कहानी- अब यहां गौरैया नहीं चहकती (Story- Ab Yahan Goraya Nahi Chahkati)
Share
5 min read
0Claps
+0
Share
वह भी अकेली बियाबान में भटकती हुई गौरैया के चहकने के इंतज़ार में ज़िंदगी काट रही है. शायद कभी तो कोई गौरैया उसकी बालकनी में आकर फुदकेगी. अकेलेपन की पीड़ा और बीती बातों की टीसें उसे झिंझोड़ देती हैं. आख़िर कहां चूक गई वह? बेटे से प्यार करने की भी क्या किसी को इतनी बड़ी सज़ा मिलती है?
नींद बहुत जल्दी खुल गई थी. अक्सर ऐसा ही होता है उसके साथ. जिस दिन ऑफिस जाना होता है, उस दिन पलकें इतनी बोझिल लगती हैं कि उन्हें हाथों से सहलाकर खोलना पड़ता है. शरीर उकसाता है कि बिस्तर पर ही लेटे रहो और मन नींद की ख़ुमारी को झटकता हुआ नौकरी के दस्तूर को निभाने की हिदायतें देने लगता है. लेकिन जिस दिन रविवार होता है, उस दिन ठीक इसके विपरीत होता है. नींद सुबह पांच बजे ऐसे खुल जाती है मानो यही समय है उसके उठने का. सोचकर सोई थी कि देर तक सोती रहूंगी. हफ़्तेभर की थकान उतार लूंगी, लेकिन ऐसा हुआ कहां?
“काम है ही क्या तुम्हारे पास, दो रोटी ही तो बनानी है...” लगा एक आवाज़ कानों में आकर बोली, लहजा और स्वर जाना-पहचाना था. यह आवाज़ उसके अतीत की नहीं थी, वर्तमान का ही हिस्सा था, वह वर्तमान, जो अब अतीत की किसी अंधेरी गुफा में जाकर खो गया है या जान-बूझकर सामने नहीं आना चाहता है. नहीं सोचना चाहती वह यह सब. ज़िंदगी गुज़र गई अपने को मथते-मथते, यह तलाशते कि उससे कहां ग़लती हुई थी, पर जवाब नहीं मिल पाया. फिर यही लगा कि सोचना ही छोड़ दिया जाए, उम्मीदों और अपेक्षाओं का दामन ही छिटका दिया जाए, ताकि बची ज़िंदगी तो सुकून से कटे.
इंसान की फितरत ही ऐसी है, कोई न कोई बहाना ढूंढ़कर अपने दिल को बहलाने की कोशिश करता है. न करे तो जीना मुश्किल हो जाएगा. ख़ुशियों को अंजुरी में भरकर रखना ही पड़ता है, वरना जीने के लिए कुछ नहीं बचता. हमेशा रोते रहने से भी ज़िंदगी चलती तो है, पर तब उसे घसीटना कहते हैं. वह भी ख़ुश रहने की कोशिश करती है और सच तो यह है कि वह हज़ारों बार इसमें नाकाम भी हुई है. अकेलापन किसी भयावह जंगल से कम नहीं होता है, हर पगडंडी पर ख़तरा महसूस होता है और हर क़दम बचाकर रखना पड़ता है, न जाने अगले ही पल कौन-सा मोड़ आ जाए.
चाय का कप हाथ में ले बालकनी में आ गई. दाने के लिए रखे बर्तन में दाना डालते उसके हाथ रुक गए, उसमें तो दाना था. कितने दिनों से देख रही है कि दाना यूं ही पड़ा रहता है. पानी का बर्तन भी खाली नहीं होता है. तो क्या अब गौरैया ने आना छोड़ दिया है?
हां, सच तो है कितने दिनों से उनकी चहचहाहट नहीं सुनी, चूं-चूं की आवाज़ से पहले तो घर सिर पर उठा लेती थी और सुबह होने की मीठी सूचना देती थी. उसने तो इस मीठी आवाज़ को सुनने के लिए डोरबेल तक चिड़ियों की चहचहाहटवाली लगवा ली थी. लेकिन न जाने वह चहचहाहट कहां गुम हो गई है, शायद, उसकी ज़िंदगी के वीरानों में उसे सुनाई नहीं देती या फिर सचमुच ही गौरैया ने आना छोड़ दिया है. तो क्या वह भी उसकी ज़िंदगी में नहीं आना चाहती?
मन भटकने लगा था. क्या अनाप-शनाप सोचने लगी थी? पर सच में गौरैया तो न जाने कहां गुम हो गई है. जब से गगनचुंबी इमारतों ने शहरों पर कब्ज़ा कर लिया था और लोगों के घर फ्लैटनुमा हो गए थे, जो सुरक्षा की वजह से चारों ओर बंद कर लिया जाता है, तब से तो गौरैया ने भी दिखना छोड़ दिया था. आती भी तो कैसे...? न तो अब छतों पर गेहूं सूखता है, न ही मसाले साफ़ किए जाते हैं. न ही वह अब घरों में अपने घोंसले बनाने के लिए घुस पाती है, वरना पहले तो किसी न किसी खिड़की पर घोंसले दिख ही जाते थे.
नन्ही-सी है वह, लेकिन उसकी कमी खलती है. ये तो पक्षी है, इसका न आना कैसा खलता है, फिर जिसे नौ महीने कोख में रखा हो, जिसे अपनी सारी ख़ुशियों को दांव पर लगा और आशीषें दे पाला हो, उसका न आना... लगा जैसे किसी ने उसके दिल में तेजाब के छींटें डाल दिए हों.
नीड़ तो इंसान भी ऐसे ही बनाता है. भावनाओं और अरमानों के तिनके-तिनके जोड़कर अपना घोंसला बनाता है, लेकिन रिश्तों की नींव इतनी खोखली होती जा रही है कि मां की कोख में पला उसी का अस्तित्व उससे उसकी पहचान छीनकर फुर्र से उड़ जाता है. उफ़! फिर से मन यायावर हो उठा था. सदियां दस्तक दे रही थीं, इसलिए हवा में एक कुनकुनाहट थी. पत्तों के बीच बहती मंद हवा सुकून दे रही थी. आम का बड़ा-सा पेड़ जिसकी टहनियां अब उसकी बालकनी को छूने लगी थीं, हरियाली के आसपास होने का एहसास देता था. मनी प्लांट के अपने पौधों को उसने प्यार से सहलाया, तो कसक उठी मन में.
कितने लाड़-प्यार से पाला था अपने बेटे को. ठीक है हर मां ऐसा ही करती है, उसने कोई एहसान नहीं किया, पर बच्चे भी तो ऐसे नहीं चले जाते हैं. मां के अस्तित्व को तो नकार नहीं देते हैं. नाराज़गी अपनी जगह है, पर नफ़रत... वह तो उसके मन में कैक्टस की तरह रोपी गई. अपनी हीनभावना को छिपाने और अपने अहम् को पोषित करने के लिए, मन भारी हो गया था उसका. बेमन से सारा काम निबटाया और क़िताब लेकर बैठ गई. पन्ने पलट रही थी, पर अक्षर धुंधला रहे थे. कभी सोचा था उसने कि उसके साथ ऐसा होगा. एकदम अकेली रह जाएगी वह. ऐसी ग़लती की सज़ा भोगने के लिए. जो उसने नहीं की थी या शायद की होगी, तभी तो मुकुल तो गए ही, साथ ही उसके बेटे को भी उससे दूर कर दिया. शादी से पहले उसने भी बहुत सपने देखे थे, लेकिन व़क़्त ने उन्हें बेरहमी से हक़ीक़त में बदलने से पहले ही कुचल दिया. पापा-मम्मी एक साथ एक्सीडेंट में मारे गए, तो भाई ने बिना कुछ देखे-पूछे अपने सिर से बोझ हटाने के लिए उसकी शादी मुकुल से कर दी. शादी में रिश्तेदारों के नाम पर मुकुल का एक भाई था और एक बहन, जो दूसरे शहर में रहते थे. अगले दिन नई बहू की बिना किसी रस्म को निभाए वे लौट गए, उसी दिन उसे पता चला कि मुकुल तो पक्के शराबी हैं और औरत को पांव की जूती से अधिक कुछ नहीं समझते हैं.
“तू कमाती है, इसका मतलब यह नहीं कि तू सिर पर चढ़ जाएगी, पहली तारीख़ को सारे पैसे मेरे हाथ में होने चाहिए.” हर दिन एक नया नियम, एक नई शर्त.
सौदेबाज़ी करना और बीवी को मैनुपुलेट करना इसी में उसका दिन निकल जाता और रात दोस्तों के बीच कट जाती. हर समय तलाक़ दे
दूंगा की तलवार लटकती रहती. क्या करती वह? भाई के पास लौटकर जाने का सवाल ही नहीं उठता था. सहती रही, नियति मान. अपने पढ़े-लिखे होने पर भी अफ़सोस होता कि आख़िर क्यों सहती है वह उसकी मार और गालियां? वह पिसती रही, पिटती रही. मुकुल ज़बर्दस्त हीनभावना का शिकार था, एकदम अनगढ़, जो न तो ग्रो करना चाहता था और न ही उसे ग्रो करते देखना उसे गवारा था. बात-बात पर उसे ज़लील करता, बिना वजह ग़लतियां निकालता. “यह डिब्बा यहां क्यों रखा है...?” या “बहुत सोफिस्टीकेटेड बनती हो, लेकिन रोटी गोल नहीं बना सकती...”
उसने सोचा था कि बच्चा हो जाएगा, तो शायद मुकुल में कुछ बदलाव आ जाए, जब उसके गर्भ में अंकुर फूटा, तो अपने बेटे को देख उसे लगा था कि मानो उसके सारे दुखों का अंत हो गया है और उसके जीवन में उल्लास बिखर गया है, इसीलिए तो उसने उसका नाम ही उल्लास रख दिया. उसकी किलकारियां और चहचहाहट उसे जीने का मक़सद देती. वह गोद में आता, तो
वह मुकुल के दिए सारे दुख भूल जाती. जी लेगी वह इसी के सहारे, इसे एक बेहतर जीवन देगी और अच्छा इंसान बनाएगी. जान लगा देगी इसे हर सुख-सुविधा देने के लिए, ख़ूब पढ़ाएगी.
पर इंसान सोचता कुछ है और होता कुछ है. वह नौकरी छोड़ना चाहती थी, ताकि उल्लास की परवरिश अच्छे-से हो सके, पर मुकुल नहीं माना, बल्कि वह उसे संभालने के नाम पर घर पर पड़ा रहता और जैसे ही वह शाम को लौटती, अपनी मंडली में चला जाता. काम उसका चौपट हो गया था. बेटे के साथ व़क्त गुज़ारने को तरसती वह दिन-रात काम में जूझे रहने को मजबूर थी.
कितनी मूर्ख थी वह, जान ही नहीं पाई कि बच्चे के साथ हमेशा चिपके रहकर मुकुल उसे उल्लास से दूर कर रहा है. उसके मन में ज़हर भरता रहता, “तेरी मां के पास, तो तेरे लिए टाइम ही नहीं है. करियर
इम्पॉर्टेंट है उसके लिए. बहुत बुरी है, तुझसे प्यार नहीं करती. पापा हमेशा उसे टाइम देते हैं, मम्मी गंदी है...” बाल मन पर खुदी ये बातें इतनी गहरी हो जाएंगी उसने कहां सोचा था. अपनी मां की तकलीफ़ को समझ उसका सहारा बनने की उम्मीद रखना... भूल कर बैठी थी वह. बेटा उसके सीने में खंजर चुभोने लगा है, उसे बुरा कहने लगा, इस एहसास ने उसे विरोधी बना दिया. वह मुकुल का विरोध करने लगी, पर सारे समीकरण जैसे उलटे हो गए थे. मुकुल ने नया दांव खेला.
“यह मकान मेरे नाम कर दे, वरना मैं बेटे को लेकर चला जाऊंगा.” उल्लास के प्रति उसकी पज़ेसिवनेस उसकी सबसे बड़ी दुश्मन बन गई. एक मकान ही तो था, जिसकी वजह से वह थोड़ा सिक्योर फील करती थी. फिर मुकुल का क्या भरोसा. शराब के लिए इसे बेच दिया तो? उसका इंकार तूफ़ान बनकर टूटा. तब तक उल्लास बीस साल का हो चुका था, पर विडंबना तो यह थी कि वह अपने पापा के हाथों की कठपुतली बन चुका था. यहां तक कि सोता तक उसके साथ था. मुकुल निर्णय लेता कि वह क्या खाएगा, क्या पहनेगा. सारा दिन कंप्यूटर पर खेलता, दो बार बारहवीं में फेल हो चुका था, पर पापा की तरह वह भी ईगोवाला हो गया था. “क्या हुआ बेटा, मेरा बिज़नेस है न, संभाल लेना. दस-पंद्रह हज़ार कमा लेगा.”
बेटे को उच्च शिक्षा देने और पिता जैसे न बनने का सपना किरच-किरच हो गया था. एक दिन तो उसने भी मुकुल की तरह उसे अपशब्द बोल दिया. “यू आर कैरेक्टरलेस वुमन.” उस दिन चुक गया था उसका धैर्य, उसकी ममता सिसक उठी थी और जीने की तमन्ना राख हो गई थी. नींद की ढेर सारी गोलियां खा ली थी. लेकिन मुकुल ऐन व़क़्त पर आ गया और वह बच गई और अपमान झेलने के लिए.
“मैं अब इस औरत के साथ नहीं रहूंगा. साली सुसाइड के केस में फंसा देगी मुझे और तू भी फंस जाएगा.” उसे छोड़ भाग खड़ा हुआ वह, उल्लास को साथ ले.
“बेटे के बिना कैसे रहेगी यह, साली नाक रगड़ती हुई आएगी. मकान एक बार मेरे नाम हो जाए, तो धक्का देकर बाहर निकाल दूंगा. इसे चरित्रहीन साबित कर तलाक़ ले लूंगा.” मुकुल के इरादे जान वह कांप गई थी. नहीं गई वह नाक रगड़ने. उल्लास की ख़ातिर भी नहीं, जो अपनी मां के दर्द को न समझ सका. लोग सोचते होंगे कि कितनी क्रूर मां है, पर वह क्या करती? इंतज़ार करती रही कि एक दिन वह सच जान लौट आएगा, पर अब तो वह उम्र के आख़िरी पड़ाव पर पहुंच गई है, इंतज़ार यूं ही देहरी के बाहर लटका हुआ है. पता चला उसने शादी भी कर ली है. उसका बेटा भी अब चौदह साल का हो गया है.
मुकुल के साथ भी नहीं रहता वह. न जाने किन अंधेरी गलियों में मुकुल गुम हो चुका है. सुना था कि हालत बहुत ख़राब है. शराब ने पूरे शरीर और मन को गला दिया है.
वह भी अकेली बियाबान में भटकती हुई गौरैया के चहकने के इंतज़ार में ज़िंदगी काट रही है. शायद कभी तो कोई गौरैया उसकी बालकनी में आकर फुदकेगी. अकेलेपन की पीड़ा और बीती बातों की टीसें उसे झिंझोड़ देती हैं. आख़िर कहां चूक गई वह? बेटे से प्यार करने की भी क्या किसी को इतनी बड़ी सज़ा मिलती है? जिसकी ख़ातिर उसने मुकुल के हर ज़ुल्म को सहा, वही उसे छोड़कर चला गया, क्योंकि वह उसका भला चाहती थी, उसकी ज़िंदगी संवारना चाहती थी. लेकिन अब तो उसके कान उसकी आवाज़ तक सुनने को तरस गए हैं, वैसे ही जैसे अब यहां कोई गौरैया नहीं चहकती.
तभी डोरबेल बजी. पूरे घर में एक चहचहाहट गूंज गई. चूं-चूं, चीं-चीं... उदासी की परतों को झटक वो उठी, हो सकता है उल्लास आया हो... उम्मीद की असंख्य किरणें एक साथ रोशन हो गई. और दरवाज़ा खोलते ही उल्लास को सामने देख भावविभोर हो उठी वो. बरसों से दबा भावनाओं का समंदर आंसुओं के रूप में बहने लगा.
सुमन बाजपेयी
अधिक कहानी/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां पर क्लिक करें – SHORT STORIES