कहानी- रिश्तों का वर्गीकरण (Story- Rishto Ka Vargikaran)
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“बेटी तो बस बेटी होती है मैडमजी, चाहे किसी भी कोख से जन्मी हो, है तो घर की ही बेटी न.” माधवी के कानों में बाई के शब्द गूंज रहे थे. काश, ननदजी भी इन विचारों की होतीं, तो मीरा को चार साल मां के प्यार से दूर नहीं रहना पड़ता.
''अरे रानी, आज तू आई है? मम्मी कहां है?” माधवी ने रानी से पूछा.
“मम्मी की तबीयत ठीक नहीं है, तो आज मैंने उन्हें काम पर नहीं आने दिया.” रानी ने झाड़ू हाथ में उठाते हुए कहा.
“फिर तेरा स्कूल?”
“नहीं गई. मम्मी को ऐसी हालत में छोड़कर कैसे जाती. चेतना और अमर को भेज दिया स्कूल और मम्मी को ज़बर्दस्ती सुलाकर आई हूं.” रानी ने झाड़ू लगाते हुए जवाब दिया.
“अच्छा, तो आज मम्मी को आराम दिया है.”
“अरे नहीं मैडमजी, आप तो जानती हैं ना मम्मी को, वो काम से छुट्टी कभी नहीं लेती. अगर मैं स्कूल चली जाती ना, तो मम्मी बाद में चुपचाप उठकर काम पर आ जाती. पढ़ाई का क्या है, शाम को सहेली की कॉपी लेकर पढ़ लूंगी, लेकिन मम्मी की देखभाल ज़्यादा ज़रूरी है.” रानी ने जवाब दिया.
उसकी मातृभक्ति के आगे माधवी निरुत्तर हो गई. “अच्छा ऐसा कर, आज पोंछा मत लगाना और कपड़े भी रहने दे, मैं मशीन में धो लूंगी. तू जल्दी से काम ख़त्म करके मम्मी के पास चली जा.” माधवी ने कहा तो रानी ख़ुश हो गई.
कितनी चिंता है इसे अपनी मां की, वरना आजकल के बच्चे तो एक कप चाय तक बनाकर नहीं देते अपनी मां को.
रानी हमारी कामवाली बाई की सबसे बड़ी बेटी है. अक्सर ज़िद करके अपनी मां के साथ आ जाती है काम में हाथ बंटाने. रविवार और स्कूल की छुट्टी के दिन तो वह अपनी मां को अकेले काम पर आने ही नहीं देती, बहुत प्यार है मां-बेटी में.
रानी काम करके चली गई, तो माधवी अपने कमरे में आकर अपना सूटकेस पैक करने लगी, बड़ी ननद के बेटे की शादी में जो जाना है. पति मोहन को तो ऑफिस से छुट्टी नहीं मिल रही. बच्चे मीरा और मधुर अपनी-अपनी पढ़ाई और प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में लगे हैं. माधवी अकेली ही जा रही है. इसी बहाने सब रिश्तेदारों से मिलना भी हो जाएगा, वरना आजकल बिना काम के कौन किसके घर जाता है. बरसों हो जाते हैं, अपने रिश्तेदारों से मिले हुए.
मीरा का भी इंजीनियरिंग में सिलेक्शन हो गया है. चार शहरों के कॉलेज मिले हैं, लेकिन माधवी का मन है मीरा को बड़ी ननदजी के शहर से ही पढ़ाई करवाए. पैसों की कमी नहीं है कि हॉस्टल या कमरा लेकर नहीं रख सकते, मगर सवाल है बेटी की सुरक्षा का. कॉलेज तो दूसरे शहरों के ज़्यादा अच्छे हैं, मगर माधवी का मन नहीं है बेटी को अकेले रखने का. बुआ के घर रहेगी, तो माधवी निश्चिंत रहेगी. बुआ और मां में कोई फ़र्क़ थोड़े ही ना होता है.
शादी में पहनने के हिसाब से साड़ियां, गहने आदि सहेजकर रखे. लेन-देन और उपहार का सामान रखा. छोटे हैं तो क्या हुआ आख़िर मोहन भाई हैं उनके, बहन के नेग में कमी कैसे कर सकते हैं. यूं भी कई साल हो गए उनके घर गए हुए.
दूसरे दिन शाम को निर्धारित ट्रेन में बैठा दिया था मोहन ने. माधवी सुबह-सुबह ननदजी के शहर ग्वालियर पहुंच गई. ननदोईजी ने स्टेशन पर गाड़ियां खड़ी कर रखी थीं मेहमानों को विवाह स्थल तक पहुंचाने के लिए, सो माधवी आराम से पहुंच गई. शादी के बस एक ही दिन पहले पहुंचना माधवी को बड़ा अटपटा लग रहा था. उसने तो बहुत कहा था ननदजी से, लेकिन उन्होंने कह दिया कि तैयारी के नाम पर बस स्वयं सज-धजकर विवाह स्थल पर पहुंचना है और कुछ नहीं करना है. इसलिए माधवी भी बस समय पर ही आई.
पहले तो शादी-ब्याह में तैयारियां करवाने के लिए दूर-पास के कितने ही लोग दस-पंद्रह दिन पहले से आकर घर में इकट्ठा हो जाते थे, लेकिन आजकल तो दो दिन पहले भी कोई आ जाए, तो बड़ी बात है. पहले बड़ियां, पापड़, सेवइयां, अचार और भी न जाने क्या-क्या बनता था घर में. गेहूं, चावल, दाल, शक्कर के बोरों से भंडारघर भर जाते थे. महीनों पहले से ब्याह की तैयारियां शुरू हो जाती थीं. ताइयां, मौसियां, ननदें, बहनें, बुआ आदि तैयारियों में हाथ बंटाने घर में इकट्ठा हो जाती थीं. तब आयोजन के कार्य में ब्याह प्रमुख होता था. सब लोग कार्य को सफल बनाने में एकजुट हो जाते थे. लेकिन अब! अब ब्याह एक पारिवारिक संस्कार न रहकर, एक सामाजिक आयोजन न रहकर, दिखावा मात्र रह गया है. सारा काम ठेके पर दे दिया जाता है. शायद इसीलिए तरह-तरह की तेज़ और रंगीन लाइटों की चकाचौंध और ऊपरी चमक-दमक के बावजूद अंदर जैसे अंधेरा रहता है.
आलीशान डेकोरेशन और भव्य समारोह जैसे कहीं अत्यंत फीका-सा है, क्योंकि किसी का भी जुड़ाव मुख्य आयोजन से तो होता ही नहीं.
शादी की रस्मों में तो जैसे किसी को कोई दिलचस्पी ही नहीं है. दो-चार रिश्तेदार रस्मों की जगह बैठे भी हैं, तो उनका पूरा ध्यान अपनी ही बातों पर है. विवाह में शामिल सभी औरतें, लड़के-लड़कियां बस, अपने ही फैशन और शृंगार में लगी थीं.
माधवी ने एक गहरी सांस ली. रिश्तेदार आपस में जिस कार्य के लिए एकत्रित हुए हैं, उस कार्य से कोई लगाव, जुड़ाव या दिलचस्पी ही नहीं दिख रही, यूं लग रहा था, जैसे किसी पराए का कोई कार्यक्रम हो रहा है.
माधवी का मन उचाट हो रहा था. कितने चाव से आई थी वो यहां आयोजन में अपना सहयोग देने, सबसे मेल-मिलाप और आत्मीयता बढ़ाने, लेकिन मन की हरियाली बेल जैसे मुरझा गई, स्वयं दूल्हा-दुल्हन भी रस्मों को बोझ मानकर ही निपटा रहे थे. वे भी बस अपने व्यक्तिगत सुख की आस में ही थे.
दूसरे दिन शानदार पार्टी के बाद से ही महंगे उपहारों से मेहमानों की विदाई आरंभ हो गई और सुबह तक तो घर में चार-छह लोग ही बचे थे.
दोपहर में माधवी उत्साह से ननद के पास जाकर बैठी कि अब मीरा के बारे में बात करेगी. ननदजी के दोनों बेटे ही थे, बेटी नहीं थी. माधवी पूरी तरह आश्वस्त थी कि ननदजी मीरा को भरपूर लाड़-दुलार से अपने पास रखेंगी. कुछ देर सामान्य बातें करके माधवी मीरा के बारे में बात करने ही वाली थी कि बाहर कुछ बच्चों के संवाद कानों में पड़े- “नहीं-नहीं ये मेरा भाई नहीं है, ये तो मेरा फर्स्ट कज़िन है और ये मेरा सेकंड कज़िन है.” एक बच्चे की आवाज़ आई. “इन सब में क्या अंतर है?” दूसरे बच्चे का अचरज भरा सवाल सुनाई दिया. “भाई का मतलब सगा भाई, एक ही माता-पिता के बच्चे. फर्स्ट कज़िन का मतलब होता है माता या पिता के सगे भाई-बहनों के बच्चे, जैसे- अनुज मेरा फर्स्ट कज़िन है, क्योंकि उसके पिता और मेरे पिता सगे भाई हैं, लेकिन मिंटू मेरा सेकंड कज़िन है, क्योंकि इसकी मां मेरे पापा की बुआ की बेटी हैं.” पहले बच्चे ने कुछ ऐसे स्वर में कहा जैसे बहुत बड़े ज्ञान की बात बता रहा हो.
माधवी यह सुनकर बड़े आश्चर्य और क्षोभ में पड़ गई. एक बार उसने बचपन में अपने चाचा की बहन को चचेरी बहन कह दिया था, तो मां ने कितना डांटा था उसे कि यह चचेरी-ममेरी क्या होता है, बहन, बस बहन होती है. तब से उसके मन में बस दो ही बातें हैं- भाई और बहन, फिर वो चाहे किसी के भी बच्चे हों. ससुराल में आकर उसने पति मनोज के रिश्तेदारों में भी कभी सगे-चचेरे का भेद नहीं किया, सबको समान प्यार और सम्मान दिया. मगर आजकल के बच्चे इतनी कम उम्र से ही रिश्तों का वर्गीकरण करना सीख गए हैं.
माधवी ने पास में लेटी बड़ी ननद को कहा, “देखो ना जीजी, ये आजकल के बच्चे अभी से कैसी बातें करने लगे हैं. इतनी कम उम्र में ही इनके मन में अपने-पराए का कैसा भेद घर कर गया है.”
“अच्छा है, जो ये पीढ़ी अभी से प्रैक्टिकल है और सब समझती है. हम लोग तो मूर्खतापूर्ण भावुकता में पड़कर अब तक अपनी ऊर्जा ही व्यर्थ करते आए हैं. सबके मन रखने में और सबके साथ चलने में जीवनभर दुखी ही रहे. आजकल तो प्रैक्टिल रहने और सच को स्वीकार कर चलने में ही भलाई है. सगा सगा ही होता है और वाकई में पति-पत्नी और अपने बच्चे बस, यही अपना परिवार है, बाकी सब दूर के लोग होते हैं.” बड़ी ननद की यह व्याख्या सुनकर माधवी का मन दुखी हो गया.
“और मैंने तो तय कर लिया है कि मेरा घर-परिवार बस, मेरे पति, बच्चे और उनकी पत्नियां व उनके बच्चे होंगे. इसके अलावा किसी और की परिवार में गुंजाइश ही नहीं है. मेहमान की तरह आओ, दो दिन रहो और अपने घर लौट जाओ.” आगे यह भी जोड़ना नहीं भूलीं ननदजी. शायद उन्हें कहीं से माधवी के मन की इच्छा की भनक लग गई होगी, तो उन्होंने बात उठने के पहले ही ख़त्म कर दी.
ननदजी कड़वे और तल्ख़ स्वर में बोल तो गईं, मगर यह भूल गईं कि वे भी मनोज की सगी बहन नहीं थीं, मगर मनोज के पिता ने उन्हें बेटी से बढ़कर माना और पिता के गुज़रने के बाद उनकी पढ़ाई-लिखाई, पालन-पोषण से लेकर शादी तक की सारी ज़िम्मेदारियां बख़ूबी पूरी की थीं. आज रिश्तों के बीच लकीरें खींचकर वे पुरानी बातें और प्यार सब भूल गईं.
कहां तो माधवी सोच रही थी कि मीरा को वे मां जैसा प्यार देंगी, सहर्ष स्वीकार करेंगी, लेकिन यहां तो रंग ही अलग हो गए हैं. बच्चों को क्या कहें, वर्गीकरण की लकीरें तो बड़ों ने ही खींचकर रखी हैं.
खिन्न मन से दूसरे ही दिन माधवी अपने घर वापस आ गई. मीरा हॉस्टल में ही रह लेगी. वैसे भी बहुत संस्कारी और समझदार है और पराएपन के बोझ तले भी नहीं रहेगी.
बच्चे पढ़ने में व्यस्त हो गए और मनोज ऑफिस चले गए. बाई अपनी बेटी के साथ काम करने आई, उसकी आंखें सूजी हुई थीं. आते ही उसने बताया कि बेटी की शादी है. वह अगले महीने छुट्टी लेगी और रानी तो कल ही गांव जा रही है. शादी गांव से होगी.
“अरे, पर शादी के पहले तो उसे ज़्यादा से ज़्यादा समय तुम्हारे साथ रहना चाहिए. तुम इतनी जल्दी उसे क्यूं भेज रही हो?” माधवी ने आश्चर्य जताया.
“अरे मैडमजी, अगले महीने ससुराल चली जाएगी, तो उसके माता-पिता की इच्छा है कि थोड़े दिन उनके पास रह ले, इसलिए भेजना पड़ रहा है. आख़िर वो मां-बाप हैं उसके.” बाई ने आंसू पोंछते हुए जवाब दिया.
माधवी बुरी तरह चौंकी. वह तो पिछले सात साल से यही समझ रही थी कि यह बाई की बड़ी बेटी है, “वह तुम्हारी बेटी नहीं है क्या? मैं तो उसे तुम्हारी बेटी ही समझ रही थी.”
“बेटी तो बस बेटी होती है मैडमजी, चाहे किसी भी कोख से जन्मी हो, है तो घर की ही बेटी न. गांव में 5वीं के बाद स्कूल नहीं था, तो मैं ले आई थी पढ़ाने उसे.” बेटी के वियोग की कल्पना से ही उसकी आंखें भर आ रही थीं.
“बेटी तो बस बेटी होती है मैडमजी, चाहे किसी भी कोख से जन्मी हो, है
तो घर की ही बेटी न.” माधवी के कानों में बाई के शब्द गूंज रहे थे. काश! ननदजी भी इन विचारों की होतीं, तो मीरा को चार साल मां के प्यार से दूर नहीं रहना पड़ता.
माधवी मंत्रमुग्ध-सी देखती रह गई. सात सालों में एक बार भी उसे यह आभास तक नहीं हुआ कि दोनों सगी मां-बेटी नहीं हैं. कितना प्यार है दोनों में, निःस्वार्थ और निश्चल. कानों में बड़े घर में सुने गए “फर्स्ट कज़िन, सेकंड कज़िन” शब्द गूंजने लगे और दिल में कहीं सुकून-सा छा गया. ‘चलो आज भी समाज का कोई तो तबका ऐसा है, जहां रिश्तों के बीच वर्गीकरण की लकीरें नहीं खिंची हैं.’
डॉ. विनिता राहुरीकर
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