की एक-एक बूंद के लिए तरस जाते हैं... बाथरूम में साबुन सोप बॉक्स में नहीं रखा? फ़र्श पर पड़ा गल रहा है, किसी का पैर पड़ने पर वह फिसल सकता है, चोट लग सकती है... कपड़े सब इधर-उधर बिखरे पड़े हैं. तह करके हैंगर में लगाकर आलमारी में रखने चाहिए... गंदे मोजे व कपड़े बाथरूम में पड़े हैं, वॉशिंग मशीन में क्यों नहीं डाले?... पापा की शाम की चाय में शुगर क्यूब्स दे दिए. शुगर फ्री टेबलेट नहीं दी. जानती हो वे डायबेटिक हैं...” यह शृंखला बहुत लंबी थी. हर छोटी से छोटी बात पर उनकी चौकस निगाह लगी रहती थी.
  शादी हुए अभी दो महीने ही बीते थे कि सासू मां की नसीहतें शुरू हो गई थीं. वैसे हनीमून पर जाते समय ही सासू मां ने कहा था, “लौटने के बाद एक-दो महीने अपने घर-परिवार को समझने में लगाओ, फिर अपनी घर-गृहस्थी संभालो और मुझे घर की ज़िम्मेदारी से मुक्त करो.” उस समय वो सब सुनकर बहुत अच्छा लगा था. सासू मां का कितना स्नेह और विश्‍वास है मुझ पर कि पूरी गृहस्थी मुझे सौंपकर निश्‍चिंत हो जाना चाहती हैं. हनीमून से लौटने के बाद दो माह कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला. नवविवाहित दंपति जब एक-दूसरे के प्यार और सान्निध्य में आकंठ डूबे हों, तो समय कैसे बीतता चला जाता है पता ही नहीं चलता. मंजुल के साथ दुनिया-जहान की बातें करते-करते रात के दो-तीन बज जाते. हर तरह से तृप्त होकर, थककर मैं गहरी नींद सो जाती, तो सवेरे नौ बजे से पहले आंख ही नहीं खुलती. शुरुआती एक-दो दिन मंजुल बेड टी मेरे सिरहाने रख देते, जो नौ बजे तक ठंडी हो जाती. अब सुबह की मेरी चाय थर्मस में रख दी जाती है, जो उठने पर मैं गरम-गरम पीती हूं, तब तक मंजुल नाश्ता करके ऑफिस के लिए तैयार हो चुके होते हैं. दो महीने बीतते-बीतते मायके जाते समय सासू मां ने मुझे धीरे से याद दिलाया कि लौटकर आने पर तुम्हें रूटीन बदलना होगा, क्योंकि अब घर-गृहस्थी तुम्हें संभालनी है. सासू मां बहुत ही कर्मठ, हंसमुख, ख़ुशमिज़ाज और शालीन थीं. मैंने उन्हें कभी ज़ोर से बोलते या डांटते नहीं सुना. फिर भी किसी आदेश की अवहेलना या समय पर कोई काम न करने पर वे असहज होकर कठोर शब्दों में अपनी प्रतिक्रिया अविलंब व्यक्त कर देती थीं. यदि वे लिहाज़ करती भी थीं तो तब, जब कोई बाहरी व्यक्ति बैठा हो. उस समय तो वे सहज भाव से बतियाती रहती थीं, पर उसके जाते ही वे जिसने ग़लती की हो, उससे कहने में ज़रा भी नहीं चूकती थीं. घर में महरी और एक नौकर था. ससुरजी शेयर मार्केट का काम करते थे. छोटी ननद पढ़ रही थी. सभी का चाय-नाश्ता, टिफिन व भोजन की व्यवस्था से लेकर उनकी अन्य अपेक्षाओं और ज़रूरतों को वह सहजता से पूरा करती रहती थीं. मायके से लौटने पर स्नानादि करके पूजाघर में ठीक छह बजे मुझे सितार या हारमोनियम बजाते हुए भजन गाने का आदेश मिला. संगीत व गायन में मैं पारंगत थी. मेरे गाए भजन सासू मां को बहुत प्रिय थे. पूजा के बाद अन्य घरेलू कामों में मैं सासू मां का हाथ बंटाने लगी. मैं चाहती थी कि सासू मां ख़ुश रहें और मेरे कारण किसी को कोई असुविधा न हो, पर घर-गृहस्थी में सभी को संतुष्ट कर पाना इतना आसान न था. जैसे-जैसे दिन बीतने लगे, एक-एक करके सासू मां की ऐसी-ऐसी नसीहतें सामने आने लगीं कि सुनकर मैं तिलमिला उठती, लेकिन कुछ कह नहीं पाती. मंजुल से मैं कहती, तो वे उसे मज़ाक में उड़ा देते. वे परिहास प्रिय थे. मां का सम्मान करते थे. उन्हें नहीं लगता था कि मां ने कुछ ग़लत कहा. मुझे भी आहत नहीं करना चाहते थे. अतः गंभीर से गंभीर बात को भी हवा में उड़ा देते. रात को बेडरूम में हमारी बातचीत की शुरुआत सासू मां के दिनभर में दिए गए उपदेशों की समीक्षा से होती. “जानते हो, उनकी मधुरवाणी और सहज स्वर में भी कभी-कभी उस चींटी का दंश छिपा रहता है, जो रेंगते-रेंगते ब्लाउज़ में घुसकर काटने लगती है और सबके सामने न उसे निकाल सकती हूं, न मार सकती हूं, बस कसमसाकर रह जाती हूं.” “चींटी वाकई बहुत धृष्ट है.” मंजुल कहते. “ऐसे निषिद्ध आकर्षण स्थल पर सहज ही पहुंच जाती है, जहां पहुंचने के लिए मुझे कितनी मनुहार करनी पड़ती है.” “तुम्हें तो हर बात में मज़ाक सूझता है. मेरा तात्पर्य है, वे कभी-कभी ऐसा वाक्य बोल देती हैं कि जिसे सुनकर तन-बदन में आग लग जाती है.” मैं चिढ़कर कहती. “नो प्रॉब्लम, जग में ठंडा पानी तुम्हारे सिरहाने रखा रहता है. फिर यह बंदा अग्निशमन अधिकारी तो तुम्हारी सेवा में सदैव उपस्थित है, आग बुझाने के लिए सतत् तत्पर.” मंजुल मेरी बात को मज़ाक में उड़ा देते. उस दिन सुबह सात बजे किचन में मैं सभी के लिए नाश्ता बना रही थी कि नौकर ने सूचना दी- सासू मां बेडरूम में बुला रही हैं. मैं सासू मां के पास पहुंची, “यह क्या है?” उन्होंने वही चिर-परिचित व मीठी सहज वाणी में कहा. “तुमने बिस्तर कितने बजे छोड़ा?” “जी छह बजे.” मैंने उत्तर दिया. “इस समय सवा सात बज रहे हैं. सवा घंटे से तुम्हारे कमरे की लाइट, टीवी, एसी सब चल रहे हैं. यह तो बिजली की बरबादी है न. इससे बिजली का बिल निरर्थक बढ़ता है और शॉर्ट सर्किट होकर आग लगने का भी ख़तरा रहता है. कमरे से निकलते ही सारे स्विच ऑफ़ कर दिया करो, इसे अपनी आदत बना लो.” सासू मां के मधुर वचनों को मैंने कड़वी दवा की तरह निगल लिया. वह मेरे साथ किचन तक आ गई थीं. हड़बड़ाहट में मैं गैस जलती हुई छोड़ गई थी. उस पर कुछ पकाने का बर्तन नहीं था. सासूजी ने पुनः वही बात याद दिलाई, “कहीं भी जाने के पहले गैस जलती हुई मत छोड़ो. इससे गैस बरबाद होने के साथ-साथ दुर्घटना होने का भी ख़तरा हो सकता है. मुझे मेरे घर पर पापा भी इसी प्रकार बात-बात पर टोका करते थे, पर वहां मेरी मम्मी तुरंत अपनी लाडली बिटिया के बचाव के लिए आ जाती थीं. पापा को पलटकर वह जवाब दे देतीं, “क्या कंजूसी सिखा रहे हो. दो-चार रुपए की बिजली ही जाएगी, तो घर के बजट पर क्या अंतर पड़ता है. गैस सिलेंडर तो दो-दो एक्स्ट्रा रखे रहते हैं. थोड़ी-सी गैस क्या बरबाद हो गई, लगे बिटिया को उपदेश देने. अरे, बाद में तो उसे ससुराल में खटना ही है. अपने घर में तो आराम से रहने दो...” रात को मैंने मंजुल को सारी बातें बताईं, तो वे हो-हो करके हंसने लगे. “हमारे ऑफिस में तो प्रत्येक डायरेक्टर के चेम्बर के बाहर अंदर की लाइन काट देने का स्विच लगा है. हमारा एक्ज़ीक्यूटिव डायरेक्टर भी चेम्बर से जाते समय ख़ुद स्विच ऑफ करता है. चपरासी का इंतज़ार भी नहीं करता. हम सभी ऑफिस से निकलते समय यह सुनिश्‍चित कर लेते हैं कि कहीं लाइट, एसी न चल रहे हों. यह एक अच्छी आदत है. चलो, अभी से इसकी प्रैक्टिस शुरू कर दो. तुम्हारे रहते लाइट्स की आवश्यकता ही क्या है. तुम्हारे सौंदर्य के आलोक से कमरा ऐसे ही आलोकित रहता है.” दिन बीतते रहे और सासू मां की नसीहतें भी बदस्तूर जारी रहीं. “नल खुला छोड़ दिया. पानी व्यर्थ में बह रहा है. इस देश में तमाम लोग पानी की एक-एक बूंद के लिए तरस जाते हैं... बाथरूम में साबुन सोप बॉक्स में नहीं रखा? फ़र्श पर पड़ा गल रहा है, किसी का पैर पड़ने पर वह फिसल सकता है, चोट लग सकती है... कपड़े सब इधर-उधर बिखरे पड़े हैं. तह करके हैंगर में लगाकर आलमारी में रखने चाहिए... गंदे मोजे व कपड़े बाथरूम में पड़े हैं, वॉशिंग मशीन में क्यों नहीं डाले?... पापा की शाम की चाय में शुगर क्यूब्स दे दिए. शुगर फ्री टेबलेट नहीं दी. जानती हो वे डायबेटिक हैं...” यह शृंखला बहुत लंबी थी. हर छोटी से छोटी बात पर उनकी चौकस निगाह लगी रहती थी. बेडरूम में सोते समय मैं अगरबत्तियां जलाकर लगा देती थी. इससे कमरा भीनी-भीनी ख़ुशबू से महक उठता था. दीवार पर क़िताबें रखने का एक छोटा सुंदर-सा अटैचमेंट लगा था. अगरबत्ती स्टैंड था नहीं, तो मैं अगरबत्ती की तीलियां क़िताब के पन्नों के बीच दबाकर रख देती थी. सासू मां ने ऐसा करने से मना किया और एक सुंदर-सा अगरबत्ती स्टैंड ले आईं. अगरबत्ती, धूपबत्ती, दीपक आदि के पीतल के छोटे-छोटे बर्तन, जो मुख्य रूप से पूजाघर में रहते थे, की साफ़-सफ़ाई सासू मां स्वयं करती थीं. कभी-कभी यह ज़िम्मेदारी मुझे भी सौंपी जाती थी. बाकी रसोई के बर्तन तो महरी मांजती थी, पर पूजा के बर्तन स्वयं साफ़ किए जाएं, ऐसा सासू मां का निर्देश था. इस सफ़ाई अभियान में कभी-कभी बेडरूम का अगरबत्ती स्टैंड पूजाघर में रखा जाता और रात को अगरबत्तियां मैं फिर से क़िताब के पन्नों के बीच लगा देती. इसके लिए भी सासू मां एक-दो बार मुझे टोक चुकी थीं, पर मुझसे अक्सर भूल हो जाती. कपड़े की उधार ख़रीददारी पर सासू मां की तीखी टिप्पणी सुननी पड़ी. “मैं मगनभाई-छगनभाई के यहां से अगर उधार कपड़े लाती हूं, तो साफ़-साफ़ बता देती हूं कि तीन मासिक किश्तों में भुगतान करूंगी और ऐसा बिना भूले करती हूं. तुम उनके यहां से कपड़े ले आईं और दो माह बीत गए रुपए नहीं भिजवाए. या तो उसे बता देतीं कि रुपए इतने महीने बाद भिजवाऊंगी. मैं आज गई थी तो तकादा तो उसने नहीं किया, पर बताया ज़रूर. मैंने आज ही उसका उधार चुकता करके खाता क्लीयर कर दिया है. उधार के लेन-देन में बहुत सतर्क और नियमित होना चाहिए. बैंक में ऋण खाते की किश्त नियत तारीख़ पर नहीं जमा हुई. न मंजुल ने ध्यान दिया, न इनके पापा ने, उस पर पीनल इंटरेस्ट पड़ गया.” भाई का घर से फ़ोन आया था. वह चहक रहा था, “दीदी, मेरा आयकर अधिकारी के लिए चयन हो गया है. बीस को जाना है. पापा तुम्हें लाने चौदह की सुबह पहुंच जाएंगे. तुम तैयार रहना.” भाई से कभी मैंने वादा किया था कि उसकी सर्विस लगने पर मैं उसे एक सूट उपहार में दूंगी. मगनभाई-छगनभाई के यहां से मैं बारह हज़ार छह सौ पैंतालीस रुपए में थ्री-पीस सूट का बहुत शानदार कपड़ा ले आई. इनसे प्रार्थना की कि बधाई देने के बहाने यह कल-परसों में चले जाएं और कपड़ा दे आएं, जिससे वह समय से सिलवा सके. मैं घबरा रही थी कि मेरी कंजूस, लेकिन हिसाब-क़िताब की पक्की सासू मां कहीं किराए आदि के ख़र्च को लेकर इनका जाना रोक न दें, पर उन्होंने ख़ुशी-ख़ुशी सहमति दे दी. इनको छुट्टी नहीं मिल पाई, तो पापा जाने को तैयार हो गए. बेडरूम में क़िताबों के शेल्फ़ के नीचे रखी टेबल पर मैंने वह सूट का कपड़ा रख दिया कि सुबह पैक करके पापा को दे दूंगी. सुबह आंख खुलने पर जो दृश्य देखा, तो मेरी सांस हलक में अटक कर रह गई. रात को जलती अगरबत्तियों को मैंने क़िताब के पन्नों में दबाकर लगा दिया था. रात को न जाने कैसे जलती अगरबत्तियां सूट के कपड़े पर गिर पड़ीं, जो ठीक नीचे टेबल पर रखा था और कपड़े के बीचोंबीच जलाकर सुराख़ बना दिया. मैं किंकर्त्तव्यविमूढ़ और हतप्रभ हो गई. मैंने तीन हज़ार रुपए अपने पास से लगाए थे. चार हज़ार इनसे लिए थे और पांच हज़ार छह सौ पैंतालीस रुपए बाकी कर आई थी. दुख और क्षोभ से मेरी आंखें भर आईं. सासू मां को सारी बात बताई, तो वह सांत्वना देने लगीं. बोलीं, “जो नुक़सान होना था वो तो हो गया. अब रोने से नुक़सान की भरपाई तो होनी नहीं है, जो हुआ उसे भूल जाओ.” मेरी ग़लती थी. यदि मैंने अगरबत्ती को अगरबत्ती स्टैंड में लगाया होता या कपड़े को आलमारी में रखा होता, तो यह हादसा न होता. छगनभाई-मगनभाई के यहां तुरंत इतना अधिक उधार करने की हिम्मत न थी, जबकि अभी पांच हज़ार उधार कर ही आई थी. सासू मां तो एक पैसे का भी नुक़सान नहीं सहन कर पाती हैं. इसलिए उनसे और कुछ कहना बेकार है. भाई के पास खाली हाथ कैसे जाऊंगी, यही सोच-सोचकर मैं ग्लानि से भरी जा रही थी. सासू मां ने सुराख़ हो गए कपड़े का निरीक्षण किया, फिर बोलीं, “इसको रफू करवा दूंगी तो काम आ जाएगा.” दो दिन बाद पापा मेरे मायके भैया को बधाई और उपहार देने चले गए. चौदह तारीख़ को पापा के साथ मायके जाते समय मैं सोच रही थी, भाई से कैसे आंख मिला पाऊंगी. भाई सोच रहा होगा कि इतने बड़े संपन्न घर में दीदी है और पहली बार उपहार दिया भी तो यह रफू किया सूट. उस टेलर ने भी क्या सोचा होगा. रफू के निशान को सूट सिलते समय कहां छिपा पाएगा कोई. इससे तो अच्छा था कि कोई उपहार ही न देती. कोई बहाना बना देती. कम से कम किरकिरी तो न होती. क्या मेरी बदनामी ससुराल की बदनामी न थी? लेकिन अब तो तीर कमान से निकल चुका था. शर्मिंदगी सहने के अतिरिक्त और कोई उपाय ही कहां था? घर पर सब मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे. पहुंचते ही भाई की चहकती आवाज़ सुनाई पड़ी, “दीदी, यू आर ग्रेट. मेरा सूट सिलकर आ गया. इतना शानदार सूट कि आंखें नहीं ठहरतीं. लोग अनुमान लगा रहे हैं कि बीस हज़ार से कम का नहीं होगा और मज़े की बात यह है कि टेलर को भी जीजाजी के पापा ने पूरी सिलाई के पैसे दे दिए थे.” बहुत ही गर्व और प्रसन्नता से भाई ने जो सूट मुझे दिखाया, वह तो उससे भी महंगा कपड़ा था, जो मैंने ख़रीदा था. नया और बिना किसी रफू के. सासू मां के उपदेश अब कम हो गए हैं, क्योंकि उनकी नसीहतों का अब मैं शत-प्रतिशत पालन करती हूं. मितव्ययिता और कंजूसी का अंतर भी मेरी समझ में आ गया है. इनके पापा के ऊपर रफू किया सूट ख़ूब जमता है. टेलर ने इतनी सफ़ाई से सिला है कि रफू का पता ही नहीं चलता. मंजुल ने कहा, “पापा कहते हैं, कितना सुंदर सूट मेरी पुत्रवधू ने दिया. उनको तुमने सूट दिया, मुझे क्या दे रही हो?” मैंने शोख़ी से आंख नचाते हुए कहा, “तुम्हारा उपहार वह पांच हज़ार छह सौ पैंतालीस का छगनभाई-मगनभाई का बिल है, जा के भुगतान करो.” “लेकिन उसका भुगतान तो मां ने कर दिया. अब उसका मुआवज़ा तुमसे वसूलना है.” और हंसते हुए उन्होंने मुझे बांहों में भर लिया.  
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