Close

कहानी- श्रवण कुमार 2 (Story Series- Shravan Kumar 2)

‘हां-हूं’ में जवाब देते सूर्यकांतजी सहसा बोले, “कहो तो, इस बार जतिन के घर हो आएं, ज़्यादा नहीं तो छह-सात महीने रह आएंगे. तुम्हारा मन भी बदल जाएगा.” पति के प्रस्ताव पर दमयंतीजी चौंक पड़ीं. “कैसी बात कर रहे हो, क्या सोचेंगे अभय-अंकजा?” “इसमें सोचने जैसा क्या है. हम पर दोनों का हक़ है, तो एक वंचित क्यों रहे?” कुछ सोचकर दमयंतीजी बोलीं, “नहीं, अब ये नया बखेड़ा मत खड़ा करो. जहां हैं, वहीं ठीक हैं. कौन तीन मंज़िल सीढ़ियां चढ़ेगा.” “तुम जतिन से बात करो, किसी अपार्टमेंट में घर ले ले या फिर नीचेवाला घर किराये पर ले ले.” “अब सो जाइए, जाने कहां से फ़िज़ूल की बात दिमाग़ में आ गई.” दमयंतीजी सो गईं, पर सूर्यकांतजी देर रात तक कुछ सोचते रहे. “मम्मी बता रही थीं कि सनी टेलीविज़न ना देखे, इस चक्कर में अंकजा टेलीविज़न अक्सर बंद रखती है.” “हां, पर जब सनी स्कूल जाता है, तब देखते हैं. बच्चों के लिए टेलीविज़न की पाबंदी का समर्थन मैं भी करता हूं.” जतिन पिता के तर्क से आश्‍वस्त होने की बजाय उद्विग्न हो गया. बातें करते-करते घर पहुंचे, तो सुरेखा बाज़ार जाने के लिए तैयार थी. जतिन-सुरेखा बाज़ार से खाने-पीने के सामानों से लदे-फंदे लौटे. “मम्मी, ये डायटवाली नमकीन और बिस्किट हैं, जितनी मर्ज़ी खाओ. और हां, कल से रोज़ बादाम भिगोकर पापा-मम्मी को खिलाना.” सुरेखा अंकजा को पैकेट देते हुए बोली. दमयंती बेटे-बहू के स्नेह से आत्ममुग्ध हुई बार-बार सुरेखा और जतिन के सिर पर हाथ फेरती, मानो आशीर्वाद देती हों. जतिन को मां से लाड़ करते देख सूर्यकांतजी को उसका बचपन याद आया. दमयंतीजी का पल्लू छोड़ता ही नहीं था. सब उसे दमयंतीजी का चम्मच कहते थे. अक्सर उस पर चुगलखोर का तमगा लगता. उसकी आदत से जहां लोग परेशान होते, वहां दमयंतीजी विभोर हो उस पर वात्सल्य वर्षा करती रहतीं और चुगलखोर अभियोग को मिटा देतीं. बचपन से ही जतिन के प्रेम-प्रदर्शन को देख लोग उसे ‘श्रवण कुमार’ कहकर पुकारते. फिर वह शादी के बाद भी कई सालों तक सूर्यकांत-दमयंतीजी के साथ पैतृक मकान में ही रहा, पर सूर्यकांतजी के रिटायरमेंट के बाद वो दूसरे शहर चले गए. पांच साल अकेले रहने के बाद अंकजा और अभय ने सूर्यकांत और दमयंतीजी से अपने साथ चलने की पेशकश की, तो उन्होंने मना नहीं किया. अकेले रहना दिनोंदिन मुश्किल होता जा रहा था. आज पांच साल से वो अभय और अंकजा के साथ ही हैं. जतिन-सुरेखा साल-दो साल में छोटे भाई के घर माता-पिता से मिल जाते हैं. इन दिनों वे उनकी दवाइयों, स्वास्थ्य-खानपान, मनोरंजन आदि से जुड़ी छोटी-छोटी बातों पर आश्‍वस्त होना चाहते हैं. उनके जाने के बाद कई दिनों तक दमयंतीजी उनके प्रेम में डूबी दिखतीं. बात-बात पर जतिन और सुरेखा का उल्लेख होता. सूर्यकांतजी अभय-अंकजा, सुरेखा-जतिन के व्यवहार का आकलन कर ही रहे थे, तभी दमयंतीजी बोलीं, “सुनो, कल घर सूना हो जाएगा. जतिन और सुरेखा के आने से कितनी रौनक़ हो गई.” ‘हां-हूं’ में जवाब देते सूर्यकांतजी सहसा बोले, “कहो तो, इस बार जतिन के घर हो आएं, ज़्यादा नहीं तो छह-सात महीने रह आएंगे. तुम्हारा मन भी बदल जाएगा.” पति के प्रस्ताव पर दमयंतीजी चौंक पड़ीं. “कैसी बात कर रहे हो, क्या सोचेंगे अभय-अंकजा?” “इसमें सोचने जैसा क्या है. हम पर दोनों का हक़ है, तो एक वंचित क्यों रहे?” कुछ सोचकर दमयंतीजी बोलीं, “नहीं, अब ये नया बखेड़ा मत खड़ा करो. जहां हैं, वहीं ठीक हैं. कौन तीन मंज़िल सीढ़ियां चढ़ेगा.” “तुम जतिन से बात करो, किसी अपार्टमेंट में घर ले ले या फिर नीचेवाला घर किराये पर ले ले.” “अब सो जाइए, जाने कहां से फ़िज़ूल की बात दिमाग़ में आ गई.” दमयंतीजी सो गईं, पर सूर्यकांतजी देर रात तक कुछ सोचते रहे. सुबह आंख खुली, तो अंकजा और अभय को इतनी सुबह तैयार देख याद आया कि आज सनी के स्कूल में पैरेंट्स-टीचर्स मीटिंग है, वो जल्दी-जल्दी काम निपटा रही थी. सूर्यकांतजी ने ज़ोर से आवाज़ लगाकर अंकजा से चाय मांगी. यह भी पढ़े: न भूलें रिश्तों की मर्यादा (Set Healthy Boundaries For Happy Relationship) “जी पापा.” उसने बोल तो दिया, पर इधर-उधर के काम निपटाती रसोई तक पहुंचने का समय नहीं निकाल पाई. “भाभी, देर हो रही है.” सुरेखा से कहती बाहर चली गई. अंकजा के जाते ही सूर्यकांतजी की रोषभरी आवाज़ आई. “इस घर में क्या एक कप चाय भी समय से नहीं मिल सकती?” सुरेखा ने आश्‍चर्य से कहा, “अरे! उसने चाय नहीं दी आपको.” जतिन ने ग़ुस्से में सुरेखा को चाय बनाने का आदेश दिया और अंकजा की लापरवाही को कोसने लगा. “आधी पेंशन देते हैं पापा, फिर भी छोटी-छोटी ज़रूरतें पूरी नहीं होतीं.” पापा को नाराज़ देखकर जतिन के सुर तेज़ हो गए थे. सहसा सूर्यकांतजी बोले, “क्या समझते हैं कि मेरा एक यही ठिकाना है. बस... अब तुम्हारे साथ चलूंगा. अब और अपमान नहीं सहेंगे...” जतिन-सुरेखा को अवाक् देख वो आगे बोले, “दमयंती, सामान बांधो, जिस घर में समय पर चाय ना मिले, गुलाब जामुन छिपाकर खिलाए जाएं, ख़ुद घूमने जाएं और हम रखवाली करें, दमयंती टेलीविज़न को तरसे, ऐसे घर में रहना अब मुश्किल है.” “अरे! सठिया गए हो क्या? मैंने कब कहा टेलीविज़न देखने को तरस गई हूं.” दमयंतीजी ने टोका तो हड़बड़ाते हुए जतिन ने भी कहा, “हां पापा, इतनी बड़ी बात भी नहीं है. अंकजा जल्दी में थी.” पर सूर्यकांतजी कुछ सुनने को तैयार नहीं थे. जतिन ने सिर पकड़ लिया.          मीनू त्रिपाठी

अधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें – SHORT STORIES

Share this article