डैनियल-मार्था की कहानी ने मेरे ज़ेहन में कई सवाल खड़े कर दिए हैं. उस समाज का मानना है कि हमें यह जीवन एक ही बार जीने को मिला है और हमें उसको अपनी इच्छानुसार जीने का पूरा हक़ है. बात सुनने में एकदम सही लगती है, पर इसका व्यावहारिक रूप सब कुछ गड़बड़ा देता है.
पति के ऑफिस जाने पर दरवाज़ा बंद करके मुड़ी ही थी कि नाहिद ने अपनी टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में कहा, “तुम हिंदुस्तानी ज़रा भी रोमांटिक नहीं हो.”
मुझे क्रोध नहीं आया. मैं यह बात दिन में कितनी ही बार सुन लेती हूं अथवा इसी से मिलता-जुलता कोई जुमला. अब तो यह नाहिद का तकियाकलाम ही बन चुका है.
मैंने मुस्कुराते हुए पूछा, “अब क्या हुआ?”
“तुम्हारे पति ने ऑफिस जाते समय तुम्हें किस करना तो दूर, तुम्हारा हाथ तक नहीं छुआ. नाश्ता किया और उठकर चल दिया. तुमसे पहले रहनेवाला डैनियल तो ऑफिस जाते समय अपनी पत्नी मार्था को बांहों में भरकर किस करता था. कार में बैठ फिर से एक फ्लाइंग किस देता. ऑफिस से लौटकर फिर से आलिंगन में लेता और दोनों एक-दूसरे से पूछते, “दिन कैसा गुज़रा?”
मैं यह डैनियल-मार्था पुराण अनेक बार सुन चुकी हूं. अमेरिकी जोड़े डैनियल और मार्था के बारे में इतना कुछ सुन चुकी हूं कि अब तो ऐसा लगता है कि मैं उन्हें अच्छी तरह से जानती हूं.
तेहरान (ईरान) आते समय मन में अनजाना-सा डर था. अपरिचित देश, भाषा न जानने-समझने की समस्या भी थी. सौभाग्यवश हमारे लिए जो मकान तय किया गया था, उसकी स्वामिनी को थोड़ी-बहुत अंग्रेज़ी आती थी. लंबे-चौड़े ड्रॉइंगरूम वाला बहुत बड़ा-सा घर था वह और घर के पिछवाड़े बगीचा. घर की मालकिन अपनी चालीस वर्षीया बेटी नाहिद के संग ऊपर वाली मंज़िल पर रहती थीं. उनका बाहर जाने का अपना अलग रास्ता तो था ही, ऊपर से एक सीढ़ी सीधे हमारी लॉबी में भी उतरती थी. नाहिद अपने पति व परिवार के साथ नीचे रहेगी और मां ऊपर, ऐसा सोचकर घर को कुछ इस तरह बनाया गया था, लेकिन विवाह के एक वर्ष बाद ही नाहिद का तलाक़ हो गया और अब मां-बेटी ऊपर रहकर नीचे का हिस्सा किराये पर देने लगी थीं.
नाहिद के पिता का देहांत हो चुका था. नाहिद एक कॉलेज में पढ़ाती थी और दोपहर के भोजन तक घर लौट आती. मौक़ा मिलते ही वह नीचे मेरे पास आ जाती. कोई और होता, तो शायद उसे यह बात अच्छी न लगती और अपनी प्राइवेसी में दख़ल लगती, पर मुझे उसका आना बहुत भाता था. नाहिद मिलनसार और ख़ुशमिज़ाज थी. किसी से भी उसकी जल्दी दोस्ती हो जाती थी और मेरी तो वो हमउम्र ही थी. कार्पेट लगी सीढ़ियों पर बैठे-बैठे हम घंटों बातें करते रहते.
वह मुझे फारसी के साहित्य और मशहूर कवियों के बारे में बताती. साथ ही हमारे देश के बारे में भी जानने को उत्सुक रहती. अकेली होने के कारण मेरा मन भी लगा रहता और एक नए समाज को जानने-समझने का मौक़ा भी मिलता. इसी तरह मैं उसे अपने तीज-त्योहारों और रीति-रिवाज़ों के बारे में बताती. हम साथ-साथ घूमने-फिरने जाते. फिल्में भी देखते. फारसी न जानने के कारण नाहिद के साथ बाज़ार जाने से मुझे विशेष सहूलियत भी रहती. ईरान में शिक्षा का माध्यम पूर्णतः फारसी है, इसलिए शिक्षित वर्ग में भी बहुत कम लोग अंग्रेज़ी बोल पाते हैं. नाहिद के दिवंगत पिता विदेशों में रह चुके थे, इस कारण नाहिद की मां थोड़ी-बहुत अंग्रेज़ी बोल-समझ लेती थीं. उनकी मृत्यु के समय नाहिद मात्र तेरह वर्ष की थी और उसकी मां ने घर पर शिक्षक रखकर नाहिद को अंग्रेज़ी की शिक्षा दिलवाई थी. मां-बेटी दोनों ही कामचलाऊ अंग्रेज़ी बोल लेती थीं और इसलिए उन लोगों को अपना घर विदेशियों को किराये पर देना आसान हो गया था.
हमसे पूर्व अनेक अमेरिकी, अंग्रेज़, फ्रांसीसी इत्यादि उनके घर रह चुके थे. मां-बेटी दोनों ही उनके सांस्कृतिक खुलेपन से बहुत प्रभावित थीं और उनका गुणगान करते नहीं अघाती थीं. इसी वजह से हमसे पूर्व रहे अमेरिकी दंपति डैनियल-मार्था के मैं हर रोज़ ही क़िस्से सुना करती.
अधिकतर ईरान निवासी बहुत मिलनसार होते हैं और पुराने सांस्कृतिक संबंधों के कारण भारतीयों में विशेष रुचि रखते हैं. इसी वजह से नाहिद की कई सखियों से मेरा परिचय था और कुछ से तो अच्छी दोस्ती हो गई थी. उन्हीं में से एक थी परिज़ाद. आज हम उसी के फार्म हाउस पर दिन बिताने के लिए आमंत्रित थे. दूर जाना था और रास्ते में उसके लिए केक भी ख़रीदना चाहते थे, इसलिए नाहिद सुबह ही तैयार होकर नीचे आ गई थी, ताकि हम जल्दी ही घर से निकल सकें.
प्रवासी भारतीय, चाहे वह किसी भी देश में बसे हों, आपस में मिलने को बहुत उत्सुक रहते हैं व पार्टी करने का बहाना ढूंढ़ते रहते हैं और हमारी तो आज विवाह की वर्षगांठ ही थी. अतः एक बड़ी-सी पार्टी की मांग थी. मैंने नाहिद और उसकी मम्मी को भी न्योता दिया, ताकि उन्हें अपने भारतीय मित्रों से मिलवा सकूं. वहां घरेलू सहायता तो मिलती नहीं और विशुद्ध भारतीय व्यंजनों की फरमाइश थी, सो बाज़ार से भी कुछ नहीं मंगाया जा सकता था. नाहिद सुबह से ही मेरा हाथ बंटा रही थी. उसने सब्ज़ी काट दी. प्लेटें पोंछकर मेज़ लगा दी और बोली, “लगे हाथ ड्रॉइंग रूम ठीक कर देती हूं.” सोफे को दीवार से सटाते हुए उसने पूछा, “खाली जगह बीच में रखूं या एक किनारे पर?”
मेरे यह पूछने पर कि खाली जगह किसलिए? उसने हैरान होकर प्रत्युत्तर में पूछा, “तुम लोग डांस नहीं करोगे क्या?” मेरे मना करने पर उसे बहुत आश्चर्य हुआ और उसका वही डैनियल पुराण शुरू हो गया. “तुम हिंदुस्तानी बहुत बोर हो. डैनियल-मार्था की हर पार्टी में डांस हुआ करता था. डैनियल ख़ुद बहुत अच्छा नाचते थे. पहला डांस वह हमेशा अपनी पत्नी के साथ ही करते, फिर अन्य महिलाओं के साथ. मैंने भी उनके साथ अनेकों बार डांस किया है. बिना डांस के पार्टी का मज़ा ही क्या आएगा?”
ख़ैर, हमें पार्टी का बहुत मज़ा आया. गाने हुए, शेरो-शायरी हुई, चुटकुले, हंसी-मज़ाक बहुत कुछ हुआ.
दूसरे दिन सुबह मां-बेटी काम ख़त्म कर नीचे आ गईं. वे यह जानने को उत्सुक थीं कि विवाह की वर्षगांठ पर मुझे क्या उपहार मिला? मेरे यह बताने पर कि मुझे कोई उपहार नहीं मिला, वे इतनी आश्चर्यचकित रह गईं कि एक बार तो डैनियल पुराण का पाठ भी भूल गईं. हालांकि बाद में उन्होंने इसकी कसर पूरी कर ली. डैनियल तो मार्था को जन्मदिन, शादी की सालगिरह आदि पर अवश्य उपहार देता था, लेकिन वह छोटे-मोटे उपहारों से भी राज़ी नहीं होती थी. शादी की सालगिरह पर तो मार्था के लिए ज्वेलरी ही ख़रीदी जाती थी. डायमंड के टॉप्स, रिंग, नेकलेस आदि. वैलेंटाइन डे पर भी डैनियल फूल और कार्ड लाता, डिनर पर लेकर जाता. मार्था भी डैनियल की पसंद की कोई डिश बनाती थी. नाहिद और उसकी मां का विचार था कि मैं बहुत दब्बू हूं और मेरे जन्मदिन, विवाह की वर्षगांठ पर पति के उपहार न लाने पर बुरा नहीं मानती, इसलिए वे भी इसे नज़रअंदाज़ कर जाते हैं. उनका मानना था कि यदि मैं एक-दो बार नाराज़ होकर दिखाऊं, तो वह अवश्य उपहार लाएंगे.
नाहिद को यह अजीब लगता कि हमारे समाज में स्त्री-पुरुष उस तरह से आपसी प्रेम का प्रदर्शन नहीं करते, जिस तरह से कि पश्चिमी देशों के कपल्स खुलेआम अपने प्यार का इज़हार करते है. डैनियल-मार्था कथा में मैंने यह भी जाना कि वे दोनों एक-दूसरे को सदैव ‘डार्लिंग’ कहकर ही बुलाते थे. दिन में अनेक बार एक-दूसरे को ‘आई लव यू’ कहा करते थे और मार्था जब भी डैनियल के लिए कुछ विशेष बनाती, तो वह पत्नी को ‘थैंक यू डार्लिंग’ अवश्य कहते थे.
डैनियल-मार्था के चले जाने के बाद भी उनकी सूचना मिलती रहती. उनके घूमने-फिरने, मौज-मस्ती करने की ख़बर मिलती. कभी इटली से इनका पिक्चर पोस्टकार्ड आता, तो कभी स्विट्ज़रलैंड से. दो-चार महीने के अंतराल पर मार्था का लंबा-चौड़ा पत्र भी आ जाता, जिसमें वह अपने बारे में विस्तार से लिखती.
नाहिद के मैत्रीपूर्ण स्वभाव के कारण दोनों में गहरी दोस्ती हो गई थी. मेरे रहते आए एक पत्र में उसने लिखा कि उसकी बेटी हुई है. मार्था के अपने कोई भाई-बहन नहीं थे, सो वह बेटी पाकर बहुत प्रसन्न थी. अगली बार उसने अपनी चार माह की बेटी के साथ एक ख़ुशहाल परिवार की फोटो भी भेजी थी. उनके बारे में इतना कुछ सुन लिया था कि डैनियल परिवार मुझे अपना-सा लगने लगा था और मैं उनके बारे में जानने-सुनने को उत्सुक रहती थी. बेटी होने के पश्चात् डैनियल ने अमेरिका में ही ऐसी नौकरी ले ली थी, जिसमें वह एक ही स्थान पर टिककर रह सकें.
हमारे भी ईरान के तीन वर्ष पूरे हुए. नाहिद से विदा लेकर और भारत आने का न्योता दे हम स्वदेश लौट आए. नाहिद से पत्र-व्यवहार चलता रहा.
बेटी का विवाह तो हम ईरान जाने से पूर्व ही कर चुके थे. बेटा तब हॉस्टल में रहकर मेडिकल की पढ़ाई कर रहा था. अब वह डॉक्टर बन गया था और अपने साथ पढ़ रही लड़की के साथ शादी करना चाहता था. हम सबकी रज़ामंदी उसके साथ थी. मैं बहुत ख़ुश थी. बेटी के विवाह के बाद दो पुरुषों के बीच मैं अकेली-सी पड़ गई थी. घर में एक बहू आ जाएगी, तो बाज़ार जाने, पहनने-ओढ़ने में सलाह लेने के लिए साथ मिल जाएगा. घर में रौनक़ हो जाएगी. ऊपरवाली मंज़िल पर दोनों मिलकर अपनी क्लिनिक खोलेंगे, ऐसी योजना भी थी.
विवाह की तैयारियों के साथ-साथ मैं भविष्य के सपने भी बुनने लगी थी. मैंने अन्य स्वजनों के साथ-साथ नाहिद एवं उसकी मां को भी निमंत्रण भेजा और आने का विशेष आग्रह किया. विवाह होने के बाद उनके लिए यहां के दर्शनीय स्थल देखने का इंतज़ाम भी कर दिया. ब्याह निबट गया, सभी मेहमान राज़ी-ख़ुशी चले गए और बेटे-बहू भी हनीमून के लिए घूमने निकल गए, तो मैं फारिग हो इत्मीनान के साथ नाहिद के संग गप्पे लगाने बैठी.
विवाह की तैयारी में पिछले एक वर्ष में उससे कोई विशेष बात नहीं हो पाई थी. उनके घूमने जाने का कार्यक्रम अभी एक हफ़्ते बाद का था. बातों ही बातों में डैनियल-मार्था का ज़िक्र आना स्वाभाविक था, पर नाहिद ने जो बताया वह एकदम अप्रत्याशित था. उन दोनों का तलाक़ हो चुका था. डैनियल का अपनी एक सहकर्मी के साथ अफेयर हो गया था. उसे लगने लगा था कि मानसिक स्तर पर वह मार्था से बहुत उच्च है और उसकी सहकर्मी के साथ जीवन बिताना अधिक रोमांचकारी होगा. अतः उसने मार्था से तलाक़ ले अपनी उस सहकर्मी से विवाह कर लिया था. मार्था पहले तो बहुत परेशान रही, पर अब उसे भी एक नया दोस्त मिल गया है और वह उससे विवाह करने की सोच रही है.
डैनियल-मार्था की कहानी ने मेरे ज़ेहन में कई सवाल खड़े कर दिए हैं. उस समाज का मानना है कि हमें यह जीवन एक ही बार जीने को मिला है और हमें उसको अपनी इच्छानुसार जीने का पूरा हक़ है. बात सुनने में एकदम सही लगती है, पर इसका व्यावहारिक रूप सब कुछ गड़बड़ा देता है. डैनियल-मार्था की मासूम बच्ची के बारे में जब उसके अपने जन्मदाता ही नहीं सोचेंगे, तब भला दूसरा कौन सोचेगा? ‘अपनी इच्छानुसार जीने का हक़’ क्या अपने ही बच्चों को सुरक्षित एवं ख़ुशहाल भविष्य देने से बढ़कर है? सामाजिक व्यवस्था का क्या होगा? महल का हर खंभा यदि अपनी लंबाई-चौड़ाई अपनी ही इच्छानुसार तय करने लगे, तो उसकी छत किस पर टिकेगी?
एकदम ही न बन पाए, लड़ाई-झगड़ा होता रहे निरंतर, तो बात अलग है. ज़ुल्म सहने को नहीं कह रही मैं, किंतु बिना किसी ठोस कारण के अलग हो जाना भी तो ठीक नहीं? सवाल और भी हैं. प्यार क्या मौसमी बुख़ार है कि चढ़ा, तो ख़ूब गर्मा गए और उतरा, तो पहले-सी ठंड. या फिर प्यार आधुनिक फैशन-सा है, ‘मौजूदा कपड़े पहनकर हम बोर हो गए हैं. मार्केट में नए क़िस्म के कपड़े आ गए हैं, अब हम वही पहनेंगे.’
नाहिद प्यार के खुले इज़हार से बहुत प्रभावित रहती थी, लेकिन प्यार के इज़हार से इतर भी बहुत कुछ है. प्यार का इज़हार करना या न कर पाना अपनी व्यक्तिगत इच्छा एवं स्वभाव पर निर्भर है और जो हमारे समाज व संस्कृति से भी प्रभावित होता है. कहीं ऐसा तो नहीं कि आपको अपने प्यार की निरंतरता पर संदेह है, तभी उसे बार-बार दोहराते रहते हैं, साथी की वफ़ादारी पर भरोसा नहीं, तभी उससे बार-बार सुनकर आश्वस्त होना चाहते हैं. क्योंकि प्यार का खुला इज़हार तो क्या, कई बार प्यार बिना बोले भी व्यक्त कर दिया जाता है. बिना एक भी शब्द कहे स़िर्फ चेहरे और नज़रों से दिल की बात बयां कर दी जाती है. इससे भी बड़ा चमत्कार यह कि सामनेवाला पूरी तरह से उसे समझ भी लेता है.
उपहार किसे अच्छा नहीं लगता, पर क्या वही प्यार को जानने का पैमाना है? मृत पत्नी की कब्र पर ताजमहल खड़ा कर देनेवाले बादशाह का प्यार जितना सच्चा है, उतना ही झोपड़ी में लकड़ी की आंच पर रोटी सेंकती और पति को दाल के साथ सूखी रोटी परोसती स्त्री का भी है. उस पति का प्यार भी सच्चा है, जो तृप्त हो रोटी सेंकती अपनी पत्नी पर प्यार भरी एक नज़र डालता है. दरअसल, प्यार की कोई एक परिभाषा नहीं. जितने मनुष्य, उतनी ही प्यार की परिभाषाएं, अभिव्यक्ति के उतने ही तरी़के.
बस, यह विश्वास अवश्य होना चाहिए कि मेरे दुख-सुख का एक साथी है, जो ज़रूरत के समय मेरा संबल बनेगा. स़िर्फ यही एक एहसास सब उपहारों से बढ़कर है.
उषा वधवा
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