“बच्चे की देखभाल का काम अब मम्मी-पापा या आया के बस का नहीं है संदीप. मां की जगह तो कोई नहीं ले सकता है. भला बच्चे के रहते मैं घर और ऑफिस दोनों में सामंजस्य कैसे बैठा पाऊंगी? मैं दोनों के साथ न्याय नहीं कर पाऊंगी.” श्रुति ने अपनी मजबूरी जताई.
डिंग-डांग, डिंग-डांग... डोरबेल बजती ही जा रही थी. श्रुति नींद में से उठकर झल्लाती हुई बाहर आई. दरवाज़ा खोला, तो पोस्टमैन सामने खड़ा था. अनमनी-सी उसने डाक ली और
खोलकर देखने लगी. डाक देखते ही उसके मुंह से ‘वाह!’ निकला. कंपनी के मैनेजर के जिस जॉब के लिए उसने इंटरव्यू दिया था, उसके लिए वो सिलेक्ट हो गई थी.
श्रुति ने ख़ुशी-ख़ुशी संदीप को फोन मिलाया और सिलेक्शन के बारे में बताया. उसने मम्मी-पापा, सास-ससुर, भाई-बहन, सहेलियों- सभी को सूचना दे दी और शाम को घर पर पार्टी का प्रोग्राम बन गया. सभी उससे दावत जो चाह रहे थे.
पहले इंटरव्यू में ही श्रुति ने इतनी बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी पा ली थी. यह बड़े गर्व की बात थी. शादी को चार-पांच महीने ही हुए थे. श्रुति की इच्छा काम करने की थी, सो उसने संदीप को पहले ही बता दिया था. संदीप भी चाहता था कि बीवी काम करे. अपने घर में इकलौता था संदीप और श्रुति जैसी ख़ूबसूरत और बुद्धिमान पत्नी पाकर बहुत खुश था. घर के साज-संभाल से लेकर मम्मी-पापा की देखभाल, लज़ीज़ खाना बनाने तक सब कुछ श्रुति ने अच्छी तरह से संभाल रखा था.
मां तो श्रुति की अक्सर तारीफ़ ही करती रहती. आज के ज़माने में इकलौते बेटे के लिए अच्छी बहू मिल जाए, तो पैरेंट्स मानो घर बैठे गंगा नहा लेते हैं. संदीप के माता-पिता बहुत ख़ुश थे. बस, अब उन्हें इंतज़ार था दादा-दादी बनने का, लेकिन श्रुति अभी इसके लिए तैयार नहीं थी.
संदीप भी नई-नई शादी के इस मोह को ज़िम्मेदारियों से लादना नहीं चाहता था.
दोनों की गृहस्थी अच्छी चल रही थी. श्रुति को नया काम पसंद आ रहा था. ऑफिस में सभी उसकी योग्यता के कायल हो गए थे. अपने मृदु स्वभाव और व्यवहारकुशलता से श्रुति ने सभी का दिल जीत लिया था. संदीप श्रुति के साथ बहुत ख़ुश था.
दोनों सुबह ऑफिस साथ जाते थे. शाम को साथ ही आते भी थे. कुछ ही महीनों में श्रुति ने अपनी कार ख़रीद ली. अब मम्मी-पापा को कहीं ले जाना होता, तो वही ले जाती थी.
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घर के काम में तो श्रुति परफेक्ट थी ही, अब वो बाहर के काम भी करने लगी थी. वीकेंड पर दोनों अक्सर शहर से दूर किसी रिसॉर्ट पर घूम आते थे. संदीप ने पहली एनीवर्सरी पर बच्चा प्लान करने की ज़िद श्रुति से की, तो उसने ‘बहुत जल्दी है’ कहकर टाल दिया. मम्मी-पापा जब भी श्रुति के मां बनने की इच्छा जताते, तो वो हंसकर टाल देती. श्रुति कोई ऐसी बात ही नहीं करती थी कि किसी को शिकायत हो, लिहाज़ा मम्मी-पापा ज़्यादा बोल नहीं पाते.
संदीप-श्रुति की शादी को अब पांच बरस होने को आए थे. दोनों अभी भी ‘जस्ट मैरिड’ कपल ही लगते थे. बस, लोग इनके विवाह की अवधि और संतान न हो पाने को सवालिया नज़रों से देखने लगे थे अब. एक-दो दोस्तों ने तो संदीप से पूछ भी लिया कि बाप बनने की पार्टी कब देगा. कब तक मैरिज एनीवर्सरी पर ही बुलाता रहेगा.
संदीप थोड़ा चिंतित हो उठा. उसने उसी रात श्रुति से बात करने की सोची. “श्रुति आज पार्टी में सभी दोस्त पूछ रहे थे कि बाप बनने की पार्टी कब दे रहा है. सच, अब तो मेरा भी मन करता है कि कोई मुझे डैडी कहे, अपनी छोटी-छोटी उंगलियों से मेरा हाथ पकड़े.” संदीप ने श्रुति को प्यार से निहारते हुए कहा.
“मन तो मेरा भी बहुत करता है.” श्रुति ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया. “पर सोचती हूं कि एक प्रमोशन और ले लूं. काम थोड़ा कम हो जाए, फिर बच्चे की देखभाल अच्छे से कर पाऊंगी.”
“पर दोनों साथ-साथ भी तो चल सकते हैं. घर पर मम्मी-पापा तो हैं ना, वो देख लेंगे बच्चे को. फिर हम आया भी रख सकते हैं. कहीं कोई कमी तो है नहीं.” संदीप ने समझाते हुए कहा.
“बच्चे की देखभाल का काम अब मम्मी-पापा या आया के बस का नहीं है संदीप. मां की जगह तो कोई नहीं ले सकता है. बच्चे के रहते मैं घर और ऑफिस दोनों में सामंजस्य कैसे बैठा पाऊंगी?” श्रुति ने अपनी मजबूरी जताई.
“श्रुति, सभी वर्किंग कपल्स के बच्चे होते हैं. सब कुछ मैनेज हो जाता है. अब तो मम्मी-पापा ने टोकना भी बंद कर दिया है.” संदीप नाराज़गी भरे स्वर में बोला.
श्रुति ने संदीप के गले में बांहें डाल दीं और इस बातचीत को विराम देते हुए सोने का आग्रह किया. अगले दिन सुबह ऑफिस के लिए तैयार होते हुए संदीप ने श्रुति की आंखों में झांकते हुए पूछा, “हमारे प्रपोज़ल का क्या हुआ भई?”
“अरे, अभी भी वहीं अटके हो!” श्रुति हैरान थी. दोनों हंस पड़े और अपने-अपने ऑफिस को निकल गए. श्रुति अच्छी पोस्ट मिलते ही थोड़ी महत्वाकांक्षी हो गई थी. नौकरी के कारण ही उच्च प्रतिष्ठित वर्ग में उठना-बैठना, कंपनी की तरफ़ से देश-विदेश जाना, हाई प्रोफाइल लोगों से मेल-मिलाप आदि बातें हो रही थीं. ऐसे में मां बनने पर उसे छुट्टी लेनी पड़ती और कंपनी यक़ीनन उसके काम को किसी अन्य को सौंप देती, इसलिए मां बनने के अपने निर्णय को टालती ही जा रही थी.
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उस दिन मम्मी को हार्ट अटैक आ गया. तुरंत हॉस्पिटल में एडमिट किया गया और समय पर इलाज भी हो गया, लेकिन संदीप-श्रुति घबरा से गए थे. पापा भी गुमसुम ही थे. हॉस्पिटल में बीमारी के समय मम्मी ने यह कहते हुए कि ‘मरने से पहले पोते-पोती का मुंह देख लूं, बस यही इच्छा रह गई है’ कहकर श्रुति को मां बनने के लिए बाध्य कर दिया.
संदीप-श्रुति ने बच्चा कंसीव करने की प्लानिंग कर ली. इसके लिए वे गायनाकोलॉजिस्ट के पास गए. लेडी डॉक्टर ने श्रुति का पूरी तरह से चेकअप करने के बाद कुछ और जांच करवाने के लिए कहा. तीन दिन बाद दोनों डॉक्टर के पास रिपोर्ट के साथ थे. रिपोर्ट देखने के बाद डॉक्टर ने गंभीरता से कहना शुरू किया, “सॉरी संदीपजी, आप दोनों के कुछ प्रॉब्लम्स डिटेक्ट हुए हैं. दरअसल, बढ़ती उम्र में कंसीव करने की संभावनाएं कम होती जाती हैं. कॉम्प्लीकेशन्स का भी डर लगा रहता है. शादी के इतने साल गुज़र जाने के बाद भी आप दोनों ने कोई चांस नहीं लिया, इसलिए इंफर्टिलिटी की समस्या हो गई है.” डॉक्टर कहती जा रही थी और श्रुति स्तब्ध-सी बैठी रही.
“आजकल के वर्किंग कपल्स आज़ादी में खलल, बच्चे को संभालनेवाला कोई न होना, करियर में ऊंचाई अचीव करना या ख़र्चों आदि से बचने का सहज उपाय लेट प्रेग्नेंसी को मानते हैं, जो मेडिकली ग़लत है. पैरेंट्स बनने की सही उम्र इक्कीस से चौबीस-पच्चीस है और तीस के बाद तो कई कॉम्प्लीकेशन्स हो जाते हैं. प्रकृति के भी कुछ नियम हैं. मेडिकल साइंस चाहे कितनी भी तऱक्क़ी कर ले, यदि हम प्रकृति के विरुद्ध काम करेंगे, तो नुक़सान ही उठाएंगे.” इतनी-सी भूल की इतनी बड़ी सज़ा! संदीप भी परेशान था. डॉक्टर की आवाज़ भी उसे अब सुनाई नहीं दे रही थी.
श्रुति डॉक्टर के चेंबर में ही फफक-फफककर रोने लगी. श्रुति सोचने लगी कि आख़िर इतनी बड़ी ग़लती उससे कैसे हो गई? मां बनने की नैसर्गिक उम्र को उसने भी तो टाला था, पर अब क्या हो सकता था. उसे अपराधबोध हो रहा था कि वो कितनी स्वार्थी हो गई थी. स़िर्फ अपने बारे में सोचती रही. मम्मी-पापा और संदीप किसी की भी भावना की उसने परवाह नहीं की, यहां तक कि अपने मम्मी-पापा की भी उसने कहां सुनी थी?
श्रुति को अपनी वो सारी सहेलियां याद आ रही थीं, जिन्होंने जॉब करते हुए संतानों को जन्म दिया और उनकी परवरिश की. उनमें कहीं भी संस्कारों की कमी न थी, न ही जॉब में उन सहेलियों ने कुछ गंवाया था. श्रुति को अब लगने लगा था कि नौकरी करते हुए भी बच्चे की अच्छी परवरिश की जा सकती है. बस, ज़रूरत है घरवालों के सहयोग की, टाइम मैनेजमेंट की और क्वालिटी टाइम बच्चों के साथ बिताने की, पर अब पछताने से क्या होनेवाला था.
अगली सुबह फोन की घंटी बजी. श्रुति ने फोन उठाया. फोन पर उसकी गायनाकोलॉजिस्ट थी. “आपका इलाज संभव है. मैंने दोबारा से रिपोर्ट्स देखी हैं.” श्रुति में मानो नवजीवन का संचार हुआ. वो जल्दी से डॉक्टर के पास जाने के लिए तैयार होने लगी. उसने ठान लिया था कि इस बार वो प्रकृति के विरुद्ध नहीं जाएगी.
पूनम मेहता
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