आज आंचल एकदम से खाली हो गया है. लग रहा था कि मायका कहीं छूट गया है. गलियां सूनी हो गईं अचानक से. पांच साल तक अमेरिका में स्नेह के निर्मल झरने को तरसता अंतर्मन यहां आकर भी रीता ही रह गया. रात में गेस्ट रूम में अकेले पलंग पर पड़े हुए देर तक नींद नहीं आती थी. पहले आती थी, तो पिताजी बाहर हॉल में सो जाते और मां हमेशा उसके साथ ही सोती, देर रात तक दोनों बातें करती रहतीं. तब वह अपने घर की बेटी होती थी, अब इस नए घर में जैसे गेस्ट बनकर रह गई है. वह घर चमक-दमक से खाली, लेकिन भावनाओं से भरा था.
मन भी नए घर में नए हो गए थे. ऊपर गई तो मां भी आ गईं, कमरे देखने के बाद छत पर गई, तो एक कोने में कुछ सामान पड़ा था. प्रांजल ने देखा उसकी टेबल-कुर्सी और तख्त था. यह तख्त पिताजी ने ख़ास उसके लिए बनवाकर हॉल में खिड़की के पास रखा था. दिनभर इसी पर अपनी किताबें फैलाए वह पढ़ती रहती थी और देर रात पढ़ते हुए इसी पर सो जाती. कमरे में टेबल-कुर्सी जो पहले भैया की थी और उनके हॉस्टल में जाने के बाद प्रांजल को मिल गई थी, उसकी किताबें, कॉलेज का बैग इसी पर रखा रहता. छुट्टियों में इसी पर वह ड्रॉइंग करती. एक छोटा-सा टेबल फैन. पिताजी रात में उसके सिरहाने लगा देते, ताकि मच्छरदानी के अंदर भी उसे हवा मिल सके और वह आराम से सो सके. कितना सुकून था उस हवा में, जो आज एसी की ठंडक में भी नहीं मिलता.
“मां, यह सामान...” बोल नहीं पाई वह कि कबाड़ की तरह यहां क्यों पटक दिया है. याद आया उस घर में यदि उसका कोई भी सामान अपनी जगह से हटा दिया जाता था, तो वह पूरा घर सिर पर उठा लेती थी. पिताजी की सख़्त हिदायत थी कि किसी भी सामान को कोई हाथ न लगाए, लेकिन अब इस घर में वह किस अधिकार से किसी को कुछ कहे.
“यह सामान बिका ही नहीं. अब आजकल कौन ऐसे पुराने तख्त रखता है घर में. एक कबाड़ीवाले से बोला है, वो आकर कुछ दिनों में ले जाएगा.” मां अत्यंत सहज स्वर में बोलीं.
और प्रांजल को लगा उसके सहज स्नेह की डोरियों को जैसे किसी ने काट-छांटकर छत के एक कोने में फेंक दिया है. इंसानों से ही नहीं, मन की यादें और नेह की डोरियां वस्तुओं से भी कितनी मज़बूती से जुड़ी होती हैं. अगर वो वस्तुएं वहां से हट जाएं, तो लगता है किसी ने बलात वो यादें, वो समय ही मिटा डाला है. कुछ भी तो उससे जुड़ा हुआ बचा नहीं है इस घर में. दीवारों की तरह रिश्ते भी नए और पुराने हो गए, लग रहे थे. तीन दिन प्रांजल इसी दुख में रही. ऊपर से हंसती-बोलती, लेकिन अंदर अपनी टूटी हुई नेह की डोरियों की पीड़ा से व्यथित.
कहते हैं मायका मां से होता है, लेकिन आज समझ में आ रहा है कि मायका और भी बहुत सारी बातों से होता है. एक घर होता है, कुछ वस्तुएं होती हैं, जो लंबे समय तक व्यक्ति से जुड़कर अपने प्रति व्यक्ति के मन में एक सहज
स्वाभाविक मोह उत्पन्न कर देती हैं, जिन पर मन का एक आत्मीय अधिकार होता है और वही अधिकार भाव फिर व्यक्ति को उस जगह और लोगों को बांधे रखता है. आस-पड़ोस के लोग, जो आपको खट्टी-मीठी यादें, कुछ नसीहतें, बहुत-सा प्यार बांटते हैं, जिनके साथ घुल-मिल कर जीवन आगे बढ़ता है. वो आस-पड़ोस के रिश्ते, चाची, ताऊ, मामा-मौसी, दादा-दादी, कितने धागे तो बंधे हुए थे. अमेरिका की जिस सरोकारहीन, शुष्क मशीनी संस्कृति के अकेलेपन से घबराकर वह यहां चली आई थी आत्मीयता की छांव की तलाश में, वही शुष्कता यहां पर भी हावी दिखी रिश्तों पर. चमचमाती कॉलोनी में रिश्ते बहुत धुंधला गए थे. पांच बरस पहले प्रांजल स़िर्फ घर की ही नहीं, पूरे मोहल्ले की बेटी हुआ करती थी. सुबह की चाय के पहले शर्मा आंटी गरम-गरम सूजी का हलवा दे जाती थीं कि प्रांजल को बहुत पसंद है. दीक्षित चाची के यहां से पोहा आ जाता था. यही बातें भारत को अन्य भौतिकवादी स्तर पर विकसित देशों से अलग करती थीं, लेकिन अब ये देश भी उसी राह पर चल पड़ा है. इस कॉलोनी में किसी को किसी से कोई सरोकार नहीं कि प्रांजल कौन है.
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आज आंचल एकदम से खाली हो गया है. लग रहा था कि मायका कहीं छूट गया है. गलियां सूनी हो गईं अचानक से. पांच साल तक अमेरिका में स्नेह के निर्मल झरने को तरसता अंतर्मन यहां आकर भी रीता ही रह गया. रात में गेस्ट रूम में
अकेले पलंग पर पड़े हुए देर तक नींद नहीं आती थी. पहले आती थी, तो पिताजी बाहर हॉल में सो जाते और मां हमेशा उसके साथ ही सोती, देर रात तक दोनों बातें करती रहतीं. तब वह अपने घर की बेटी होती थी, अब इस नए घर में जैसे गेस्ट बनकर रह गई है. वह घर चमक-दमक से खाली, लेकिन भावनाओं से भरा था. बस बिट्टू की बालसुलभ क्रियाओं से मन कुछ बहल जाता.
प्राजक्त देख रहा था, प्रांजल इस बार कुछ अनमनी-सी है. जब से वह आई है, तब से उसे भी कॉलेज में इतना काम था कि चाहकर भी उसे समय नहीं दे पा रहा था. दो-चार दिन बाद तो वह लौट भी जाएगी और अगर यूं अनमनी-सी वापस गई, तो पता नहीं बहुत दिनों तक उसका मन करेगा भी कि नहीं वापस आने का. वह उसके मन की स्थिति को काफ़ी कुछ समझ रहा था. उसने तय किया कि कल छुट्टी लेकर दिनभर उसके साथ रहेगा.
“चल एक ज़रूरी काम है, थोड़ी देर में आते हैं.” दोपहर के खाने के बाद प्राजक्त ने प्रांजल से कहा.
प्रांजल प्रश्नवाचक दृष्टि से उसकी तरफ़ देखने लगी.
डॉ. विनीता राहुरीकर
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