कहानी- सतरंगी अरमानों की उड़ान (Short Story- Satrangi Armano Ki Udan)
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“अलग-अलग भूमिकाओं में अपने को ढालना बांटना नहीं होता, बल्कि अपने वजूद को और मज़बूत बनाना होता है. मुझे ख़ुशी है कि तुमने सुख और संतोष के बीज अपने परिवार में अंकुरित किए हुए हैं. एक बार अपने दिल के दरवाज़े को खोलकर होंठों तक गीतों को आने दो, फिर देखना कैसे वे थिरकेंगे. हमारा प्यार जितना सच है, उतना ही सच तुम्हारा परिवार भी है.”
उसका आना वैसा ही होता था, जैसे गर्मियों में मीठी बयार का बहना, जैसे सर्दियों में खिली चटकती धूप. उसके आने से कमल के पत्ते पर बिछी ओस सचमुच मोती के मानिंद लगने लगती थी. पत्ता-पत्ता, फूल-फूल खिल उठते थे, रसपान करने के लिए भंवरे मंडराने लगते थे और तितलियां अपने रंग-बिरंगे पंखों का आंचल ओढ़े
यहां-वहां इठलाने लगती थीं. सतरंगी अरमानों को उड़ान देती एक गुनगुनाती बहार अपने हवा के झोंकों में प्यारभरी ख़ुशबू भर एक ओढ़नी की तरह शरीर से लिपट जाती थी. वह घंटों, दिनों और कई बार तो महीनों तक उस ख़ुशबू को अपने भीतर महसूस करती थी.
किसी का हरदम साथ बने रहना एक ख़ूबसूरत जज़्बा ज़रूर है, पर साथ न होने पर भी उसके वजूद का हर पल बने रहना उससे भी ख़ूबसूरत एहसास है.
फिर इंतज़ार लंबा नहीं लगता...
फिर तन्हाइयां काटती नहीं हैं...
फिर सन्नाटे में बेचैनी कचोटती नहीं है...
फिर जीवन निष्प्रयोजन नहीं लगता...
ये सब बातें न तो किताबी हैं, न ही मन की कल्पना के जाल से छनकर निकलीं. ये भोगी हुई संवेदनाओं का निचोड़ है.
कहां गईं अब उसकी ये संवेदनाएं. सर्दियों की गुनगुनी धूप हो या बारिश की भीगी फुहारें, गीली घास पर चलना हो या घंटों यूं ही बैठे-बैठे गीत गुनगुनाना... पुराने गानों को सुन एक रूमानियत-सी छा जाती थी. प्रकृति से सारा संपर्क ही टूट गया है. सतरंगी अरमानों की उड़ान अपना आकाश ही ढूंढ़ रही है अब.
डेक पर चिल्लाता तेज़ म्यूजिक, तीन मंज़िला आलीशान कोठी के संगमरमरी फ़र्श और खिड़कियों पर टंगे ख़ास कनाडा से मंगाए परदे, अपनी गरिमा को दर्शाते हुए मानो उसकी भावनाओं का उपहास उड़ाने को तत्पर रहते हैं.
मैं जो मिसेज़ पराग गुप्ता, अनुभव और अरुणिमा की मम्मी, प्रतिष्ठित व अकूत संपत्ति के स्वामी गुप्ता खानदान की बहू के रूप में जानी जाती हूं, उसका अपना नाम तो भूली-बिसरी याद की तरह स़िर्फ शादी के कार्ड पर ही अंकित होकर रह गया है. हीरे के व्यापारियों के विशाल और विदेशी कलाकृतियों से सजे ड्रॉइंगरूम के ग्लास कैबिनेट में क्रिस्टल की बेशक़ीमती क्रॉकरी के बीच सजा वह कार्ड भी गुप्ता खानदान की रईसी व खुले दिल का परिचायक है.
“पूरे 700 रुपए का एक कार्ड बना था. डिज़ाइनर है. कार्ड के साथ पिस्ते की लौज का डिब्बा दिया गया था...” पिछले 10 बरसों से वह यह वाक्य न जाने कितनी बार सुन चुकी है. बस, जब भी वह उस कार्ड में पूर्णिमा वेड्स पराग पढ़ती है, तो अपना नाम ही उसके भीतर एक सिहरन-सी पैदा कर देता है.
उसके नाम को कितने प्यार से लेता था वह. “पूर्णिमा की चांदनी की तरह ही खिली लगती हो तुम हमेशा. जब हंसती हो, तो न जाने कितनी कलियां एक साथ चटक जाती हैं. हर ओर जगमगाहट फैल जाती है, बस, अब जल्दी से मेरी दुनिया में आ जाओ और उसे सतरंगी बना दो. चांदनी के हर रूप को मैं अपने में उतारना चाहता हूं.”
प्यार की उत्कृष्ट ऊंचाइयों को छूने लगती थीं उसकी आंखें और वह लजाकर अपनी पलकें झुका लेती थी. फिर झट से वह उसकी कांपती पलकों को चूम लेता था.
कॉलेज के दिनों में परवान चढ़े उनके प्यार का रंग हर गुज़रते दिन के साथ गहरा होता जा रहा था. बस, अब इंतज़ार था, तो एक हो जाने का. जिस दिन विराट को नौकरी मिली, पूर्णिमा को लगा था कि अब उसके सपनों को सच होने में देर नहीं है. उदास थे, तो बस दोनों इस बात से कि नौकरी उसे दूसरे शहर में मिली थी.
पर एक-दूसरे के वजूद के हरदम बने रहने ने इस दूरी को भी आधारहीन बना दिया. फिर फोन तो था ही दिलों के तार जोड़े रखने के लिए. उस बार जब दो महीने बाद वह लौटा, तो बहुत ख़ुश था. “पूर्णिमा, वहां मैंने सारी व्यवस्था कर ली है. एक छोटा-सा फ्लैट भी किराए पर ले लिया है. अपनी गृहस्थी बसाने का हर सामान एकत्र कर लिया है. आज शाम को मम्मी-पापा के साथ तुम्हारे घर आऊंगा. मेरा इंतज़ार करना.”
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रोम-रोम रोमांचित हो उठा था उसका. ऐसे तैयार हुई मानो आज ही दुल्हन बननेवाली हो. उसके घरवालों को उन दोनों के रिश्ते के बारे में कुछ भी पता न था, पर उसे यक़ीन था कि उसके मम्मी-पापा अपनी इकलौती बेटी की बात नहीं टालेंगे. फिर यहां तो जाति की भी समस्या नहीं थी.फ़र्क था तो केवल हैसियत का, लेकिन उससे क्या... वह निश्चिंत थी.
“तुमने इस तरह की कल्पना की भी तो कैसे?” पापा की आवाज़ ड्रॉइंगरूम में गूंजी, तो घबराकर वह बाहर आई.
“रिश्ता बराबरवालों में किया जाता है. प्यार का रंग ज़िम्मेदारियों की पलस्तर चढ़ते ही फीका होने लगता है. घर चलाने की मश़क्क़त जज़्बात पर पैबंद लगा देती है. यही सच है. ख़ुश रहने के लिए जितना ज़रूरी प्यार है, उतना ही पैसा भी.”
“आप पूर्णिमा की इच्छा की तो कद्र करेंगे न?” विराट ने किसी तरह अपने को संयत करते हुए पूछा था.
“बिल्कुल करूंगा, पर अगर उससे उसकी ज़िंदगी बदरंग होगी, तो बाप होने के नाते ढाल बनकर उसके सामने खड़ा भी हो जाऊंगा.”
“पापा, पर... ”
“बस...” पूर्णिमा के विरोध को पलभर में ही झटक दिया गया था.
“मेहमानों को चाय-नाश्ता सर्व कर आदर से विदा करो.”
कितना कहा था उसने विराट को कि वह सबकुछ छोड़कर आने को तैयार है, लेकिन वह उसके पापा की इज़्ज़त को खाक में नहीं मिलाना चाहता था. “मां-बाप चाहे कितनी मनमानी करें, पर उनका कर्ज़ बच्चे कभी नहीं चुका सकते.”
विराट चला गया और उसके बाद से ही न तो कमल के पत्ते पर ओस मोती की तरह दिखी, न ही सतरंगी अरमानों ने उड़ान भरी.
वह मिसेज़ पराग गुप्ता बन गई. पापा की हैसियत और गुप्ता खानदान दोनों की इज़्ज़त व सम्मान का मान रखना उसका दायित्व बन गया. उसकी सुंदरता पराग के लिए गर्व का विषय बन गई. वह जहां जाती, केवल उसके रूप का बखान होता. उसके गुण सास-ससुर के लिए अच्छे संस्कार होने का विषय थे, पर कभी गुणों की चर्चा नहीं होतीबस हीरे की परख जौहरी ही जानता है, के जुमले हवा में तैरते, उसे एहसास कराते कि देखो हीरे के व्यापारियों ने कैसा हीरा ढूंढ़ा है. उसकी चमक कभी फीकी नहीं पड़नी चाहिए, नहीं तो शोकेस में रखा अच्छा नहीं लगेगा. बच्चों के लिए वह एक स्मार्ट मां थी. सबका प्यार, स्नेह और आदर पा वह भी बहुत ख़ुश थी. क्या सचमुच ख़ुश थी? नाख़ुश होने की वजह कोई थी भी नहीं, पर वह इसलिए ख़ुश थी, क्योंकि दूसरे उससे ऐसी उम्मीद रखते थे कि गुप्ता खानदान की हीरे जैसी बहू हमेशा खिलखिलाते हुए अपनी सुंदरता की चमक उनके घर में बिखेरती रहे और उन्हें हर पल एक गर्व के एहसास से सराबोर रहने दे, वरना वह तो इन सबके बीच भी अपने होने के एहसास को हमेशा तलाशती रहती.
होंठों पर थिरकते व्याकुल गीतों को सुन स्वयं भी चटकती कलियों की तरह खिलखिलाना चाहती. उसकी बंद पलकें उस चुंबन के लिए आकुल हो उठतीं, तो घबरा जाती वह. कितना लंबा इंतज़ार हो गया है इस बार. दस साल बीत गए हैं. इस बीच न तो कभी विराट से मुलाक़ात ही हुई, न ही फोन पर बात. मन तो किया कई बार उसका कि नेट पर चैटिंग कर ले, पर शायद कुछ पल उसके लिए चुरा पाना जैसे मुश्किल ही हो गया था.
हर साल की तरह इस बार भी छुट्टियों में घूमने का प्रोग्राम बन रहा था. “इस बार सिडनी का टूर बनाते हैं.” पराग ने सुझाया तो अनुभव बोला, “नो पापा, न्यूयॉर्क चलिए. लास्ट ईयर हमने वहां कितना एंजॉय किया था.”
“तभी तो इस बार न्यू प्लेस जाएंगे बुद्धू.” अरुणिमा ने अपने छोटे भाई को समझाया.
सिडनी की जगमगाती रातों में, मखमली सड़कों पर से गुज़रते, शॉपिंग करते और होटलों में खाना खाते, अपने परिवार को मौज-मस्ती करते देख पूर्णिमा संतुष्ट थी.
पर सतरंगी उड़ान और गुनगुनाती बहार और उसकी मीठी छुअन की चाह उसका मन बार-बार भटका देती. संडे था उस दिन. बच्चे होटल में ही रहकर गेम्स खेलना चाहते थे और पराग अपने किसी मित्र से मिलने गया था. अकेली ही निकल गई वह सिडनी की सड़कों पर सैर करने. इंडियन फूड सर्व करनेवाले होटल में कॉफी पीने के ख़्याल से घुसी. सोच के पाखी उसके अंतस से निकल यहां-वहां उड़ने लगे.
“कैन यू गेट मी ए कप ऑफ कॉफी एंड सम स्नैक्स.”
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ये आवाज़... अचानक पूर्णिमा को लगा जैसे चटकती धूप के टुकड़े उसकी टेबल पर आ नृत्य कर रहे हैं, उसके वजूद में बसी ख़ुशबू चारों ओर गमकने लगी है. उसकी भावनाएं पायल की रुनझुन की तरह हो गई हैं. छन-छन की मीठी-सी धुन बजने लगी है हर तरफ़. उसने पलटकर देखा. दोनों की नज़रें मिलीं और धड़कनें तेज़ हो गईं.
“पूर्णिमा तुम? तभी सोच रहा था कि आज सिडनी की सुबह इतनी चटकीली कैसे हो गई है.” वही चिर-परिचित अंदाज़, आंखों में प्यार और चेहरे पर मासूम मुस्कान. विराट से इस तरह मुलाक़ात होगी, सोचा तक नहीं था.
“कैसी हो? ”
“अच्छी हूं... और तुम?”
उसके बाद मौन पसर गया दोनों के बीच. मानो दस बरसों के उस अंतराल को दोनों इन क्षणों में अपनी मुट्ठी में ़कैद कर लेना चाहते हों.
“मुझे कभी माफ़ कर पाओगे विराट?”
“तुमसे कोई शिकायत ही नहीं है. वैसे भी दूरियां कभी भी प्यार के रंग को फीका नहीं कर पाती हैं. तुम आज भी मेरे साथ हो. मेरा वजूद तुमसे ही है.”
“लेकिन मैंने अपना वजूद खो दिया है विराट. इस पूर्णिमा ने बस अलग-अलग भूमिकाओं में अपने को बांट रखा है. ख़ुद के लिए कभी कुछ करने को मन ही नहीं करता.” उसकी पलकें थरथरा रही थीं.
“नहीं, तुम ग़लत कह रही हो. अलग-अलग भूमिकाओं में अपने को ढालना बांटना नहीं होता, बल्कि अपने वजूद को और मज़बूत बनाना होता है. मुझे ख़ुशी है कि तुमने सुख और संतोष के बीज अपने परिवार में अंकुरित किए हुए हैं. एक बार अपने दिल के दरवाज़े को खोलकर होंठों तक गीतों को आने दो, फिर देखना कैसे वे थिरकेंगे. हमारा प्यार जितना सच है, उतना ही सच तुम्हारा परिवार भी है. तुम संबंधों को ज़िम्मेदारियों की तरह बख़ूबी निभा रही हो, पर मन के दरवाज़े पूरी तरह खोलकर नहीं.”
शाम हो गई थी. दोनों को ही लौटना था. पर इस बार पूर्णिमा के क़दमों में अपने लिए किसी अलग रास्ते को तलाशने के लिए सबसे कटकर चलने की अकुलाहट नहीं थी. उसका वजूद है... रिश्तों के ओर-छोर में लिपटा... पराग, बच्चे, घर-परिवार... क्या इनके बीच रहकर वह अपने वजूद को पंख नहीं दे सकती...? सभी तो उसे कितना प्यार करते हैं... कार में बैठकर पलकें बंद कीं, तो महसूस हुआ जैसे अब भी हवा में ख़ुशबू तैर रही है, उसके सतरंगी अरमानों को जैसे आसमान मिल गया है.
सुमन बाजपेयी
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