पहला अफेयर: तुम बिन... अधूरी मैं! (Pahla Affair: Tum Bin... Adhuri Main)
एक ख़्वाब थे तुम या मेरी हक़ीक़त... बस, आए... पलभर के लिए ठहरे... और ओझल हो गए... जैसे कोई नूर की बूंद तन-मन को भिगोकर चांद की आगोश में खो जाती है... जैसे कोई शबनम का क़तरा होंठों की दहलीज़ को छूकर, मदहोश करके, मन को प्यासा ही छोड़कर बिखर जाता है... इसी तरह से तुम भी आए थे, मेरी हस्ती पर छाए थे और फिर मुझे अधूरा करके चले गए... कैसे हो, कहां हो... मुझे आज तक पता नहीं... बस इतना पता है कि मैं अब तक वैसी ही हूं... तुम बिन अधूरी! मुझे याद है, तुम्हारी वो पहली नज़र जो मुझे भीतर तक भिगो गई थी. बारिशों के मौसम में सावन के झूले की तरह तुम आए, मुझे ढलती शाम में भीगता देख अपना रेनकोट मुझे देकर बाइक पर तेज़ी से ओझल हो गए. फिर कई दिनों तक तुम्हारा वहीं इंतज़ार करती रही थी मैं, पर तुम नहीं आए... “हैलो मैम, कैसी हैं आप... आज तो बारिश नहीं हो रही, अब तो मेरा रेनकोट लौटा दीजिए. इस ग़रीब पर रहम कीजिए, मैं उस दिन के बाद रोज़ भीगकर घर जाता हूं.” “ये अजीब बात है, बिन कहे, बिन बताए आप आए और चले गए. उसके बाद कहां ढूंढ़ती आपको. रोज़ आपका इंतज़ार करती थी यहीं, पर आप आज आए हैं.” “क्या बात है, एक ही मुलाक़ात में इतनी बेक़रारी अच्छी नहीं. मेरा रोज़ इंतज़ार... वाह राहुल बेटा, काफ़ी डिमांड में है, एक ख़ूबसूरत हसीना तेरे इंतज़ार में थी...” “बस-बस, मैं कोई तुमसे मिलने के लिए बेक़रार नहीं थी, बस तुम्हें थैंक्स कहना था और तुम्हारा सामान लौटाना था.” “ठीक है, तो बोल दो थैंक्स और लौटा दो मेरा सामान...” यह भी पढ़ें: पहला अफेयर: इंतज़ार (Pahla Affair: Intezar) “ये लीजिए, उस दिन से रोज़ बैग में इसका वज़न ढो रही हूं. वैसे थैंक्स मेरी मदद करने के लिए.” “आप इतने दिनों तक मेरा इंतज़ार कर रही थीं, तो मेरा फ़र्ज़ है कि आपको कॉफी पिलाऊं... क्या मेरे नसीब में है ये?” पता नहीं क्यों, मैं राहुल को मना नहीं कर पाई. एक तरह से तो वो अंजान ही था मेरे लिए, पर मैं उसके साथ चल पड़ी... कॉफी पीते-पीते ढेर सारी बातें हुईं हमारे बीच... और जाते समय राहुल ने कहा, “रूही, मेरा सामान लौटाया नहीं आपने... ये तो चीटिंग है.” “नहीं, मैंने तो लौटा दिया... आपको ग़लतफ़हमी हुई है...” “नहीं रूही, ये देखो, मेरा दिल, मेरे सीने में नहीं है... आपने चुपके से रख लिया अपने पास...” जब राहुल ने रूमानी अंदाज़ में यह बात कही, तो अजीब-सी सिहरन हुई थी मेरे तन में... पहली बार किसी की बातों ने, किसी की नज़रों ने इस तरह से छुआ था मुझे. उसके बाद बातों का, मुलाक़ातों का सिलसिला चलता गया... हम क़रीब आने लगे कि एक रोज़ तुम अचानक चले गए मेरी ज़िंदगी से. बिना कुछ कहे, बिना कुछ बताए... मैंने बहुत इंतज़ार किया... पर तुम नहीं आए. सारी आस टूट गई थी, फिर भी एक उम्मीद थी मन में कि तुम कभी न कभी आओगे, तब सारी शिकायतें कर लूंगी. “मैम, आप मेरी सीट पर बैठी हैं शायद...” एक जानी-पहचानी आवाज़ ने मुझे चौंका दिया... मैं फ्लाइट में शायद ग़लत सीट पर बैठी हुई थी. नज़रें उठाकर देखा, तो सामने राहुल था... उसे भी अंदाज़ा नहीं था कि मैं बैठी हूं. वो सकपका गया... पूरे रास्ते हमने कुछ नहीं कहा एक-दूसरे से. लैंडिंग के बाद मैंने देखा कि राहुल कुछ लंगड़ाकर चल रहा है. मैंने उसे रोका, बहुत-से सवाल थे मेरे मन में... “क्या हुआ है तुम्हें. तुम ऐसे क्यों चल रहे हो...? राहुल, मुझे इस तरह बीच राह में छोड़कर चले गए, अब इस तरह चुप नहीं रह सकते तुम... तुमको बताना होगा...” “रूही, उस शाम जब मैं तुमसे मिलकर वापस जा रहा था, तब मेरा एक्सीडेंट हो गया था. उसी में मेरा एक पैर ख़राब हो गया...” “तुमने मुझे बताना भी ज़रूरी नहीं समझा... तुम्हें क्या लगा कि इतनी सी बात के लिए मैं तुम्हें छोड़ दूंगी...? इतना ही समझे हो मेरे प्यार को?” “नहीं रूही, बात स़िर्फ इतनी होती तो भी मैं तुम्हारी ज़िंदगी से नहीं जाता, पर डॉक्टर्स ने बताया कि मेरी रीढ़ की हड्डी में गंभीर इंजरी हुई है, जिससे मैं अब कभी पिता नहीं बन सकता... तुम हमेशा कहती थीं कि हमारा घर होगा, बच्चे होंगे, मैं तुम्हारे सपने पूरे नहीं कर सकता...” “राहुल, मेरा सपना तुमसे ही शुरू होता है, तुम पर ही ख़त्म... बच्चे तो बाद की बात है... मैं तुमसे प्यार करती हूं, जब तुम ही नहीं, तो मेरा अस्तित्व ही नहीं... तुम अब भी नहीं समझे मुझे... नहीं पहचाने मेरे प्यार को... तुम बिन अधूरी हूं मैं! हमेशा... ताउम्र...!” राहुल ने मुझे अपनी गर्म बांहों में ़कैद कर लिया, ख़ुद से कभी न जुदा होने के लिए!- गीता शर्मा
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