'तुम नहीं जानती शिखा, तुम्हें खोने के एहसास ने मुझे किस क़दर झकझोर कर रख दिया था. अगर तुम्हें कुछ हो जाता, तो शायद मैं ख़ुद को कभी माफ़ न कर पाता. माफी के क़ाबिल तो मैं अब भी नहीं हूं, लेकिन तुम साथ हो, तो कम से कम अपने पापों का पश्चाताप तो कर सकूंगा.'
शिखा जब से हॉस्पिटल से लौटी है, उसे घर में सब कुछ बदला-बदला सा नज़र आ रहा था. उसने एक नज़र पूरे घर पर दौड़ाई और फिर पास खड़े शिखर की तरफ़ देखा. शिखर ने प्यार से उसका माथा चूमा और उसे बांहों में भरते हुए कहा, ''शिखा, अब तुम्हें घर का नहीं, अपनी सेहत का ख़्याल रखना है. घर की चिंता तुम मुझ पर छोड़ दो, मैं सब संभाल लूंगा.'' फिर शिखर उसे सहारा देते हुए बेडरूम में आराम करने के लिए ले गए.
शिखा ने सोचा था, जब वो घर पहुंचेगी, तो पूरा घर अस्त-व्यस्त पड़ा होगा. इस हालत में कैसे समेटेगी वो पूरे घर को, लेकिन यहां तो नज़ारा ही कुछ और था. इस परिवर्तन की वजह उसे समझ नहीं नहीं आ रही थी. उसकी हैरानी तब और बढ़ गई, जब उसने अपने बेड पर सुर्ख़ लाल गुलाब का गुलदस्ता और एक पत्र देखा. उसने फिर शिखर की तरफ देखा, शिखर जानते थे कि शिखा को लाल गुलाब बहुत पसंद हैं. इस बार शिखर ने कहा तो कुछ नहीं कहा, लेकिन उनकी आंखें नम हो आईं. वो कुछ कहती इससे पहले शिखर ने उसके होंठों पर अपना हाथ रख दिया और उसे बेड पर लिटाकर किचन की तरफ़ चले गए.
शिखर का ये बदला हुआ रूप उसे अजीब ज़रूर लग रहा था, लेकिन इस बात की ख़ुशी भी थी कि एक्सीडेंट के बहाने ही सही शिखर ने उसका ख़्याल तो रखा, वरना शिखर की बेरुख़ी उसे अंदर ही अंदर खोखला किए जा रही थी.
बेड पर लेटी शिखा देर तक पास रखे गुलदस्ते को निहारती रही जैसे उन सुर्ख़ गुलाबों से कुछ कहना चाहती हो. फिर उसे याद आया, ये पत्र भी तो उसी के लिए है. पत्र में शिखर की चिर-परिचित हैंड राइटिंग देख एक पल को उसे लगा जैसे गुज़रा ज़माना लौट आया है. शादी से पहले हर ख़ास मौ़के पर शिखर उसे पत्र लिखा करते थे. जो बात ज़ुबान से न कह पाते, उसे पत्र के माध्यम से उस तक पहुंचा देते. शिखर का पत्र लिखना शिखा को बहुत पसंद था. शिखर के लिखे सारे पत्र उसने आज तक सहेजकर रखे हैं.
इस बार क्या लिखा है शिखर ने, इसी उत्साह के साथ शिखा पत्र पढ़ने लगी.
प्यारी शिखा,
आज फिर मन में कई ऐसी बातें हैं, जिन्हें मैं तुमसे कहना चाहता हूं, लेकिन कह नहीं पा रहा इसलिए हमेशा की तरह पत्र का सहारा ले रहा हूं. मैं तुमसे माफ़ी मांगना चाहता हूं शिखा, लेकिन जानता हूं, मेरा गुनाह माफ़ करने लायक नहीं है. आज तुम्हारी इस हालत के लिए स़िर्फ और स़िर्फ मैं ज़िम्मेदार हूं. वो कार एक्सीडेंट तुम्हारी लापरवाही का नहीं, मेरी बेरुख़ी का नतीजा है. न मैं तुमसे सुबह-सुबह लड़ता और न तुम रोकर घर से निकलती. तुम नहीं जानती शिखा, तुम्हें खोने के एहसास ने मुझे किस क़दर झकझोर कर रख दिया था. अगर तुम्हें कुछ हो जाता, तो शायद मैं ख़ुद को कभी माफ़ न कर पाता. माफी के क़ाबिल तो मैं अब भी नहीं हूं, लेकिन तुम साथ हो, तो कम से कम अपने पापों का पश्चाताप तो कर सकूंगा.
मैं जानता हूं, मेरे साथ अपने रिश्ते और इस घर को बनाए, बसाए रखने के लिए तुमने क्या कुछ नहीं किया है. तुम मेरी तमाम ज़्यादतियों इस आस में बर्दाश्त करती रही कि एक दिन सब ठीक हो जाएगा, लेकिन मैंने ऐसा कभी नहीं होने दिया. तुम मुझे समझाती रही और मैं तुम्हारी बातों को हवा में उड़ाता रहा.
जिस दिन से तुमसे मेरा रिश्ता तय हुआ, उसी दिन से तुमने मेरी ज़िम्मेदारियों का बोझ उठा लिया था और ये सिलसिला आज भी जारी है. मैं इस शहर में अकेला रहता था, इसलिए मुझसे रिश्ता जुड़ते ही तुम मेरा परिवार बन गई. तुम नौकरी कर रही थी और मैं नौकरी के साथ-साथ एमबीए भी कर रहा था. ऐसे में जब भी हम घर से बाहर मिलते, तो होटल का बिल, फिल्म का टिकट, यहां तक कि मेरी शॉपिंग का बिल भी तुम ही चुकाती. मैं मना करता, तो तुम कहती, ''मैं क्या आपसे अलग हूं? अभी आप पर घर का किराया, खाने-पीने की व्यवस्था, कॉलेज की फीस... बहुत सारी ज़िम्मेदारियां हैं, इसलिए मुझे ख़र्च करने दो.'' फिर तुम अपनी प्यारी-सी मुस्कान बिखेरते हुए अपने मज़ाकिया अंदाज़ में कहती, ''जब आपका करियर सैटल हो जाएगा, तब मैं आपसे बड़ी-बड़ी फरमाइशें करूंगी. तब ना कैसे करोगे जनाब?''
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तुम्हारा ये अपनापन मुझे भीतर तक भिगो देता और मैं तुम्हें अपनी बांहों में भर लेता.
सच, कितने हसीन सपने बुने थे तुमने हमारे भविष्य के लिए. मेरे प्रति तुम्हारा समर्पण पहले दिन से शत-प्रतिशत था, मैं ही तुम्हारी बराबरी नहीं कर सका. ऐसा नहीं था कि मैं तुम्हारे प्यार और त्याग को नहीं समझता था, बल्कि मैं तो तुम्हारी झोली ख़ुशियों से भर देना चाहता था, दुनिया की हर ख़ुशी तुम्हारे क़दमों में लाकर रख देना चाहता था, लेकिन मैं उतना काबिल कभी न बन सका जैसा तुम चाहती थी, शायद इसके लिए मैंने कोशिश भी नहीं की. दरअसल, तुम मुझे ऐसे कंफर्ट ज़ोन में ले आई थी, जहां मैं ख़ुद को बेहद सुरक्षित महसूस कर रहा था. तुमने मुझे कभी किसी चीज़ की कमी महसूस नहीं होने दी, इसलिए मैं आरामपरस्त हो गया. स़िर्फ अपने सुख, अपने ऐशो-आराम तक सीमित रह गया.
तुम हर जगह मुझे पैसों की मदद करती रही, ताकि मैं कभी अभाव महसूस न करूं और पूरा ध्यान अपने करियर व पढ़ाई पर लगा सकूं. शादी के बाद भी तुम मेरी पढ़ाई का ख़र्च उठाती रही, ताकि मुझे प्रमोशन मिले और हमारी गृहस्थी अच्छी तरह चल सके, लेकिन मुझे अब तुम्हारे पैसों की आदत पड़ गई थी. मेरे मुंह में जैसे खून लग गया था. अब मुझे हर समस्या का समाधान तुममे नज़र आने लगा था. जाने-अनजाने मैंने ख़ुद को लालची और आलसी बना दिया था. मेरी ख़ुशी के लिए तुम घर-बाहर की तमाम ज़िम्मेदारियां ख़ुशी-ख़ुशी उठाती रही.
हां, प्रत्युषा के जन्म के बाद तुमने पहली बार कहा था, ''शिखर, अब मैं नौकरी नहीं करना चाहती, अपनी बेटी के साथ रहना चाहती हूं, उसकी अच्छी परवरिश करना चाहती हूं.''
उस दिन पहली बार मेरा लालची मन बेचैन हुआ था. अंदर तक कांप गया था मैं तुम्हारी बातें सुनकर, लेकिन मैंने तुम पर कुछ भी जाहिर नहीं होने दिया. उस समय तो मैंने तुम्हारी हां में हां मिला दी, लेकिन अगले पल से ही मेरा लालची मन इस जुगाड़ में जुट गया कि कैसे तुम्हें फिर से नौकरी पर भेजा जाए, ताकि मैं घर की जिम्मेदारियों से मुक्त हो सकूं.
तुम कोई फैसला लेती, इससे पहले ही मैंने मां को कानपुर फोन किया और उनसे अनुरोध किया कि कुछ समय के लिए मेरी गृहस्थी संभालने आ जाएं. छोटी बहन की बीएससी फाइनल ईयर की परीक्षा होनेवाली थी, इसलिए मां ने आने में असमर्थता जताई, तो मैं फोन पर ही रो पड़ा. मैंने मां से कहा, ''मां, शिखा जॉब छोड़ना चाहती है. तुम तो जानती हो, मेरे सिर पर बैंक का कितना लोन है, मेरी पास सरकारी नौकरी भी नहीं है, जिसके भरोसे मैं निश्चिंत हो सकूं. प्राइवेट नौकरी का क्या है? एक ग़लती हुई नहीं कि नौकरी हाथ से जा सकती है. यदि शिखा ने नौकरी छोड़ दी, तो मुझ पर बहुत प्रेशर आ जाएगा. मुंबई जैसे शहर में एक आदमी की कमाई से घर कहां चलता है?''
मेरी स्थिति पर मां पसीज गईं और छोटी बहन को मंझधार में छोड़ कुछ समय के लिए मेरी गृहस्थी संभालने मेरे पास आ गईं. मैंने मां को समझा दिया कि वो शिखा को न बताएं कि मैंने उन्हें यहां बुलाया है. साथ ही शिखा से ये कहने को भी कहा कि वो नौकरी न छोड़े, मां प्रत्युषा की देखभाल कर लेंगी.
लेकिन तुम मेरा षडयंत्र शायद भांप गई थी. तुमने मुझसे कुछ कहा नहीं, लेकिन तुम्हारा मौन चीख-चीखकर अपना दर्द बयां कर रहा था. अंतरंग पलों में भी तुम मेरे पास, मेरी बांहों में तो होती, लेकिन मात्र एक शरीर के रूप में. मेरी शिखा ने शायद उसी दिन दम तोड़ दिया था, जिस दिन मैंने उसे उसकी बच्ची से अलग किया और उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उस पर अपनी ज़िम्मेदारियों का बोझ डाला. जिस शिखर को तुमने ऊंचाइयों के शिखर पर देखना चाहा, वो तुम्हारी कमाई और तुम्हारे शरीर का भोगी बनकर रह गया था शिखा. उसने तुम में अपना कंफर्ट ज़ोन ढूंढ़ लिया था. मेरे संघर्ष के दिनों में तुम मेरा सहारा क्या बनी, मैं तुम पर आश्रित होकर जैसे निश्चिंत हो गया. जैसे मैंने तय कर लिया कि आगे का जीवन तुम्हारे भरोसे ही काटना है. घर-परिवार, बैंक, पैसा, पड़ोसी, नाते-रिश्तेदार... एक-एक कर मैं सारी ज़िम्मेदारियां तुम पर थोपता चला गया.
प्रत्युषा के स्कूल में पैरेंट्स-टीचर मीटिंग होती, तो मैं जान-बूझकर ऑफिस की मीटिंग का बहाना बनाकर घर से जल्दी निकल जाता. घर में मां या करीबी रिश्तेदार कुछ दिन रहने आते, तो मैं जान-बूझकर ऑफिस से लेट आता, ताकि तुम सब संभाल लो, मुझ तक कोई बात न आए. मैं इस क़दर स्वार्थी हो गया था कि बेटी के बीमार होने पर भी छुट्टी लेने से साफ़ मना कर देता था. तुम्हें अकेले खटते देखकर भी मेरा कठोर मन कभी न पसीजता.
तुम हर साल कहती, ''इस बार गर्मी में लंबी छुट्टी लूंगी, हम कहीं घूमने चलेंगे. ऐसा न कर सके, तो मैं घर पर प्रत्युषा के साथ रहूंगी. शाम को जब आप घर आओगे, तो साथ बैठकर चाय पीएंगे और ख़ूब सारी बातें करेंगे, जैसे शादी से पहले किया करते थे...'' तुम कितने अरमान से अपनी भावनाएं व्यक्त करती थी, लेकिन मेरा लालची मन तुरंत केलक्युलेट करने लग जाता कि तुम्हारी छुट्टियों से मेरा कितना नुक़सान हो जाएगा.
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मुझे माफ़ करना शिखा, तुम मुझे हमेशा सपोर्ट करती रही, लेकिन मैं उसका इतना आदी हो गया कि तुम्हारी भावनाओं को समझना ही भूल गया. मुझे स़िर्फ अपना सुख, अपना आराम, अपनी सुरक्षा से मतलब था, तुम और प्रत्युषा भी मेरी ही ज़िम्मेदारी हो, इस बात को मैं जानकर भी नज़रअंदाज़ करता रहा.
लेकिन अब नहीं, तुम्हें खोने के एहसास ने मुझे तुम्हारी अहमियत समझा दी है. तुम्हारे बिना मैं एक क़दम भी नहीं चल सकता शिखा. अब मैं तुम्हें वो हर ख़ुशी दूंगा जिसकी तुम हक़दार हो. तुम्हें ऊंचाइयों के उस शिखर तक पहुंचकर दिखाउंगा जहां तुम मुझे देखना चाहती हो. हमारी बच्ची को ऐसी परवरिश दूंगा कि उसे कभी किसी चीज़ की कमी महसूस नहीं होगी. शिखा, अब मैं वैसा बनना चाहता हूं जैसा तुम चाहती हो. यदि मैं ऐसा कर सका, तो यही मेरा प्रायश्चित होगा.
मैं माफ़ी के क़ाबिल तो नहीं शिखा, फिर भी हो सके तो मुझे माफ़ कर देना.
तुम्हारा,
शिखर
पत्र पढ़ते-पढ़ते शिखा की आंखें भी छलक पड़ीं. वर्षों का गुबार आज आंसुओं के रास्ते बह चला था. शिखर नाश्ता लिए कब से उसके पास बैठे थे. उन्होंने शिखा को रोका नहीं, क्योंकि वो जानते थे कि आंसुओं का ये सैलाब अपने साथ तमाम कड़ुवे अनुभव बहा ले जाएगा और फिर उनके जीवन में एक नया सवेरा होगा, जो बहुत सुहाना होगा.
कमला बडोनी
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