प्राथमिकता बदल गईः पहले ज़िंदगी की पहली ज़रूरत हुआ करती थी अपनी और अपनों की ख़ुशी, परिवार के साथ ख़ुशियों के पल. सुबह की चाय और डिनर पूरा परिवार एक साथ करता था, फेवरेट टीवी शोज़ भी पूरा परिवार एक साथ ही देखता था. इच्छाएं सीमित थीं और ख़्वाहिशें गिनती की. लेकिन अब कामयाब ज़िंदगी की चाहत और अधिक पैसा कमाने की चाह आज की लाइफस्टाइल की ज़रूरत बन गई है. अब न अपनों के लिए टाइम है और न ही इस बात की चिंता है किसी को कि परिवार के साथ टाइम बिताना भी ज़रूरी है. सुख-सुविधाओं से घर भरा है, बस ख़ुशियां, अपनापन और रिश्तों से प्यार गायब हो गया है.
कम्यूनिकेशन गैपः रिश्तों में ख़ामोशी बढ़ रही है, सूनापन फैल रहा है. अपनापन सिमट रहा है. बिज़ी लाइफ, सुबह से शाम तक की भागदौड़, स्ट्रेस-तनाव ने रिश्तों को भी ख़ामोश कर दिया है. मोबाइल और सोशल मीडिया पर घंटों चैटिंग करने को आज की लाइफस्टाइल की ज़रूरत माननेवाले परिवार के बीच रहकर भी उनसे बातचीत करना ज़रूरी नहीं समझते. रिश्तों में ये ख़ामोशी रिश्तों के लिए साइलेंट किलर की तरह साबित हो रही है.
नो टाइम फॉर सेक्सः बदलती लाइफस्टाइल का सबसे ज़्यादा असर सेक्स लाइफ पर पड़ा है. मॉडर्न लाइफस्टाइल यानी सारी सुविधाएं, ऐशोआराम, बिज़ी लाइफ, लेट नाइट तक काम करना- इन सबके बीच लोग भूलते ही जा रहे हैं कि वैवाहिक जीवन में सेक्स कितना महत्वपूर्ण है. नतीजा रिश्तों में दूरियां बढ़ रही हैं. वैवाहिक जीवन के बाहर प्यार की तलाश बढ़ी है, एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर बढ़ रहे हैं.
कम होता कमिटमेंटः लाइफस्टाइल ने रिश्तों में कमिटमेंट की ज़रूरत को भी ख़त्म कर दिया है. हर हाल में रिश्ते सहेजने और निभाने की बात अब पुरानी हो चुकी है. एडजस्टमेंट अब लोग एक हद तक ही करना चाहते हैं. और अगर एडजस्ट नहीं हो पाया, तो अलग हो जाना बेहतर समझते हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह है महिलाओं का इंडिपेंडेंट और फाइनेंशियली व सोशली स्ट्रॉन्ग होना. दूसरे, सोशल साइट्स पर माउस की एक क्लिक पर कई लोग स्क्रीन पर प्रेज़ेंट हो जाते हैं, जिनसे घंटों चैट करना उन्हें स्ट्रेस-फ्री करता है. ऐसे में तनावपूर्ण रिश्ते में रहने से बेहतर वे ऑनलाइन रिश्ता जोड़ना अधिक पसंद करते हैं.
रिश्तों में भी बढ़ा है स्ट्रेसः इस फास्ट ट्रैक ज़िंदगी ने स्ट्रेस इतना ज़्यादा बढ़ा दिया है कि ये स्ट्रेस रिश्तों में भी नज़र आने लगा है. लोग अपने लिए ख़ुशियां, फाइनेंशियल सिक्योरिटी, कामयाबी जुटाने में इतने मशगूल हैं कि रिश्तों की फ़िक्र ही नहीं उन्हें और ये सब पाने की चाह ने उन्हें स्ट्रेस्ड बना दिया है. और ये स्ट्रेस, ग़ुस्सा, चिड़चिड़ापन उनके रिश्तों में भी नज़र आने लगा है.
सोशल रिलेशन भी बदल गए हैंः मॉडर्न लाइफस्टाइल ने सोशल रिलेशनशिप को भी बुरी तरह प्रभावित किया है. सुकून से बैठकर अपनों से बात करना अब लोगों को समय की बर्बादी लगती है. चाहे हालचाल पूछना हो या बर्थडे-एनिवर्सरी विश करना हो, किसी को इनवाइट करना हो या उनके बारे में और कुछ जानना हो, सब कुछ लोग सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर निपटा देते हैं. उनका कहना है, जो काम घर बैठे फोन पर हो जाता है, उसके लिए मिलने जाना समय बर्बाद करना है. इसी तरह सोशल मीडिया ने उन्हें इतना बिज़ी कर दिया है कि न वो रिश्तेदार-दोस्तों के घर आते-जाते हैं, न किसी सोशल फंक्शन का हिस्सा बनते हैं.
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नो टाइम फॉर किड्सः बच्चे जीने के मक़सद होते हैं. पति-पत्नी के रिश्ते की कड़ी होते हैं. लेकिन करियर बनाने और भविष्य को सुरक्षित करने के चक्कर में आज कपल्स के पास इतना समय ही नहीं होता कि वो बच्चा प्लान करें. सारी सुविधाएं जुटाने और पैसा कमाने में वे इतने मशगूल हैं कि बच्चे की ज़िम्मेदारी उठाने का ख़्याल ही नहीं आता उन्हें. और जब तक ख़्याल आता है, तब तक कई बार देरी हो चुकी होती है और फिर शुरू होता है एक-दूसरे को दोष देने का सिलसिला, जिससे रिश्तों में कड़वाहट भी बढ़ती है.
फाइनेंशियल प्रेशर का असर रिश्तों पर भीः मॉडर्न लाइफस्टाइल ने बेतहाशा ज़रूरतें बढ़ा दी हैं और इन ज़रूरतों ने फाइनेंशियल प्रेशर बढ़ाया है. न चाहते हुए भी कई बार ये फाइनेंशियल प्रेशर रिश्तों के बीच तनाव उत्पन्न करता है. कौन कितना ख़र्च उठाएगा, किसका ख़र्च ज़्यादा है, जैसे मुद्दे कई बार विवाद का कारण बन जाते हैं.
स्पेस और आज़ादी की चाहः आजकल किसी को भी अपनी ज़िंदगी में दख़लअंदाज़ी पसंद नहीं. सबको अपना-अपना स्पेस और आज़ादी चाहिए. आज़ादी बोलने की, ज़िंदगी जीने की, उन्मुक्त रहने की, हम चाहते हैं कि हमसे कोई सवाल न करे. हम अपने ़फैसले ख़ुद लें. लेकिन स्पेस की ये चाहत हमें रिश्तों के प्रति बेपरवाह बना दे रही है. इस सो कॉल्ड स्पेस के नाम पर रिश्तों में दूरियां बढ़ती जा रही हैं. ये दूरियां रिश्तों को कैसे और कब ख़त्म करने लगती हैं, हमें एहसास भी नहीं होता. माना कि बार-बार रोक-टोक, हर बात में दख़लअंदाज़ी न अब लोग बर्दाश्त करेंगे, न ही ये ठीक भी है, लेकिन स्पेस का इतना ओवरडोज़ भी न हो जाए कि आपको लगने लगे कि आपको उनकी कोई परवाह ही नहीं या आपको उनकी किसी बात से फ़र्क ही नहीं पड़ता.
अपने लिए जीना हो गया है ज़रूरीः पहले हम अपना हर व्यवहार, हर बात लोगों को ध्यान में रखकर करते थे कि लोग क्या कहेंगे, अगर हम फें्रड्स के साथ लेट नाइट मूवी देखने गए, तो लोगों को बातें करने का मौक़ा मिल जाएगा. लेकिन अब लोग इन बातों की परवाह किए बिना अपने लिए, अपनी ख़ुशियों के लिए जीना सीख रहे हैं. दोस्तों के साथ पार्टी करना, कलीग के साथ मूवी देखना, पड़ोसियों या रिश्तेदारों को भले ही पसंद न आए, लेकिन अगर ख़ुद को इसमें ख़ुशी मिलती है, तो लोगों की परवाह किए बिना लोग अपने लिए इनमें ख़ुशी तलाश लेते हैं.
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- समय बदल गया है. लोग रिश्तों को लेकर भी प्रैक्टिकल हो गए हैं. अब लोग सोचते हैं कि जिनसे काम हो, उन्हीं से रिश्ते जोड़े रखो. - बिना मतलब के, बिना काम के रिश्ते रखना, तो अब बेव़कूफ़ी समझी जाती है. - रिश्ते निभाने का समय और इच्छा दोनों ही नहीं रहीं अब लोगों के पास. अब अपना समय लोग उन्हीं चीज़ों पर ख़र्च करते हैं, जिससे फ़ायदा हो. - बड़े शहरों में वर्क कल्चर ऐसा हो गया है कि वीकेंड में ही अपने लिए समय मिलता है, जिसे लोग अपने कलीग्स या फ्रेंड्स के साथ ही एंजॉय करना चाहते हैं. - डिजिटल वर्ल्ड ने हमें बहुत ज़्यादा ओपन स्पेस दे दिया है, जहां हम अपने रिश्तों से दूर हो गए हैं और डिजिटल रिश्तों में ज़्यादा बिज़ी हो गए हैं. - डिजिटल इफेक्ट रिश्तों पर इतना होने लगा है कि एक ही कमरे में बैठकर भी लोग मोबाइल में बिज़ी रहते हैं.- प्रतिभा तिवारी
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