अनुज को आश्चर्य में छोड़ मनीषा सोच रही थी, ‘तन से और नियम से तो वो सवा महीने बाद शुद्ध होगी, लेकिन उसकी आत्मा का ‘शुद्धिकरण’ आज ही हो गया है.’
रसोई से आ रही आवाज़ से नींद टूटी. अभी 6 ही बजे थे. ‘पता नहीं मौसी को भी इतनी सुबह रसोई में क्या काम रहता है?’ मनीषा अभी उठने के मूड में नहीं थी, लेकिन वो जानती थी कि अभी मौसी आवाज़ें देने लगेंगी, इसलिए खीझते हुए उसे उठना ही पड़ा.
मनीषा और अनुज की शादी को तीन साल हो गए थे. मनीषा मां बननेवाली थी. उसे सातवां महीना चल रहा था, इसलिए उसकी देखभाल के लिए अनुज ने मौसी को विशेष आग्रह से अपने यहां बुलाया था. मनीषा की मां लंदन में छोटे बेटे के पास रह रही थी और उसके परिवार में ऐसा कोई नहीं था, जो ऐसे समय में उसकी देखभाल करता.
अनुज की मां का देहांत 10 साल की उम्र में हो गया था. पिता ने दूसरी शादी नहीं की, लेकिन स्वयं को काम में उलझा लिया था. अनुज को तकलीफ़ न हो, इसलिए उसे अपनी साली अलका के पास भेज दिया. मौसी व मौसा के स्नेह और उनके बच्चे सुधा व वैभव के साथ खेलते हुए अनुज अपने सारे दुख भूल चुका था.
पढ़ाई पूरी कर अपनी योग्यता के बल पर उच्च पद पर आसीन भी हो गया और पिता के पास लौट आया. दोनों पिता-पुत्र बेहद ख़ुश थे, लेकिन छह माह के भीतर उसके पिता का भी देहांत हो गया.
मनीषा से अनुज ने मौसी की सहमति से ही प्रेम-विवाह किया था. मनीषा एक सुलझे विचारों की लड़की थी. उसका स्वभाव भी अच्छा था.
अनुज अपने आनेवाली संतान को लेकर चिंतित था, इसीलिए वह हर पल मौसी को अपने पास रखना चाहता था. वैभव जोधपुर में था और सुधा कानपुर में ब्याही थी. सभी दायित्वों से मुक्त हो अब वे अपने इस बेटे को सहयोग देने के लिए आ पहुंची थीं.
मनीषा आजकल बहुत परेशान रहती थी. कुछ दिनों से दोपहर के समय जब वो सोती तो रसोई से देशी घी और मेवे की ख़ुशबू आती, लेकिन शाम को रसोई में किसी भी चीज़ का नामोनिशान न रहता. वह संकोचवश मौसी से कुछ पूछ भी नहीं पाती थी.
कभी-कभी दोपहर को मौसी बाज़ार जातीं. वे क्या लातीं? कहां रखतीं? न आज तक उन्होंने बताया, न मनीषा ने पूछा.
लेकिन वो जानती थी कि कुछ गड़ब़ड़ ज़रूर चल रहा है. एक दिन अनुज के सामने ही वो मौसी से तपाक से पूछ बैठी, “आज दोपहर में आपने क्या ख़रीदारी की?” मौसी ने जवाब दिया, “सुधा के बच्चे के लिए कुछ सामान लेना था. वही लेने गई थी.” और इस तरह उन्होंने बात को टाल दिया. उसी दिन से मनीषा उनसे चिढ़ने लगी थी.
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एक दिन डॉक्टर के पास से लौटी, तो देखा मौसी स्टोर रूम में थीं. कामवाली ने बताया कोई आदमी आया था, लकड़ी की बात हो रही थी. मनीषा ग़ुस्से से भर उठी. अब घर के सामानों की भी ख़रीद-फ़रोख़्त शुरू कर दी गई है.
‘हे भगवान, मैं क्या करूं?’ इन सब बातों से मनीषा का स्वास्थ्य भी प्रभावित हो रहा था. लेकिन शक का कीड़ा उस पर पूरी तरह से हावी हो चुका था. वह किसी भी तरह मौसी को गांव वापस भेजना चाहती थी.
सबसे पहले उसने एक आया की व्यवस्था की. अब वो मौ़के की तलाश में थी. संजोग से सुधा का फ़ोन आया, जिसे मनीषा ने ही उठाया था. सुधा ने बताया राजीव बाहर गए हैं और उसकी तबियत भी ठीक नहीं है. अगर मां 10-15 दिन के लिए आ सकें तो..?
बस, मनीषा ने इस मुद्दे को इतना बढ़ा दिया कि हम अपने स्वार्थ के लिए मौसी को नहीं रख सकते. सुधा को उनकी ज़रूरत है. इस तरह की कई बातें उसने कह डालीं. एक तीर से दो शिकार हो गए. वो महान भी बन गयी और उसकी समस्या भी सुलझ गयी.
मौसी के जाने के बाद ही आया को देख अनुज कुछ-कुछ समझ गया था, लेकिन बोला कुछ नहीं.
नियत समय पर मनीषा ने एक सुंदर बेटी को जन्म दिया. चार-पांच दिनों में वह घर भी आ गयी. अब आया को रात में भी रुकना था, इसलिए उसे मौसीवाला कमरा साफ़ करने को कहा. वह पास वाले कमरे में आ गयी. अभी उसे और बच्ची को सवा महीने इसी कमरे में रहना था. उसके पश्चात् दोनों की शुद्धि-पूजा तथा बेटी का नामकरण होना था. ये सारे नियम मौसी समझाकर गयी थी, इसलिए अनुज ने वैसी ही व्यवस्था की थी.
मनीषा लेटने जा ही रही थी कि अनुज ने उसे एक लिफ़ाफ़ा दिया और कहा, “मौसी ने दिया था. कहा था जिस दिन तुम घर आ जाओ, उसी दिन तुम्हें दूं.”
इतना कहकर अनुज बाहर चला गया. मनीषा ने लिफ़ाफ़ा खोलकर पत्र पढ़ना शुरू किया.
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प्रिय बेटी मनीषा,
आज तुम मां बन गयी हो, बधाई! मुझे पोता हुआ है या पोती, जो भी है, उसे ढेरों आशीष.
बेटी, मुझे माफ़ करना, मैं तुम्हारे साथ नहीं रह पायी. मैं तो शुद्धि-पूजा के बाद ही जाना चाहती थी, लेकिन सुधा के लिए पहले ही जाना पड़ रहा है.
मेरे कमरे में तुम्हें वो सारी चीज़ें मिल जाएंगी, जिसकी तुम्हें ज़रूरत है. बेटा, ये सारी चीज़ें तुमसे छुपाकर रखनी पड़ी. कहते हैं, जन्म से पहले कुछ ख़रीदारी नहीं करनी चाहिए, इसलिए मैंने सुधा के बच्चे के नाम से ही ये सारी चीज़ें जुटा ली थीं.
तुम्हारे लिए लड्डू बनाकर रखे हैं. डॉक्टर ने गरिष्ठ खाने से मना किया था, इसीलिए चखा भी नहीं पायी. हां, पूजावाले दिन के लिए बच्चे का पालना उसके दादाजी की आरामकुर्सी की लकड़ी से बनवा कर रख दिया है. उसे उसी पालने में डालना, दादाजी का आशीर्वाद भी तो ज़रूरी है! मैंने अनुज को सब बता दिया है. अपना ख़याल रखना. जाना ज़रूरी है, इसलिए जा रही हूं.
तुम्हारी मौसी,
अलका
पत्र समाप्त हो चुका था. आया सिर के पास सारा सामान लेकर खड़ी थी. जनवरी के इस ठंड में भी मनीषा पसीने से लथपथ हो गयी. उफ़! कितने छोटे मन की थी मैं! जो मौसी रात-दिन मेरे और मेरी संतान के लिए सोचती रहीं, उन्हें ही घर से भगाने के लिए मैं हरदम परेशान रही.
तभी अनुज मोबाइल लिए अंदर आए. मौसी का फ़ोन था. औपचारिक बातें हुईं. मनीषा के मुंह से आवाज़ नहीं निकल रही थी. अंत में उसने इतना ही कहा, “जब तक आप नहीं आएंगी, आपकी पोती का नाम नहीं रखा जाएगा. आपको मेरी क़सम, जो मना किया.” मौसी ने हंसकर कहा, “अरे! मैं तो ऐसे ही आ जाती, इसमें क़सम देने की क्या ज़रूरत है?”
अनुज को आश्चर्य में छोड़ मनीषा सोच रही थी, ‘तन से और नियम से तो वो सवा महीने बाद शुद्ध होगी, लेकिन उसकी आत्मा का ‘शुद्धिकरण’ आज ही हो गया है.’
आया के हाथ से मौसी की बनाई रजाई लेकर उसने बिटिया को ओढ़ा दी.
रूपाली भट्टाचार्या
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