“हां धरा, ये सच है, बच्चों को बाहरवालों से उतनी समस्या नहीं होती, जितना कि वह अपने माता-पिता के व्यवहार से आहत होते हैं. उसे हीनभावना से उबारने के लिए तुमने जो रास्ता चुना, उसने उसे और भी गहरे कुंए में धकेल दिया. सच पूछो तो वह बहुत मज़बूत लड़की है. अपने रंग-रूप को लेकर वह उतनी दुखी नहीं है जितनी तुम हो. उसके असामान्य व्यवहार की वजह तुम दोनों हो. अपनी बेटी से पराए जैसा व्यवहार करके तुम लोग उसके गुनहगार बन गए हो. अब हो सके तो उसे दुनिया की नहीं, बल्कि अपनी नज़रों से देखो और उसे प्यार करो स़िर्फ प्यार…’’
“ऐसा करते हैं, मैं फटाफट तैयार होकर आती हूं.” कहती हुई निरुपमा उठकर खड़ी हो गई और मुझसे बोली, “मैंने जो दवाई दी है, उसे खाकर तुम घर जाकर आराम करो. मैं एक-दो घंटे बाद मेघना को ख़ुद घर पर छोड़ जाऊंगी.”
मेघना के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना निरुपमा झटके से तैयार होने चली गई.
क़रीब चार घंटे बाद मेघना निरुपमा के साथ लौटी. उसकी ख़ुशी और आंखों की चमक देखकर मुझे बहुत सुकून मिला. मुझे एक कोने में ले जाते हुए धीरे-से नीरू ने कहा, “अभी दो-तीन दिनों तक मैं मेघना को बाहर घुमाने ले जाऊंगी. उसके मन की परतें खुलने के लिए ये ज़रूरी है और इस बीच मैं तुमसे उपेक्षित व्यवहार करूंगी. हम लोग जो भी बातें करेंगे स़िर्फ फ़ोन पर, ठीक है?”
अगले दिन फिर नीरू उसे लेने आ गई. आश्चर्य, नीरू के आने से पहले ही मेघना तैयार होकर इंतज़ार कर रही थी. अगले दो-तीन दिनों तक कभी पार्क, किसी दिन डिज़नीलैंड और कभी पिक्चर हॉल में नीरू मेघना को ले जाती रही. वह अपने तरी़के से उसका इलाज करती रही. एक सप्ताह बाद नीरू ने मुझे फ़ोन किया, “धरा, मेघना स्कूल चली गई है क्या?” मेरे ‘हां’ कहने पर वह बोली, “मैं तुमसे मिलने आ रही हूं.” थोड़ी देर बाद उसने घर में प्रवेश किया. मेरे चेहरे पर प्रसन्नता देखकर उसने कहा, “कैसी है मेघना?”
“नीरू, वह ठीक है. इन चार-पांच दिनों में उसने इतनी बातें की हैं. जितनी पहले कभी नहीं की थीं. उसका व्यवहार भी सामान्य है, मैं समझ नहीं पा रही हूं कैसे! पर हां, मुझसे अब भी खिंची-खिंची-सी रहती है.”
मेरी बात पर उसने कहा, “हां तुमसे खिंची-खिंची रहने का कारण उसकी नाराज़गी है. दरअसल धरा, ये पूरी तरह मनोवैज्ञानिक समस्या है. उसका इलाज मैं कर चुकी हूं. अब तुम्हारा इलाज बाकी है.”
मैं कुछ समझ नहीं पाई. तभी उसने कहना शुरू किया, “बचपन से तुम्हारे साथ उसकी तुलना सुनते-सुनते वह तुमसे चिढ़ गई थी. तुम्हें अपना प्रतिद्वंद्वी मान बैठी, लेकिन जैसे-जैसे बड़ी होती गई, उसका दृष्टिकोण बदलने लगा. वह अपने रंग-रूप को लेकर सहज होने लगी थी, लेकिन तुम्हारे और आकाश के व्यवहार ने उसे असहज बना दिया.”
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“क्या? हमारे व्यवहार ने?” मेरे आश्चर्य पर वह बोली, “हां, तुम लोगों ने उसकी कमी को ढंकने के लिए उसे इस तरह प्यार करना शुरू कर दिया, जो अस्वाभाविक होने के साथ अटपटा भी है. जानती हो, मेघना की आंखों में बार-बार आंसू आ जाते हैं ये कहते हुए कि उसके मम्मी-पापा उससे प्यार नहीं करते. मैंने जब उसे कहा कि तुम्हें ऐसा क्यों लगता है. मैंने देखा है, वो तो तुम्हारी हर बात मानते हैं, तुम्हारी ग़लतियों पर भी तुम्हें नहीं डांटते. ये उनका प्यार नहीं तो और क्या है?”
“नहीं आंटी, ये प्यार नहीं है, वो तो मेरे साथ परायों जैसा व्यवहार करते हैं. मैं कुछ भी करूं सब माफ़!” वो आक्रोश से भर उठती है.
“मैं पापा की ज़रूरी फाइलें बरबाद कर देती हूं. मम्मी की क़ीमती चीज़ें नष्ट कर देती हूं. पापा ने कितने प्यार से मम्मी को सिल्क की साड़ी ग़िफ़्ट की थी. मैंने उसे कैंची से काट दिया, इस उम्मीद से कि अब तो वे ज़रूर डांटेंगे, लेकिन नहीं. पापा ने कहा, ‘कोई बात नहीं, दूसरी ला देंगे.’
और आप ही बताइए आंटी, क्या मम्मी-पापा ऐसे करते हैं? आशीष व अर्पिता ज़रा-सी ग़लती करते हैं, तो आंटी उन्हें थप्पड़ लगा देती हैं. फिर थोड़ी देर बाद गले से लगाकर प्यार भी करने लगती हैं. मुझे ये सब बहुत अच्छा लगता है. मुझे थप्पड़ मारना तो दूर कभी ज़ोर से भी कुछ नहीं कहती हैं मम्मी. क्या हुआ जो मैं सुंदर नहीं हूं, क्या ये ज़रूरी है कि दुनिया में सब सुंदर ही हों. मम्मी तो मुझ पर ऐसे दया दिखाती हैं, जैसे मुझे कोई भयानक बीमारी हो. इन सबसे मैं तंग आ गई हूं आंटी. मैं मम्मी का प्यार चाहती हूं. बस और कुछ नहीं.”
“बस करो नीरू, मैं समझ गई हूं मेरी बेटी को मानसिक यातना बाहरवालों से नहीं मिली है, बल्कि घर में ही...”
“हां धरा, ये सच है, बच्चों को बाहरवालों से उतनी समस्या नहीं होती, जितना कि वह अपने माता-पिता के व्यवहार से आहत होते हैं. उसे हीनभावना से उबारने के लिए तुमने जो रास्ता चुना, उसने उसे और भी गहरे कुंए में धकेल दिया. सच पूछो तो वह बहुत मज़बूत लड़की है. अपने रंग-रूप को लेकर वह उतनी दुखी नहीं है जितनी तुम हो. उसके असामान्य व्यवहार की वजह तुम दोनों हो. अपनी बेटी से पराए जैसा व्यवहार करके तुम लोग उसके गुनहगार बन गए हो. अब हो सके तो उसे दुनिया की नहीं, बल्कि अपनी नज़रों से देखो और उसे प्यार करो स़िर्फ प्यार.
उसे सहानुभूति की नहीं, अपनेपन और प्यार की ज़रूरत है धरा! जानती हो, उसने मुझसे कहा, मम्मी से अच्छी तो आप हैं. आपने इतने दिनों में मुझे प्यार भी किया और डांटा भी. मुझे सिखाया और समझाया भी. मम्मी की तरह मेरी झूठी तारी़फें नहीं की.”
“तभी उस दिन आईने के सामने बुदबुदाती हुई मेघना कह रही थी कि अब मम्मी मुझे ज़रूर प्यार करेंगी.” सारे अंधेरे छंट चुके थे.
मैंने दृढ़ स्वर में कहा, “नीरू, तुमने मेरी बेटी मुझे लौटा दी, अब मैं उसे किसी क़ीमत पर खोने नहीं दूंगी. मैं सब समझ गई हूं.”
“मैं भी धरा.” तभी आकाश पीछे से आकर मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए बोले, जो न जाने कब से खड़े होकर हमारी बातें सुन रहे थे.
- वर्षा सोनी
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