अंकित मेरे मंतव्य को समझ तुरंत बोला, “मैं पापा के दायित्व को अपनी विवशता नहीं, बल्कि अपना फ़र्ज़ समझता हूं. वह इंडिया में होता, तब भी मैं अपने फ़र्ज़ से पीछे नहीं हटता. एक बात बताओ, जब स्त्री के लिए सास-ससुर की सेवा करना उसका कर्त्तव्य है, तो पुरुष के लिए क्यों नहीं? हर बात की अपेक्षा स्त्री से ही क्यों की जाती है, पुरुष से क्यों नहीं?”“यह तुम्हारा बड़प्पन है, जो ऐसा सोचते हो, अन्यथा आज भी लोग पुरानी मान्यताओं से ही जुड़े हुए हैं कि माता-पिता की देखभाल बेटे करते हैं, न कि बेटियां.” मैं बोला.
वार्तालाप के दौरान मैं अपने मन की उथल-पुथल रोक न सका और पूछ बैठा, “अंकित, बुरा न मानो, तो एक बात पूछूं? श्रुति क्या गुप्ताजी की इकलौती संतान है, कोई भाई नहीं है?”
“एक भाई है, जो लंदन में रहता है.” अंकित ने बताया.
“ओह! इसीलिए यह दायित्व तुम उठा रहे हो.” मेरे लहज़े में सहानुभूति का पुट था.
अंकित मेरे मंतव्य को समझ तुरंत बोला, “मैं पापा के दायित्व को अपनी विवशता नहीं, बल्कि अपना फ़र्ज़ समझता हूं. वह इंडिया में होता, तब भी मैं अपने फ़र्ज़ से पीछे नहीं हटता. एक बात बताओ, जब स्त्री के लिए सास-ससुर की सेवा करना उसका कर्त्तव्य है, तो पुरुष के लिए क्यों नहीं? हर बात की अपेक्षा स्त्री से ही क्यों की जाती है, पुरुष से क्यों नहीं?”
“यह तुम्हारा बड़प्पन है, जो ऐसा सोचते हो, अन्यथा आज भी लोग पुरानी मान्यताओं से ही जुड़े हुए हैं कि माता-पिता की देखभाल बेटे करते हैं, न कि बेटियां.” मैं बोला.
“हम लोग पढ़े-लिखे हैं राजीव! हम ही इन वर्जनाओं को नहीं तोड़ेंगे, तो फिर कौन तोड़ेगा? मैं तो एक सीधी-सी बात जानता हूं. यदि हम वास्तव में अपने जीवनसाथी को प्यार करते हैं, तो उसकी भावनाओं का, उससे जुड़े हर रिश्ते का हमें उतना ही सम्मान करना चाहिए, जितनी हम उससे अपने लिए अपेक्षा रखते हैं.” श्रुति भी अब तक चाय लेकर आ चुकी थी. वह बोली, “भैया, लोग अपने कंफर्ट के हिसाब से मापदंड बना लेते हैं. पुरानी मान्यताओं के अनुसार माता-पिता की संपत्ति पर स़िर्फ बेटे का हक़ होता था, पर अब तो बेटियां भी बराबर की हिस्सेदार होती हैं. फिर दायित्व उठाने से गुरेज़ क्यों? बेटा हो या बेटी, हर बच्चा अपने दायित्वों को समझे, तो वृद्धाश्रमों की आवश्यकता ही न पड़े.”
अंकित और श्रुति की बातों ने सीधे मेरे हृदय पर चोट की. ऐसा लगा मानो वे मुझे आईना दिखा रहे हों. अपनी अवधारणा पर मुझे प्रश्नचिह्न लगा दिखाई दे रहा था. आज तक मित्रों के बीच बैठकर बड़ी-बड़ी बातें किया करता था. नारी के
अधिकारों और समानताओं पर लेक्चर दिया करता था.
आज समझ में आया, मेरी कथनी और करनी में कितना बड़ा अंतर था.
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क्या मैं वास्तव में अनु को हृदय की गहराइयों से प्रेम करता हूं? यदि हां, फिर क्यों नहीं उसकी भावनाओं को महसूस कर सका? उसके प्रेम में समर्पण था, कर्त्तव्यों में आस्था थी. जिस समय मेरा विवाह हुआ था, पापा का किडनी का इलाज चल रहा था. वह डायलिसिस पर थे. साल भी पूरा नहीं हुआ और उनका स्वर्गवास हो गया था. पापा के चले जाने से मां एकदम टूट-सी गई थीं. अनु ने उनके दर्द को समझा. उनके अकेलेपन को बांटने का यथा सम्भव प्रयास किया और इसके लिए उसने अपनी जॉब भी छोड़ दी. उसके शब्द आज भी मेरी स्मृति में अंकित हैं. उसने कहा था, ‘राजीव, जॉब का क्या है, वह तो मुझे बाद में भी मिल जाएगी, लेकिन इस समय मां का अकेलापन उन्हें डिप्रेशन में डाल सकता है.”
और आज जब बारी मेरी है, तो इन तथाकथित वर्जनाओं का सहारा लेकर मैं अपने कर्त्तव्य से पीछे भाग रहा हूं. मेरा मन पश्चाताप से भर उठा. अनु को मनाकर घर वापस बुलाने के लिए हृदय छटपटाने लगा. किंतु किस मुंह से वहां जाऊं? सब कुछ जान लेने के बाद क्या उसकी मम्मी अब यहां आने के लिए सहमत होगी? क्या सोचती होंगी वह मेरे बारे में? उन्होंने मुझे इतनी ममता दी, और मैंने...
वह पूरी रात आंखों में ही कट गई. अगली सुबह मुंह अंधेरे ही मेरे मोबाइल की घंटी बज गई. “हैलो!” मैं बोला. दूसरी ओर से मेरे मित्र पंकज की आवाज़ आई, “हैप्पी एनीवर्सरी.”
“ओह थैंक्यू!” तभी उसकी पत्नी अर्चना चहकी, “हैप्पी एनीवर्सरी भैया. अनु कहां है? उसे फोन दीजिए.”
“अनु अभी सो रही है.” मैंने झूठ का सहारा लिया.
“ठीक है, हम चारों दोस्त रात में तुम्हारे घर आ रहे हैं. डिनर वहीं करेंगे.”
“किंतु...?
“किंतु... परंतु... कुछ नहीं, अनु के हाथ का खाना खाए काफ़ी दिन हो गए.” पंकज ने साधिकार कहकर फोन रख दिया.
मैं दुविधा में फंस गया. अब क्या करूं? अनु को बुलाना पड़ेगा, अन्यथा हमारे झगड़े के बारे में सभी जान जाएंगे. हिचकिचाते हुए मैंने उसे फोन मिलाया. दूसरी ओर से उसकी आवाज़ आते ही मैं बोला, “कैसी हो अनु?”
“ठीक हूं.” उसने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया.
“मम्मी कैसी हैं?” मैंने पूछा. दूसरी ओर लंबी ख़ामोशी छा गई.
रेनू मंडल
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