Close

कहानी- सपने का दुख 1 (Story Series- Sapne Ka Dukh 1)

यह मज़ाक जैसा ही तो है कि किसी ब्लैंक कॉल करनेवाले व्यक्ति के प्रेम में डूब जाऊं. बिना आवाज़ सुने, बिना बात किये, बिना देखे. जब भी फ़ोन बजता, दिल पागल बच्चे की तरह मचल उठता. मैं भागकर स़िर्फ उसकी ख़ामोशी सुनती. कभी-कभी मैं जाने कितनी देर तक फ़ोन लिए खड़ी रहती. अब उसकी ख़ामोशी ही मेरे लिए सब कुछ थी. मुझे हमेशा ये एहसास रहता, जैसे कॉलेज से लेकर मेरे घर के हर रास्ते पर खड़ा वो मुझे देख रहा है. मैं उसे आस-पास महसूस करने लगी थी. यह कैसा पागलपन था. ‘’कुमुद उठो, मुझे ऑफ़िस जल्दी जाना है.” अभिनव ने लगभग झिंझोड़ते हुए कहा. मैं एकदम चौंककर बैठी. अभिनव ने रात में ही बताया था, लेकिन देर रात तक जागने के कारण सुबह जल्दी आंखें ही नहीं खुलीं. उठते ही उनके नाश्ते की तैयारी करने लगी. नाश्ता उन्होंने बड़ी जल्दी में किया. वो जाने लगे तो मैंने भागते हुए फ़ाइल और रुमाल दिया. वह हंस पड़े, क्योंकि हमेशा से मैं ऐसे ही करती आ रही थी. उन्होंने प्यार भरी चपत लगाते हुए कहा, “आज रिमी आ रही है, अगर कोई ज़रूरत हो तो फ़ोन कर देना.” मैंने हां में सिर हिला दिया. वो चले गए. आज रिमी के आने की ख़बर वाकई एक बहार आने जैसी थी. दोपहर तक मैंने उसके लिए खाना बनाकर फ्रिज में रख दिया था. वैसे भी सारा काम दोपहर तक ख़त्म होता था. तभी फ़ोन की बेल बज उठी, लेकिन फिर ख़ामोश हो गई. दिल अचानक धड़क उठा था, वो भी ऐसे ही पांच बार रिंग किया करता था. ऐसा नहीं है कि ये पहली बार हुआ था, बस इससे कई यादें जुड़ी थीं, जिसे मैंने अतीत के पन्नों में दबा दिया था. फ़ोन दोबारा बज उठा ट्रिन ट्रिन ट्रिन.... मैंने फ़ोन उठाया, “हैलो, आप...” दूसरी तरफ़ रिमी थी, “दीदी हम आज नहीं आ सकेंगे. रिज़र्वेशन कन्फर्म नहीं हो पाया है. शनिवार को मैं और अभय भैया साथ आएंगे.” बहुत देर तक बातें होती रहीं. मन उदास-सा हो गया था. हम वर्षों बाद मिल रहे थे. रिमी स़िर्फ मेरी बहन ही नहीं, मेरी बहुत अच्छी दोस्त भी थी. मेरी शादी को छः साल बीत चुके थे. इतने सालों में जैसे मैं ख़ुद को भूल गयी थी. आज जाने क्यों मैं अपने अतीत के पन्ने खोलने बैठ गयी थी. मैं रूढ़िवादी मध्यमवर्गीय परिवार से थी. उस समय मैं बी.ए. तृतीय वर्ष में थी. परीक्षा की तैयारियां ज़ोरों पर थीं. तीन बजे आज कॉलेज से घर आई थी. हमेशा की तरह वही ब्लैंक कॉल.... अजीब शख़्स है, जो आवाज़ सुनता और फिर फ़ोन काट देता. जब भी फ़ोन आता सन्नाटा पसरा रहता. तीन सालों से ऐसा ही होता आ रहा था. पहले तो ग़ुस्से में काट देती, लेकिन धीरे-धीरे उसकी आवाज़ सुनने के लिए उससे प्यार से बातें करती. कभी रोती, कभी उसे डांटती कि शायद अब बोले. लेकिन हमेशा वही ख़ामोशी जिसे सुनते-सुनते मैं चिढ़ने लगी थी. इक इंतज़ार-सा रहता, दिल फ़ोन की बेल पर ही अजीब अंदाज़ में धड़कने लगता था, तभी रिमी ने ख़ामोशी तोड़ते हुए कहा, “ऐसा लगता है यह तुम्हारे आने-जाने की ख़बर रखता है और....” मैंने बात बीच में ही काटकर कहा, “मुझे बताओ तो मैं क्या करूं.” मेरे ग़ुस्से को देख रिमी चुप हो गयी. वह समझ गई थी कि मैं आजकल काफ़ी परेशान रहने लगी हूं. वह मुझसे पांच साल छोटी थी. लेकिन मुझे अच्छी तरह समझती थी. यह भी पढ़ेबेवफ़ाई के बाद कैसे सुधारें रिश्ते को? (Repair Your Relationship After Being Cheated On) कितनी अजीब बात है. मैं ज़िंदगी के ऐसे मोड़ पर थी, जिसे मैं बताती तो लोग हंसते और नहीं बताती तो ऐसा लगता जैसे मेरा दम घुट जाएगा. अपने इस एहसास को मैं किसी से बांट नहीं पा रही थी. वो भी ऐसे छलावे के लिए जिसे पाने के लिए जितना आगे बढ़ती, लगता वो उतना ही मेरे हाथों से छूटता जा रहा है. बंद मुट्ठी में फिसलती रेत की तरह. हमारे समाज में किसी स्त्री के प्रेम के लिए कोई स्थान नहीं होता. इसकी इजाज़त न तो परिवार देता है, ना ही ये निर्मम समाज. यह मज़ाक जैसा ही तो है कि किसी ब्लैंक कॉल करनेवाले व्यक्ति के प्रेम में डूब जाऊं. बिना आवाज़ सुने, बिना बात किये, बिना देखे. जब भी फ़ोन बजता, दिल पागल बच्चे की तरह मचल उठता. मैं भागकर स़िर्फ उसकी ख़ामोशी सुनती. कभी-कभी मैं जाने कितनी देर तक फ़ोन लिए खड़ी रहती. अब उसकी ख़ामोशी ही मेरे लिए सब कुछ थी. मुझे हमेशा ये एहसास रहता, जैसे कॉलेज से लेकर मेरे घर के हर रास्ते पर खड़ा वो मुझे देख रहा है. मैं उसे आस-पास महसूस करने लगी थी. यह कैसा पागलपन था. मेरी हिचकियां-सी बंध गईं. मैं जाने कब तक ऐसे ही रोती रहती कि रिमी के क़दमों की आहट ने मुझे चौंका दिया. जल्दी-जल्दी मैंने आंखें धोयीं और बाहर आकर कॉफी पीने लगी. लॉन में लगी सूरजमुखी की कतारें बरबस मुझे अपनी तरफ़ खींच रही थीं. मुझे इन फूलों से बचपन से ही लगाव था, जो सूरज के प्रकाश में खिलती हैं और जब इन्हें प्रकाश नहीं मिलता तो ये मुरझा जाती हैं. जाने मेरा सूरज कहां छिपा था. मेरी हंसी-चंचलता जाने कहां गुम हो गई थी. उसकी आवाज़ सुनने का जुनून, उसे पाने की चाहत जाने कब मेरे दिल में जगह बना चुकी थी, इसका मुझे एहसास भी नहीं हुआ. मैंने धीरे-धीरे अपने आपको संभाल लिया और परीक्षा की तैयारियों में व्यस्त हो गई. फ़ोन अब भी आते. ख़ामोशी भी ज्यों की त्यों थी. बस उस पर ध्यान देना  मैंने कम कर दिया था. मैं अपने बड़े भाई अभय से ड्रॉइंगरूम में पॉलिटिक्स के प्रश्‍नों पर बहस कर रही थी, तभी फ़ोन की बेल बजकर ख़ामोश हो गई. अभय भइया कुछ देर बाद चले गये. मैं भी जानेवाली थी कि फ़ोन की घंटी फिर बज उठी, ट्रिन... ट्रिन... ट्रिन.... मैंने स्वयं को संयत करते हुए उठाया, “हैलो, हैलो....” कोई आवाज़ नहीं आई. मैंने झल्लाकर फ़ोन रिसीवर पर पटक दिया और वहीं बैठकर रोने लगी. फ़ोन फिर बजा, ट्रिन... ट्रिन... ट्रिन... मैंने फ़ोन उठाकर रोते हुए कहा, “क्यूं इतना परेशान कर रहे हो. ऐसा लगता है जैसे मैं पागल हो जाऊंगी. कुछ बोलते क्यूं नहीं... कुछ तुम... मैं मर जाऊंगी... मर..”

- श्‍वेता भारद्वाज

अधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें – SHORT STORiES

Share this article