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बेटा नहीं, बेटी कहो

क्या मेरा शृंगार मेरी कमज़ोरी है? हाथों की चूड़ियां ज़ंजीर हैं जैसे कोई, पैरों की पायल बेड़ियां हो गईं शायद... माथे की बिंदी ने लाजवंती बना दिया या कानों की बाली ने दासी बना दिया...? मेरी ख़ूबसूरती के सारे प्रतीक मेरी कमज़ोरी की निशानी कब, क्यों और आख़िर कैसे बना दिए गए? मेरा बेटी होना ही क्या मेरा कमज़ोर होना है? आज जब मैं एक बेटी होकर भी घर की सारी ज़िम्मेदारियां पूरी करती हूं, तो क्यों तारीफ़ के नाम पर बार-बार यही सुनने को मिलता है कि ये हमारी बेटी नहीं, बेटा है? जी हां, आज भी अक्सर हम अपने घरों या आसपास में इस तरह की बातें सुनते हैं, लेकिन ये तमाम बातें मन में एक सोच को ज़रूर जन्म देती हैं कि बेटी को बेटी ही क्यों नहीं रहने दिया जाता, अगर वो मज़बूत इरादोंवाली और ज़िम्मेदारियां उठानेवाली है, तो उसकी तुलना बेटों से की जाने लगती है. इन्हीं सवालों पर हम चर्चा करेंगे, शायद किसी अंजाम तक पहुंच जाएं... कारण 1 पारंपरिक सोच: चूंकि हमारे समाज में बेटों को घर का मुखिया मानकर हर काम की ज़िम्मेदारी की उम्मीद उनसे ही की जाती है, तो ऐसे में बेटी यदि इन कामों को करे, तो हम उसे बेटे जैसा मानते हैं, क्योंकि समाज में यह सोच नहीं बन पाई है अब तक कि बेटियों की भी ज़िम्मेदारियां होती हैं घर के प्रति. दूसरी तरफ़ बेटा शब्द हमें आज भी गौरवान्वित कर जाता है, जिस गर्व से समाज में ‘बेटा’ शब्द बोला जाता है, वो गर्व ‘बेटी’ शब्द के प्रति नहीं जुड़ा है. दरअसल, बात स़िर्फ शब्द की नहीं, इसकी जड़ हमारी सोच से जुड़ी हुई है. हमारी पारंपरिक सोच यही है कि बेटा वंश चलाता है, बेटा परिवार चलाता है, बेटा बुढ़ापे का सहारा है... जबकि आज की बेटियों ने इन तमाम दकियानूसी ख़्यालात को ग़लत साबित कर दिखाया है, लेकिन उसके हक़ की इज़्ज़त आज भी उसे नहीं मिल रही, क्योंकि जो भी बेटियां इस तरह की तमाम ज़िम्मेदारियां निभाती हैं, उन्हें बेटे की ही उपाधि से नवाज़ा जाता है. कैज़ुअल अप्रोच: हमारा पारिवारिक ढांचा अब भी ऐसा है कि बेटियों से हम ज़्यादा उम्मीदें नहीं लगाते. इसलिए वो जो भी करती हैं, हमें ‘एक्स्ट्रा’ ही लगता है. उनके प्रति बहुत ही कैज़ुअल अप्रोच रखते हैं कि बेचारी लड़की होकर आख़िर कितना करेगी और क्यों करेगी? पराया धन: आज भी बेटियों को हम घर का एक स्थायी सदस्य न मानकर पराया धन ही मानते हैं. उसे बोझ या ज़िम्मेदारी ही समझते हैं. यदि वो घर के प्रति या अपने पैरेंट्स के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वाह करती है, तो हमें लगता है कि वह बेटों की भूमिका निभा रही है. नज़ाकत का प्रतीक: चूंकि लड़कियां शरीर से नाज़ुक होती हैं, तो उनकी नज़ाकत को कमज़ोरी से जोड़कर देखा जाता है. यही वजह है कि बेटियां जब भी कोई अच्छा व ज़िम्मेदारी का काम करती हैं, तो कहा जाता है कि यह बेटी नहीं, बेटा है घर का यानी बेटा अपने आप में मज़बूती व ज़िम्मेदारी का प्रतीक बन गया और बेटी कमज़ोरी का. समाज का नज़रिया: भारतीय समाज ही नहीं, कई अन्य देशों व समाजों में भी महिलाओं को कमज़ोर आंका जाता है. उन्हें सजावट या उपभोग की वस्तु मात्र समझा जाता है. ऐसे में वहां जब लड़कियां कुछ अलग कर दिखाती हैं, तो वो दुनिया के लिए बड़ी ख़बर बन जाती है. शायद इन जुमलों को अब बदलने का व़क्त आ गया है- - अरे, क्या लड़कियों की तरह रो रहा है... तू तो मर्द है, लड़का होकर आंसू बहाना तुझे शोभा नहीं देता. अक्सर ये जुमला हम अपने आसपास व घरों में भी सुनते आ रहे हैं. जब भी कोई लड़का रोता है, भले ही वो बच्चा ही क्यों न हो, तो ख़ुद मां या उसकी बड़ी बहन के मुंह से पहला वाक्य यही निकलता है- क्या लड़कियों की तरह रो रहा है. स्ट्रॉन्ग बन. - अगर तुमसे यह काम नहीं होता, तो हाथों में चूड़ियां पहन लो... चूड़ियां, जो नारी का शृंगार होती हैं. उसके सौंदर्य का प्रतीक होती हैं, उन्हें भी कमज़ोरी की निशानी के तौर पर देखा जाता है. अगर कोई पुरुष किसी काम में कमज़ोर पड़ जाए या फिर उसे ललकारना हो, तो स्वयं महिलाएं भी यह बोलती मिलती हैं कि यह तुम्हारे बस की बात नहीं, तुम चूड़ियां पहन लो... यह भी पढ़ें: ह्यूमन ट्रैफिकिंग…शारीरिक शोषण और देह व्यापार मानव तस्करी का अमानवीय व्यापार…! - ये लड़कों वाले काम तुम क्यों कर रही हो? जब भी कोई शारीरिक मेहनत का काम हो और कोई लड़की उसे करती नज़र आए, तो अक्सर यही कहा जाता है कि ये लड़कोंवाले काम हैं, तुम्हें ये सब करना शोभा नहीं देता. शायद अब व़क्त आ गया है कि हमें ख़ुद थोड़ा सतर्क रहना होगा अपने शब्दों के चयन में और अपने व्यवहार में, ताकि अंजाने ही सही, लेकिन इस तरह के भेदभाव के बीज, जो हम बचपन से अपनी संतानों के मन में बोते आ रहे हैं, उनसे वो बच सकें. वक्त बदल रहा है   4 - वक्त, समाज की सोच और लोगों का नज़रिया भी अब बदल रहा है. कई ऐसे काम हैं, जहां पहले महिलाओं का दख़ल तक नहीं था, जो स़िर्फ पुरुषों के ही माने जाते थे, वहां भी अब बेटियां अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रही हैं और इतना ही नहीं, अपने अच्छे काम से सबकी वाहवाही भी लूट रही हैं. - सेना में अब तक महिलाओं की भूमिका सीमित थी, लेकिन अब उन्हें भी पूरा मौक़ा मिलेगा. सबसे बड़ी बात कि भारतीय वायुसेना में अब महिला फाइटर पायलेट्स को भी जगह मिलेगी यानी महिलाएं अब फाइटर प्लेन उड़ा सकेंगी. - अब लोग समझने लगे हैं कि कोमल और कमज़ोर दो अलग-अलग शब्द हैं और बेटियां भले ही कोमल हों, पर कमज़ोर बिल्कुल नहीं हैं. इसलिए हर बेटी अब यही कहना चाहती है कि प्लीज़ हमें बेटा नहीं, बेटी कहो. एक्सपर्ट ओपिनियन इस विषय में हमने बात की सायकोथेरेपिस्ट डॉ. चित्रा मुंशी से- - दरअसल, समाज की प्रवृत्ति सदियों से ऐसी ही बनी हुई है, ख़ासतौर से अगर हम पूर्वी देशों की बात करें, तो हमारे समाज में लिंग के आधार पर भूमिकाएं अधिक बंटी हुई हैं, बजाय रिश्तों के आधार पर. -  पुरुषों को रोटी कमानेवाला यानी ब्रेड अर्नर माना जाता है. ऐसे में जिन परिवारों में ये भूमिका बेटों की जगह बेटियां निभाती हैं, वहां इसके साथ एक गिल्ट यानी अपराधबोध जुड़ जाता है. लेकिन यहां सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि यह निर्णय कौन लेता है कि ये काम किसका है और किसका नहीं? - यहां समाज की प्रचलित मान्यताओं को ही हम आधार बना लेते हैं, जैसे- 10 में से 8 लोग यही सोच रखते हैं कि यह काम बेटों का है और दो लोग इसमें भेदभाव नहीं करते, तो हम 8 लोगों को आधार बना लेते हैं, क्योंकि मेजोरिटी यही सोचती है. - इस तरह सायकोसोशल डेवलपमेंट जेंडर डिफरेंस सिखाता है, न कि बायलॉजिकल डिफरेंस. असली फ़र्क़ समाज क्या भूमिका दे रहा है, उसी पर निर्भर करता है और हमारे यहां लड़कियों को केयरटेकर का रोल ही दिया जाता है. उदाहरण के तौर पर- अगर घर में बच्चों को अपनी मातृभाषा बोलनी नहीं आती, तो हर कोई स्त्री से ही सवाल करेगा कि बच्चों को कुछ सिखाया नहीं, कोई भी बच्चों के पिता से नहीं पूछेगा, बल्कि उसके प्रति सहानुभूति व्यक्त करेगा कि ये बेचारा तो दिनभर कमाने में ही लगा रहता है, इसके पास समय ही कहां है. - यहां मैं यह ज़रूर कहना चाहूंगी कि यह अपेक्षा रखना कि समाज जल्द ही बदल जाएगा, ग़लत है, क्योंकि इसमें सदियां लगेंगी, लेकिन जागरूकता ज़रूर फैलाई जा सकती है, क्योंकि यह समाज हम से ही बना है, हम यदि अपने घर से बदलाव की शुरुआत करते हैं और ये जो एक चक्र बना हुआ है, उसे तोड़ते हैं, तो धीरे-धीरे बदलाव संभव है. - चूंकि समय बदल रहा है, तो आज की ज़रूरतें व हमारी भूमिकाएं भी बदल रही हैं. आज हमें उस पारंपरिक चक्र की ज़रूरत नहीं है, जो पहले हुआ करती थी. ऐसे में इस चक्र को बदलना ज़रूरी है. -  हम यह नहीं कह सकते कि सब कुछ एकदम से बदल डालो या परंपराएं तोड़ दो, लेकिन हमें इस प्रवाह की दिशा को मोड़ना होगा और न स़िर्फ मोड़ना होगा, बल्कि लगातार इसका फॉलोअप करना होगा कि क्या सच में अपने स्तर पर, अपने घरों में व आसपास हम बदलाव लाने का सफल प्रयास कर रहे हैं? - छोटे स्तर पर ये प्रयास होने चाहिए. अगर कोई टीचर है, तो वो अपने विद्यार्थियों को समानता की बात समझा सकता है, अगर कोई लेखक है, तो वो लेखों के ज़रिए जागरूकता ला सकता है. इसी तरह से हम अपने घरों में, अपने रिश्तों व रिश्तों की भूमिकाओं में परिवर्तन ला सकते हैं, ताकि ये भूमिकाएं लिंग के आधार पर न होकर रिश्तों के आधार पर हों.

- गीता शर्मा

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