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कहानी- हस्तक्षेप 3 (Story Series- Hastakshep 3)

प्रमोद ने मुझे अपने बाहुपाश में बांध लिया और मैं भी उनकी बाहों में सिमटती चली गई. आंखों में ख़ुशी के आंसू लिए यह सोचने लगी कि यह कौन-सा रिश्ता था, जो मुझे अपने मां-पिताजी और भाई के रिश्ते से कहीं अधिक मज़बूत और आत्मीय लग रहा था. “तो मैं भी अब और सहन नहीं करूंगी. आप हठधर्मिता दिखाओगे तो किसके पास जाऊंगी? वे मुझे अपने प्राणों से अधिक चाहते हैं. वो आएंगे भी और आपकी करतूतों को रोकेंगे भी. आपके लिए मैंने सब कुछ छोड़ दिया और अब आप मुझे...” मैं तकिये पर औंधा सिर रखकर रोने लगी. “अब नौटंकी शुरू कर दी.” इन शब्दों ने मेरे आंसुओं की धार और तेज़ कर दी. सारी रात रोती रही. दूसरे दिन मैं मायके आ गई थी. कुछ दिनों बाद प्रमोद भी अपने परिजनों के पास चले गए थे. यह मुझे एक परिचित से पता चला. मैं मम्मी-पापा के घर से बस से जाकर नौकरी करने लगी, लेकिन यहां कुछ ही दिनों में अपनापन खोने-सा लगा. पापा, भइया और भाभी तीनों नौकरी करते थे. सुबह चले जाते, शाम को लौटते. बच्चों को मम्मी और नौकरानी संभालती थी. एक दिन भाभी काम से लौटीं, तो नौकरानी पर बरस पड़ीं, “क्या हाल बना रखा है बच्चों का. ठीक से देखभाल नहीं कर रही हो. अगर दो की जगह तीन बच्चे हो गए हैं, तो पापा से कुछ पैसे बढ़वा लो, लेकिन लापरवाही मत बरतो, समझीं. और मीना, तुम भी तो काम कर सकती हो, थोड़ा तो सहयोग तुम्हें भी देना चाहिए.” मैं चुप रही. मैं भाभी के बदलते व्यवहार को देख हतप्रभ थी. एक दिन जब भइया घर आए, तो उनके हाथ में लटकी पारदर्शी थैली में आम देखकर कृष्णा ज़िद करने लगा. भइया ने थैली मेरी तरफ़ बढ़ाई, तो बीच में ही भाभी ने ले ली. एक छोटा आम देते हुए बोलीं, “कई दिनों से बच्चे कह रहे थे, उनके लिए तो ये भी कम पड़ेंगे. मीना, तुम भी तो बाहर जाती हो, कभी-कभार कुछ चीज़ें ले आया करो.” उनकी बात से उतना दुख नहीं हुआ, जितना भइया के चुप रह जाने से हुआ. न जाने क्यों प्रमोद का चेहरा मेरी आंखों में तैर गया. घर में सबके अपने-अपने कमरे थे. मेरे लिए अम्मा-बाबूजी के कमरे के पास स्टोर को खाली कर जगह बनाई गई थी. यह भी पढ़ेलघु उद्योग- इको फ्रेंडली बैग मेकिंग: फ़ायदे का बिज़नेस (Small Scale Industries- Profitable Business: Eco-Friendly Bags) शुरू में तो सब ठीक था, लेकिन कुछ दिनों बाद ही ख़र्चे में खींचातानी होने लगी. सीधे मुंह तो नहीं, लेकिन गाहे-बगाहे भाभी ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि घर में व्यय और मिल-जुलकर काम करना संभव नहीं रह गया. मैंने बिना किसी हील-हुज्जत के अपने कमरे और उसके सामने कॉमन बरामदे में अपने जीवनयापन की व्यवस्था कर ली. जिस घर में मैं पदा हुई, पली-बढ़ी, उसी में बेगानी खानाबदोश-सी ज़िंदगी हो गई थी मेरी. अपनेपन के सारे रिश्ते न जाने कहां तिरोहित हो गए. कहां खो गया मेरा अपना घरौंदा, जहां तक़रार और रूठने-मनाने में भी आनंद आता था. शनिवार को हाफ डे था, इसलिए मैं दोपहर में ही स्कूल से आ गई. कल रविवार है और उसके अगले दिन तीज का पर्व. घर में घुसी, तो वही उदासीन माहौल. भइया-भाभी पकवान बनाने में जुटे थे. तीज की तैयारियां चल रही थीं. मुझे पूछा तक नहीं. अपना बैग स्टूल पर रखकर, कमरे में जाकर सो रहे कृष्णा के पास बेड पर औंधी लेट गई. थोड़ी देर में प्रमोद की स्मृतियां सताने लगीं. मेरी आंखों से आंसू निकलकर तकिये को भिगोने लगे. सो रहे कृष्णा का चेहरा देखा, लगा जैसे प्रमोद लेटे हैं. अचानक मैंने एक दृढ़ संकल्प लिया. उठकर हाथ-मुंह धोया और ज़रूरी सामान बैग में रखने लगी. “कहीं जाना है?” बरामदे में आकर मम्मी ने पूछा. “हूं. सोच रही हूं अपना घर संभालूं.” “वहां अकेले रहोगी? परेशानी होगी तुम्हें.” मम्मी ने कहा. उनके स्वर में अब वह खनक नहीं थी, जिसके सहारे उन्होंने मुझे अपना घरौंदा छोड़ यहां आने को कहा था. “मम्मी, खाली घर भूतों का डेरा बन जाता है, हवा-धूप मिलती नहीं. सीलन और बदबू से जर्जर होने लगता है. दो दिन की छुट्टी है, सोचा थोड़ा संभाल आऊं.” “कृष्णा भी जाएगा?” “मेरे बिना कैसे रहेगा. सबको परेशान करके रख देगा.” मैं जानती थी कि जब अपनी लाडली से कुछ ही दिनों में सब उकता गए, तो कृष्णा तो उनके लिए एक बोझ ही बनता. मम्मी के साथ हो रही बातचीत भइया-भाभी भी सुन रहे थे. “अपना ख़्याल रखना बेटा!” भइया ने भाभी की उपस्थिति से डरते-डरते इतना ही कहा. मुझसे नज़रें न मिलें, इसलिए भाभी कृत्रिम व्यस्तता में रमी रहीं. जाने की कुछ ख़ास तैयारी नहीं करनी थी. असली तैयारी तो करनी थी मन को और वह इस कैद से उड़ने को तैयार बैठा था. यह भी पढ़ेछोटी-छोटी बातें चुभेंगी, तो भला बात कैसे बनेगी? (Overreaction Is Harmful In Relationship) जब मैं अपने घर के पास पहुंची, तो शाम घिर आई थी. रिक्शा छोड़ आगे बढ़ी, तो अचंभित हो उठी. घर का बाहरी हिस्सा साफ़-सुथरा था. कमरों की लाइटें भी जल रही थीं. बाहरी दरवाज़े पर ताला पड़ा था. इसका मतलब कोई यहां रह रहा था. कोई क्यों, प्रमोद रह रहे होंगे. दूसरी चाबी तो उन्हीं के पास थी. फिलहाल किसी काम से बाहर गए होंगे. अपनी चाबी से ताला खोलकर मैं जब अंदर गई, तो घर की सुंदर व्यवस्था को देखती ही रह गई. बेडरूम में साइड में रखे तिकोने स्टूल पर कृष्णा के साथ प्रमोद और मेरा क़रीब दो वर्ष पहले खिंचा वह फोटो सलीके से रखा था, जिसे मेरे घर छोड़कर जाने से पहले हुए विवाद के दौरान प्रमोद ने क्रोध में सोफे पर फेंक दिया था और मैंने भी उसे उठाना गंवारा नहीं समझा था. सोते कृष्णा को बेड पर लिटाकर मैं भी उसी के बराबर लेट गई. लगा जैसे घर की दरों-दीवारें मेरे आने से खिल उठी हों और मुझे अपने आलिंगन में लेने को आतुर हों. कितना अंतर था, मायके के घनिष्ठ संबंधी कितने अजनबी थे और इस घर की हर चीज़ में जैसे आत्मीयता बसी हो. आह्लाद के अतिरेक से आंखों में आए पानी में बहुत-सी सुखद यादें तैर गई. तभी कॉलबेल ने मुझे चौंका दिया. दरवाज़ा खोला, तो आशानुरूप प्रमोद थे. क़रीब चार महीने के बाद हम दोनों ने एक-दूसरे को देखा था. हम दोनों ही कुछ क्षण एक-दूसरे को देखते रह गए. “मुझे विश्‍वास था कि जिस तरह मैं अपने घर वापस आ गया हूं, उसी तरह तुम भी अपने घर ज़रूर लौटोगी, इसीलिए पूरे घर को सजाकर तुम्हारा इंतज़ार कर रहा था.” प्रमोद ने मुझे अपने बाहुपाश में बांध लिया और मैं भी उनकी बाहों में सिमटती चली गई. आंखों में ख़ुशी के आंसू लिए यह सोचने लगी कि यह कौन-सा रिश्ता था, जो मुझे अपने मां-पिताजी और भाई के रिश्ते से कहीं अधिक मज़बूत और आत्मीय लग रहा था. aslam kohara असलम कोहरा

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