“अरे पापा मुबारक हो, आपके और मम्मी के नाम पर दार्जिलिंग के दो एयर टिकट हैं. परसों की फ्लाइट है.” “किसने भेजे हैं?” वे भी आश्चर्यचकित रह गए. “पता नहीं. भेजनेवाले ने अपना नाम नहीं लिखा. बस इतना लिखा है- दार्जिलिंग में मिलेंगे.” “कहीं भाईसाहब ने तो आपको रिटायरमेंट का गिफ्ट नहीं दिया.” अंजलि ने अनुमान लगाया. “तुम्हारे भाईसाहब इतने कंजूस हैं. वे क्या मुझे गिफ्ट देंगे.”“जिसने भी भेजा होगा, दार्जिलिंग में वह मिलेगा ही. पापा यह मौक़ा हाथ से मत जाने दीजिए. मम्मी के साथ घूम आइए.” रिचा बोली.
अभी दो दिन पहले ही उनके मित्रों ने उनसे पूछा था, “कैसा चल रहा है?” उन्होंने गर्व से कहा था, “बहुत अच्छा. अभी तक तो कुछ भी ऐसा नहीं हुआ, जो मन को कष्ट पहुंचाए, जिससे एहसास हो कि घरवालों की नज़रों में मैं अब फालतू और खाली हूं.” रमाशंकर ठीक ही कह रहे थे, बच्चों के साथ-साथ जीवनसंगिनी की आंखें भी बदल जाती हैं.
एक दिन सब्ज़ी ख़रीदते समय उन्हें ख़्याल आया, रिचा के लिए गुलाब जामुन ले लें. उसे बहुत पसंद हैं. स्वीट्स शॉप से गुलाब जामुन लेकर वे निकल ही रहे थे कि सामने से आ रहे निखिल और रमाशंकरजी ने उन्हें आवाज़ दी, “आदित्य, तुम यहां कैसे?”
“बस यूं ही, मार्केट आया था.” वे झेंपते से बोले.
उनके हाथ में सब्ज़ी का थैला देख रमाशंकर हंस पड़े और बोले, “अरे, अब तुम भी हमारी श्रेणी में शामिल हो गए.”
वे कुछ नहीं बोले और चुपचाप चले आए. रास्तेभर उन्हें लगता रहा मानो रमाशंकरजी कह रहे हों, फर्स्ट क्लास गैज़ेटेड ऑफिसर की अपने घर में यह इज़्ज़त. सब्ज़ी का थैला उठाए घूम रहे हो. नहीं, अब और नहीं.
घर आकर किसी से कुछ नहीं कहा. सब्ज़ी का थैला किचन में रखा. बाहर आकर स्कूटर स्टार्ट किया.
रिचा पीछे से चिल्लाई, “पापा, आपके लिए कोल्ड कॉफी बनाई है.” किंतु तब तक वे जा चुके थे.
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क़रीब चार घंटे बाद वे वापस घर लौटे, तो शाम हो चुकी थी. अंजलि, आरव और रिचा लॉन में परेशान-से खड़े थे. उन्हें देखते ही आरव बोला, “पापा, कहां चले गए थे. रिचा ने फैक्टरी में फोन करके मुझे बुलाया. हम सब कितने परेशान थे.”
उन्होंने सनी को गोद में उठाकर प्यार किया और बोले, “नौकरी के लिए गया था. एक ऑफिस में अकाउंट्स देखना है. द़िक्क़त यह है, ऑफिस यहां से 16 कि.मी. दूर है, किंतु कोई बात नहीं, मैं मैनेज कर लूंगा.”
“किंतु पापा इस तरह अचानक यह फैसला?” उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया और पलंग पर लेटकर आंखें बंद कर लीं.
तीन दिन बाद दोपहर में लॉन में बैठे वे आरव के साथ खाना खा रहे थे कि उनके नाम से एक कुरियर आया. आरव ने साइन करके लिफ़ाफ़ा उनकी ओर बढ़ाया. वे बोले, “देखो तो किसका है?”
आरव ने खोलकर प़ढ़ा, तो हैरान रह गया. “अरे पापा मुबारक हो, आपके और मम्मी के नाम पर दार्जिलिंग के दो एयर टिकट हैं. परसों की फ्लाइट है.”
“किसने भेजे हैं?” वे भी आश्चर्यचकित रह गए.
“पता नहीं. भेजनेवाले ने अपना नाम नहीं लिखा. बस इतना लिखा है- दार्जिलिंग में मिलेंगे.”
“कहीं भाईसाहब ने तो आपको रिटायरमेंट का गिफ्ट नहीं दिया.” अंजलि ने अनुमान लगाया.
“तुम्हारे भाईसाहब इतने कंजूस हैं. वे क्या मुझे गिफ्ट देंगे.”
“जिसने भी भेजा होगा, दार्जिलिंग में वह मिलेगा ही. पापा यह मौक़ा हाथ से मत जाने दीजिए. मम्मी के साथ घूम आइए.” रिचा बोली.
थोड़ी-सी ना-नुकुर के बाद वे जाने के लिए सहमत हो गए. अंजलि के साथ जब वह फ्लाइट में बैठे, तो उनका मन पुलक उठा. कितने वर्षों बाद आज वे दोनों यूं अकेले जा रहे थे. जीवन की आपाधापी और काम की व्यस्तता के बीच इस सुखद एहसास को न जाने कब से भुलाए बैठे थे. उन्होंने अंजलि की ओर देखा. उसके चेहरे पर छाई स्निग्धता को देख मन में उल्लास की कलियां चटख गईं. कसकर उन्होंने अंजलि का हाथ थाम लिया. उस छुअन में भी आज एक नयापन-सा महसूस हो रहा था. उन्होंने आंखें बंद कर लीं और इस सुख को आत्मसात् करने लगे.
रेनू मंडल
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