कहानी- मुझे सब था पता मैं हूं मां 1 (Story Series- Mujhe Sab Tha Pata Main Hu Maa 1)
धरती की तरह ज़िंदगी भी करवट बदलती है. पतझड़ के बाद बसंत आता ही है. उसे कोई रोक नहीं सकता. उसी तरह मेरे जीवन में भी ख़ुशियां आईं, प्यार आया. तुम्हारी सतर्कता, तुम्हारी जासूस नज़र मुझ पर पहरेदारी बिठा सकती थी, मेरे दिल पर नहीं. प्रथम मेरी ज़िंदगी में बहार बनकर आया, पर ये बहार तुम्हें कैसे भा सकती थी? बड़ा कहती थीं कि तुम मेरी दोस्त हो, पर जब दोस्ती निभाने का समय आया, तो दोस्त तो छोड़ो मां भी नहीं रहीं. जेलर बन गईं थी उन दिनों.
आज मैं तुम्हारी जेल से छूट रही हूं. मेरी पैकिंग हो गई है. तुमसे दूर जा रही हूं. बहुत ख़ुश हूं. मुझे मेरा मनपसंद कॉलेज मिल गया है. तुमने कहा था कि मैं कुछ नहीं कर सकती. तुम हार गईं. अब लैपटॉप और मोबाइल लेकर दिया है, क्या फ़ायदा? इतनी उच्च शिक्षा के दौरान समय ही कब मिलेगा. जब खेलने-कूदने की उम्र थी, तब तो ज़िंदगी जहन्नुम बना दी मेरी टोक-टोककर. मेरा मनोरंजन न हुआ, कौन बनेगा करोड़पति का गेम हो गया. मोबाइल या लैपटॉप मेरे हाथ में आया और घड़ी की टिकटिक शुरू.
हर समय रिंग मास्टर की तरह चाबुक लेकर मेरे सिर पर सवार रहने को नहीं मिलेगा अब. ‘अपना कमरा ठीक रखो, पौष्टिक खाओ, अपना काम ख़ुद करो, समय पर करो...’ मेरी ज़िंदगी को टाइम-टेबल बनाकर रख दिया था. मेरे दिल पर कब क्या बीतती है, तुम्हें क्या पता? अब कैसे देखोगी कि मैं गैजेट्स का सही इस्तेमाल कर रही हूं या नहीं? कैसे कपड़े पहने हैं? किसके साथ घूम रही हूं? पढ़ रही हूं या नहीं? पौष्टिक खा रही हूं या नहीं?
पर तुम इतनी उदास क्यों हो? मेरी आज़ाद पंछी-सी ज़िंदगी देखकर चिढ़ रही हो न? एक हारे हुए खिलाड़ी की तरह गुमसुम हो, क्योंकि ‘नालायक’ ‘औसत’ ‘नाक़ाबिल’, ज़माने की ज़ुबान से निकलकर तुम्हारा तकियाकलाम बन गए ये सारे विशेषण ग़लत साबित हो गए.
याद है सबसे पहले ये संबोधन अपनी अध्यापिकाओं के मुंह से सुने थे. वाद-विवाद, भाषण, कविता पाठ हर चीज़ का कितना शौक था मुझे. तुमने हर बार मुझे लिखवाया, सिखाया, तो क्या तुरंत अच्छा याद करके सुनाया नहीं मैंने? ऐसे ही अध्यापिकाओं को भी सुनाती थी, लेकिन चुनाव किया जाता उस बच्चे का, जिनके अंक अच्छे आते थे. मॉनीटर बनना हो, तो अधिक अंक लानेवाले बच्चे, प्रतियोगिता में बाहर जाना हो, तो वही मैम के प्यारे गिने-चुने बच्चे. श्रेष्ठ होने का पुरस्कार पाना हो, तो वही बच्चे. हर बार मेरा नन्हा मन बुझकर रह जाता, पर जब भी तुमसे शिकायत की, तुमने मुझमें ही कमी निकाली. अध्यापिकाएं पक्षपाती हो सकती थीं, लेकिन तुम तो मां थीं. तुम्हें भी कभी मेरी प्रतिभाएं नज़र नहीं आईं... क्यों?
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जब कभी किसी प्रतियोगिता के लिए चयनित न होने पर तुम्हारे आंचल में छिपकर रोना चाहा, तो सुनी तुम्हारी कहानियां, जिसमें श्रम की निरंतरता को ही ज़िंदगी का मूलमंत्र बनानेवाले की जीत होकर ही रहती थी. बचपन में तो नायक की जगह ख़ुद को सोचकर ख़ुश हो लिया करती थी, लेकिन जैसे-जैसे बड़ी होती गई, समझ में आता गया ज़िंदगी पंचतंत्र की कहानी नहीं है. मुझे चिढ़ हो गई थी तुम्हारी कहानियों से, तुम्हारे हौसला देनेवाले वाक्यों से, तुम्हारे समय-नियोजन और योजनाबद्ध ढंग से मेहनत करने के उपदेशों से. ‘औसत’ अध्यापिकाओं का दिया ये विशेषण वो चोट थी, जिस पर तुमने कभी मरहम नहीं लगाया. क्या औसत बच्चे को कभी कोई पुरस्कार पाकर तालियों की गड़गड़ाहट सुनने का, कभी किसी शाम का सितारा होने का हक़ नहीं? क्यों पढ़ती मैं दिन-रात, जब मेहनत करके भी किसी की नज़रों में विशिष्ट हो जाने की कोई उम्मीद नहीं? क्यों करती मैं किसी भी क्षेत्र में योजनाबद्ध मेहनत, जब मुझे पता था कि मैं कभी अध्यापिकाओं के फेवरेट बच्चों की जगह नहीं ले पाऊंगी? मैं इतनी छोटी होकर जिन बातों को समझ चुकी थी, वो तुम्हें कभी समझ नहीं आईं.
तुम्हारी कहानियां पंचतंत्र से बदलकर पौराणिक हो गईं, जिनमें बताया जाता कि उम्रभर संघर्ष झेलनेवाले कैसे ख़ुश रह लेते थे और सब कुछ पाने वाले क्यों दुखी. तुम मुझे भी एक पौराणिक पात्र बना देना चाहती थीं, इसीलिए रोज़ कोई न कोई हॉबी क्लास जॉइन कराने में लगी रहतीं. मेरी दिनचर्या इतनी संघर्षपूर्ण बना दी तुमने कि किसी मनोरंजन के लिए समय ही न बचे. जब मेरी रुचि प्रतियोगिताओं में भाग लेने की नहीं रही, तब तक मेरा ये शौक तुम में स्थानांतरित हो चुका था. तुम स्कूल ही नहीं, सोसाइटी, हॉबी क्लासेस और शहर में होनेवाली जाने किन-किन प्रतियोगिताओं को खोजने के लिए जागरूक रहने लगीं, उनमें मुझे जबरन हिस्सा दिलाने लगीं. यही नहीं उनके लिए मेहनत करने को भी मेरे सिर पर डंडा लेकर सवार रहने लगीं. उनमें मुझे पुरस्कार भी मिले, मगर वे मुझे क्षणिक ख़ुशी ही दे पाए. मैं हर पुरस्कार बड़ी उम्मीद से स्कूल ले गई कि अब तो अध्यापिकाएं इन्हें देखकर पछताएंगी कि उन्होंने ऐसी प्रतिभा का मोल नहीं समझा, लेकिन जब इससे भी उन पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा, तो मुझे उनसे चिढ़ हो गई. पर तुम्हें उनकी उदासीनता, उनका पक्षपात कभी नज़र नहीं आया. तुम्हें मेरे दर्द से वास्ता ही कब था. जब अध्यापिकाएं मेरी शिकायत करतीं, तो उनसे स्कूल के पक्षपाती वातावरण के लिए लड़ने की बजाय तुम बड़ी विनम्रता से उन्हें आश्वासन देतीं कि मुझे समझाओगी.
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धरती की तरह ज़िंदगी भी करवट बदलती है. पतझड़ के बाद बसंत आता ही है. उसे कोई रोक नहीं सकता. उसी तरह मेरे जीवन में भी ख़ुशियां आईं, प्यार आया. तुम्हारी सतर्कता, तुम्हारी जासूस नज़र मुझ पर पहरेदारी बिठा सकती थी, मेरे दिल पर नहीं. प्रथम मेरी ज़िंदगी में बहार बनकर आया, पर ये बहार तुम्हें कैसे भा सकती थी? बड़ा कहती थीं कि तुम मेरी दोस्त हो, पर जब दोस्ती निभाने का समय आया, तो दोस्त तो छोड़ो मां भी नहीं रहीं. जेलर बन गईं थी उन दिनों. हर जगह, हर समय, हर मोड़ पर बस पहरा ही पहरा. तुम्हारी पीढ़ी की ये ही सबसे बड़ी समस्या है. पहले तो आधुनिक बनोगे. कहोगे कि जो चाहो कर सकती हो, आज़ाद हो, पर जैसे ही हम आज़ादी की अपनी परिभाषा बताएंगे, गले में फंदा कस दोगे. तुम्हारी बद्दुआ रंग लाई. प्रथम की बेवफ़ाई ने मेरे जीवन को बेरंग कर दिया.