हमने आंखों से ज़्यादा बात की थी. शायद हम आंखों की भाषा ज़्यादा समझते थे. एक दिन वो मुझे दिखा. मैंने जाते-जाते उसे एक बार पलटकर देखा था. जैसे हम अब कभी ना मिलने वाले हों. वो भी तड़पकर दो क़दम आगे बढ़ा था, पर जाने क्या सोच वो मेरे पास नहीं आया. मुझे रह-रह कर उसकी आंखें याद आतीं. उसकी तड़प मुझे तड़पा गई थी. हमारे बीच वो दो क़दम का फ़ासला फिर कभी तय नहीं हो सका.
जब भी कॉलेज से आती, वो सामने खड़ा मुझे देख रहा होता. एक नशा-सा था जिसके असर से मैं सब कुछ भूल बैठी थी. उसे देखकर मैं हमेशा मुस्कुरा देती. ऐसा लगने लगा था जैसे उसके बिना ज़िंदगी का कोई सपना सच नहीं हो सकता. कभी उसकी जुदाई के डर से मैं रो पड़ती और कभी उसे ना देख पाने के ग़म में रातभर आंसू बहाती रहती. अजीब-सी हालत हो गई थी. उसने मुझे एक बार मिलने को कहा. चाह तो बहुत रही थी, लेकिन ऐसा कर नहीं सकी थी. उसने फ़ोन रखते-रखते एक कविता सुनायी-
दिल की धड़कनों की आवाज़ सुनी है मैंने
अपनी आंखों से कोई बात कही है मैंने
बस इक दीदार के लिए ख़ुद को संभाले बैठे हैं
जाने ये इश्क़ में कौन-सी राह चुनी है मैंने...
उसकी आवाज़ में घुले दुख को मैं आज भी शिद्दत से महसूस कर सकती हूं. वह मुझे अच्छी तरह समझता था. ऐसा लगता था जैसे मेरे दिल की हर आवाज़ मुझसे पहले उस तक पहुंच जाया करती थी. वो कभी बात करते-करते ख़ामोश हो जाता. वह हमेशा कहता, “क्या हमारी राहें कभी एक नहीं हो सकतीं.” मैं हंस पड़ती. क्या मालूम था उसकी कही हुई बात सच होकर एक दिन मेरे सामने आ जायेगी. हमने कोई वादा नहीं किया था, ना ही क़समें खायी थीं. हमारा प्यार पवित्र था, निश्छल-निर्मल, गंगा की तरह.
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इधर मेरे पापा ने मेरी शादी दिल्ली में तय कर दी. वो मल्टीनेशनल कंपनी में इंजीनियर था. मेरे और क्षितिज की जाति में फ़र्क़ था. मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि मैं उन्हें अपने प्यार का वास्ता देकर शादी रोकने के लिए कहती. मैं ख़ामोश हो गयी, जैसे घरौंदा बनते-बनते टूट गया था. सतरंगी सपनों में खोई आंखों में व़क़्त ने अंधेरा भर दिया था. एक अकुलाहट थी दिल में. दिल करता मैं क्षितिज की बांहों में कैद रहूं, छुप जाऊं. कोई देख न सके हमें. ये समाज की बंदिशें और परिवार की प्रतिष्ठा हमारे बीच ना आये.
ज़िंदगी एक नये मोड़ पर आ चुकी थी. एक फैसला ले चुकी थी मैं अपनी आगे की ज़िंदगी के लिए. हमने आंखों से ज़्यादा बात की थी. शायद हम आंखों की भाषा ज़्यादा समझते थे. एक दिन वो मुझे दिखा. मैंने जाते-जाते उसे एक बार पलटकर देखा था. जैसे हम अब कभी ना मिलने वाले हों. वो भी तड़पकर दो क़दम आगे बढ़ा था, पर जाने क्या सोच वो मेरे पास नहीं आया. मुझे रह-रह कर उसकी आंखें याद आतीं. उसकी तड़प मुझे तड़पा गई थी. हमारे बीच वो दो क़दम का फ़ासला फिर कभी तय नहीं हो सका.
रात के बारह बजे फिर फ़ोन आया. मैं जानती थी कि किसका फ़ोन है, मैंने फ़ोन उठाया, दूसरी तरफ़ मुकम्मल ख़ामोशी थी. कुछ देर बाद मैंने ही बात शुरू की, “तुम्हें शायद पता होगा कि मेरी शादी होनेवाली है. मैं ऐसा कोई क़दम उठाना नहीं चाहती, जिससे मेरे परिवार के सम्मान को ठेस पहुंचे. मेरा परिवार ही मेरी पहली और आख़िरी प्राथमिकता है. हमारे रिश्ते का कोई किनारा नहीं. तुमने मुझे चाहा ये एहसान हमेशा मेरी ज़िंदगी में रहेगा. जो चंद हसीन लम्हें तुमने मुझे दिये उसका कर्ज़ हमेशा मेरे दिल पर रहेगा और ये कर्ज़ उतारना मेरे वश में नहीं है क्षितिज...” मैं कुछ पल को ख़ामोश हो गई, क्योंकि मेरा धैर्य टूटता जा रहा था. आंखों में ठहरा सागर जाने कब अपना बंधन तोड़ दे. मैंने ख़ुद को रोकते हुए कहा, “क्षितिज मैं तुम्हें कभी नहीं भूल पाऊंगी, शायद ज़िंदगीभर.... अपने प्यार के लिए लड़ना मेरे वश में नहीं. हम इस जन्म में कभी एक नहीं हो सकते... कभी...” आगे बात करने की ताक़त ख़त्म-सी हो गई थी. उस रात सागर ने जैसे सारा बंधन तोड़ दिया था. मैं कई दिन, कई रातों तक रोती रही. उसका दिल तोड़ने के बाद टूट-सी गई थी. मैं ख़ुद को समेट रही थी. अपने बिखरे अतीत को फिर से जोड़ना इतना आसान कहां होता है. मैं वही सपना देखना चाह रही थी जो हर लड़की अपनी शादी के व़क़्त देखती है. मैं ख़ुश होना चाहती थी. काफ़ी समय गुज़र चुका था. उसका फ़ोन आना बंद हो गया. इसके बाद वो मुझे कभी दिखा भी नहीं. कोई ऐसा पल, कोई ऐसा लम्हा जब गुज़रता जो उसकी यादों से जुड़ा होता, तो जैसे वो मेरे सामने आकर खड़ा हो जाता. लगता उसकी आंखें मुझे देख रही हैं. बस, कुछ क्षणों के लिए कहीं छुप गया है. वो आयेगा और चौंका देगा मुझे उन दिनों की तरह, लेकिन गुज़रा व़क़्त कब आता है. आज मैं वह कुमुद तो नहीं रही. सब बदल गया है. मैं, ये दुनिया, सब कुछ. पर उसकी यादें अब भी एक साये की तरह मेरे साथ लगी रहती हैं.
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ऐसा लगता है जैसे वो मुझसे कभी दूर ही नहीं हुआ, बल्कि वो मेरी रूह, मेरी सांसों में समा गया है. आज भी जब कभी मेरे घर के सन्नाटों को तोड़ती हुई फ़ोन की बेल बज उठती है तो उसकी यादें नई खिली धूप की तरह मेरे आंगन में आ जाती हैं. एक सपना देखा था. फ़र्क़ ये था, मैंने उसे खुली आंखों से नहीं बंद आंखों से देखा था. क्षितिज मुझे भीरू समझता होगा और मैं स्वयं को संस्कारों और रीति-रिवाज़ों में जकड़ी अबला स्त्री. लेकिन आज भी उस एक सपने का दुख मुझे सालता रहता है. जो इतने सालों बाद भी सुकून से जीने नहीं देता. काश, उसने मुझसे कुछ तो कहा होता. आज भी जब आंखें बंद करती हूं तो जैसे उसकी आंखें हंस के कह रही होती हैं, “मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं. क्या तुम भी मुझसे...” और मेरा दिल बरबस कह उठता, “हां, मैं भी.” तभी जानी-पहचानी ख़ुशबू अपने आस-पास महसूस करके जब मैंने अपनी आंखें खोलीं तो अभिनव सूरजमुखी का फूल लिये मेरी तरफ़ देख कर मुस्कुरा रहे थे. उन्होंने धीरे से मेरे क़रीब आकर कहा, “हमारी छठी सालगिरह मुबारक़ हो जान.” मैंने रोते हुए उन्हें गले लगाकर कहा, “तुम्हें भी” क्योंकि मेरी खुली आंखों का सच अभिनव थे. इस आंगन के सूरज की सूरजमुखी मैं ही थी. मुझे ही घर के हर कोने को अपने त्याग, समर्पण से सजाना था. नया जीवन जीना था मुझे, जिसे स़िर्फ एक नारी ही जी सकती है.
- श्वेता भारद्वाज
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