सोचती हूं कि दिन-रात की भागदौड़, अकेले खाना खाना, अकेले शॉपिंग के लिए जाना और व्यस्तता की मार से बचे थोड़े-बहुत रिक्तता के क्षण भी अकेले ही बिताना... क्या यही जीवन रह गया है. तो फिर विवाह होने और न होने के बीच अंतर ही क्या बचा है? क्या मांग में हल्का-सा सिंदूर लगा लेने की औपचारिकता मात्र से वैवाहिक जीवन की सार्थकता पूरी हो जाती है. ढेरों प्रश्न कौंध रहे हैं मेरे मन में! अधिक और अधिक पाने की चाह में लगता है जीवन कहीं खो गया है.मेरा नाम शरद है...
दस वर्ष पहले मैं एक प्राइवेट फर्म में क्लर्क था, लेकिन आज मैं कुछ बड़ा आदमी बन गया हूं... और बड़ा बनने की अदम्य इच्छा निहित है. इस सब में नेहा का भी सारगर्भित योगदान है. मैं अभी-अभी ऑफ़िस से आया हूं. मुझे मालूम है कि नेहा घर पर नहीं होगी. वह भी क्या करे? अतिरिक्त आय के लिए कुछ अतिरिक्त तो करना ही होता है. कोचिंग इंस्टीट्यूट में पढ़ाने गई होगी. घर पर होगी मेरी आठ साल की इकलौती पुत्री अलीशा. अकेले रहने की उसे भी आदत-सी हो गई है. सड़क छोड़ आगे बढ़ा, तो अंदाज़ा ग़लत निकला. घर के दरवाज़े पर ताला पड़ा था. मैं समझ गया, अलीशा कहीं गई होगी और ज़रूर कोई संदेश छोड़ गई होगी.
ताला खोलकर मैं सीधा बरामदे में गया. वहां पिछले दस बरसों से एक स्लेट टंगी है, इसी तरह की स्थितियों के संदेशों के लिए. यह स्लेट उस समय टांगी गई थी, जब मोबाइल फ़ोन का दौर शुरू ही हुआ था और हमारी हैसियत नहीं थी उसे लेने की. बाद के दिनों में दो मोबाइल फ़ोन होने के बावजूद मितव्ययता के लिए स्लेट और चॉक की महत्ता घर में बनाए रखी गई. कुछ आदत भी हो गई है उससे जुड़े रहने की. अलीशा को अभी मोबाइल फोन हमने नहीं दिया है. अपनी व्यस्तता के परिवेश में अक्सर स्लेट के माध्यम से ही घर के हम तीन प्राणी यानी मैं, नेहा और अलीशा बातें कर लेते हैं.
पापा मैं अंजलि के घर पर हूं, आज उनके घर पर पूजा है. वह बुलाने आई थी, थोड़ी देर में आ जाऊंगी- अलीशा. मैं चौंका. मैं कामकाज में इतना मशगूल रहता हूं कि पड़ोस में क्या हो रहा है, यह देखने की फुर्सत ही कहां है. मुझे भी तो पूजा में शामिल होना था. थोड़ी आत्मग्लानि-सी थी मन में, जिससे छुटकारा पाने में इस तसल्ली ने साथ दिया कि चलो अलीशा ने ही कुछ औपचारिकता निभा ली.
मैं बचपन से ही महत्वाकांक्षी रहा हूं. जब से मैंने होश संभाला, तभी से मेरे मन में बड़ा और धनी बनने की तलब ने घर बना लिया था. क्लर्क की नौकरी मात्र से मैं संतुष्ट नहीं था, इसलिए विवाह के माध्यम से इसकी क्षतिपूर्ति करने की योजना के तहत तमाम लड़कियां ठुकराने के बाद एमए, बीएड शिक्षा से विभूषित लड़की नेहा को चुना और वह भी तमाम दहेज की शर्तों को मनवाने के बाद. विवाह के कुछ ही दिनों के बाद मैंने नेहा को साफ़ शब्दों में अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में सहयोग देने की हिदायत दे डाली.
“भला आकांक्षाओं के बिना भी कोई जीवन है.” नेहा मेरी बात सुनकर तपाक से बोली. वह तो मुझसे भी एक हाथ आगे निकली. मैं मन ही मन ख़ुशी से झूम उठा. मुझे प्रसन्न जानकर वह उत्साहित हो बोली, “मुझे भी लगता है कि इतने कम वेतन में मेरे सपने भी अधूरे रह जाएंगे.” मैं सही पत्नी का चयन करने की सफलता से अभिभूत हो उठा.
कुछ दिनों बाद मैंने कोशिश करके नेहा को पास के ही शहर में एक प्राइवेट स्कूल में जॉब दिलवा दिया. वह कभी बस, तो कभी ऑटो से आती-जाती थी. उस पर भी जल्द से जल्द दुनिया की सारी सुख-सुविधाएं समेट लेने की धुन सवार थी, इसलिए जल्द ही उसने नौकरी के साथ-साथ स्कूल से लौटने के बाद एक कोचिंग इंस्टीट्यूट में क्लास भी लेना शुरू कर दिया.
इसके बाद हम दोनों ही जुट गए अंधाधुंध धन कमाने के अभियान में. मैं और नेहा सामान्य ड्यूटी ऑवर्स के अतिरिक्त ओवर टाइम करने में इतने मशगूल हो गए कि आपस में खुले मन से तसल्ली के साथ बातचीत का समय भी कभी-कभार मुश्किल से ही निकाल पाते थे. विवाह के पहले साल में जब हम दोनों कुछ खाली थे, तभी अलीशा ने जन्म ले लिया. वह आठ साल की होने के बाद भी अकेली है.
पिछले क़रीब दस वर्ष की अवधि में जी तोड़ मेहनत के बाद हमने धन और सुविधाएं हासिल कर ली हैं, फिर भी और... अभी और... की तृष्णा नहीं बुझी है. कभी-कभी सोचता हूं कि क्या ये दस वर्ष कभी लौटकर आएंगे? निश्चित रूप से कभी नहीं. आलीशान बंगला, कार सब कुछ है मेरे पास. नहीं है, तो परिवार के साथ रहने के कुछ क्षण. जिस सुख से लिपटे भविष्य को पाने के लिए मैंने अपने वर्तमान को भुला दिया था, वही सुख सब कुछ होते हुए भी न जाने कहां खो गया है. उसे भोगने की न तो रुचि रह गई है और न ही समय है मेरे पास.
सामाजिक रिश्ते भी छूट से गए हैं. लोगों के कमेंट्स पर हम दोनों फीकी हंसी की खींसे निपोर देते हैं. कृत्रिमता में सहजता आए भी तो कहां से! अधिक व्यस्तता और उससे उपजी थकान व तनाव के कारण मेरे और नेहा के बीच प्रेम की जगह संवादहीनता, तनाव और तर्क-वितर्क ने ले ली है. घर की नीरवता अगर कभी टूटती भी है, तो केवल वाक्युद्ध से. ज़्यादा बहस होने पर मैं घर से बाहर निकल जाता हूं सुकून पाने, जो काफ़ी ख़ाक छानने के बाद भी कहीं नसीब नहीं होता है. यह किस मुसीबत में फंस गया हूं मैं?
मैं नेहा हूं...
आज मेरे विवाह की दसवीं सालगिरह है. कोचिंग इंस्टीट्यूट से आते हुए रास्ते में सोच रही थी कि सालगिरह के मौ़के पर शरद जल्दी आ गए होंगे, लेकिन दरवाज़े पर चिरपरिचित बड़ा-सा ताला लगा मिला. वैसे ताला लगा मिलना कोई अनोखी घटना तो थी नहीं, लेकिन आज के दिन भी! बरामदे में गई, तो संदेश मिला, लेकिन अलीशा का. ‘मम्मी, पापा आए थे, दोबारा ऑफ़िस गए हैं. मैं अंजलि के घर हूं- अलीशा.’ बुझे मन से बेडरूम में बिस्तर पर औंधी-सी पसर गई.
मुझे वह दिन याद आया, जब शरद जैसे कमाऊ आदमी के साथ विवाह का प्रस्ताव सुनकर मैं धन्य हो गई थी, लेकिन आज न जाने क्यों अपनी उस धन्यता को आत्मसात् नहीं कर पा रही हूं. मैं महत्वाकांक्षी थी. कमाऊ पति ही मेरी तमन्नाएं पूरी कर सकता था, यही सोचकर मेरे घरवालों ने तमाम मशक़्क़त के बाद शरद जैसा पति खोजा था मेरे लिए. लेकिन जैसा सोचा था, वैसा हुआ नहीं. शरद की नौकरी और ओवर टाइम से अच्छी-ख़ासी आमदनी नाकाफ़ी है. इससे उपजी झुंझलाहट से विवाह के कुछ दिनों बाद ही जब-तब हमारे बीच झगड़ा होने लगा था. इसके समाधान के रूप में शरद के साथ-साथ मैं भी स्कूल की नौकरी और कोचिंग इंस्टीट्यूट में पढ़ाने के माध्यम से नोट छापने की मशीन बन बैठी. आमदनी बढ़ी, तो मनचाही ख़रीददारी करने लगी. रेडीमेड कपड़ों और तरह-तरह के होम एप्लायंसेज़ से घर भरता जा रहा था. नहीं भर रहा था, तो वह था हमारा अपूर संसार.
हम तीनों की अलग-अलग दुनिया है. अक्सर एक-दूसरे से अनजान भी रहते हैं हम. कभी-कभी लगता है कि हम मशीन तो नहीं हो गए हैं. जब-तब मुझे अलीशा को अकेलापन देने के कटु सत्य की आत्मग्लानि भी प्रताड़ित करती रहती है. मुझे याद आ रहा है कि जब अलीशा तीन साल की हो गई थी, तब एक बार शरद ने मुझसे कहा था, “नेहा, अलीशा बहुत अकेली रहती है. उसके साथ खेलने और शेयर करनेवाला कोई नहीं है. दूसरे बच्चे के बारे में तुम क्या कहती हो.”
मैं चौंकी. जिस रफ़्तार से हम आगे बढ़ रहे थे, उसके रास्ते में बच्चा एक बाधक बन सकता था. मैंने ताना मारते हुए कहा, “तुम तो हमेशा तरक़्क़ी की बातें किया करते थे. क्या हो गया है तुम्हें?” शरद के पास कोई उत्तर नहीं था. मैं अपनी विजय पर ख़ुश थी, उनका बाण उन्हीं के ऊपर छोड़कर.
लेकिन अब अलीशा का अकेलापन मुझे कचोटता रहता है. इसकी दोषी मैं ही थी, तो किससे क्या कहूं? असहनीय घुटन की पीड़ा भोग रही हूं. क़रीब एक महीने पहले की ही बात है, जब अलीशा खेलने के लिए ज़िद करने लगी थी.
“मम्मी, मेरे साथ कोई नहीं खेलता है. आप लूडो खेलो ना.”
“पापा से कहो.” मैं झुंझला गई. काम की थकावट का बोझ मैंने अलीशा पर डाल दिया.
“देख नहीं रही हो ओवर टाइम की फ़ाइलें निबटा रहा हूं.” शरद कर्कश स्वर में बोले.
जब अलीशा जबरन शरद से चिपटने लगी, तो उन्होंने उसका हाथ पकड़कर झटक दिया, “अब तुम बच्ची नहीं हो. चुपचाप लेसन तैयार करो और सो जाओ.”
“यह नहीं कि ज़रा-सा उसका दिल बहला दें. सोचते हैं कि मम्मी तो संभालेगी ही.”
जब हमारे बीच विवाद बढ़ने लगा, तो सहमी-सी अलीशा लूडो को मेज़ पर रखकर शॉल लपेटकर गुड़ी-मुड़ी-सी बेड पर पड़ गई.
न जाने क्यों, अब कोई भी बात, चाहे वह कितनी भी साधारण क्यों न हो, कर्कशता और बहस और उसके बाद संवादहीनता का रूप ले लेती है मेरे और शरद के बीच. सोचती हूं कि दिन-रात की भागदौड़, अकेले खाना खाना, अकेले शॉपिंग के लिए जाना और व्यस्तता की मार से बचे थोड़े-बहुत रिक्तता के क्षण भी अकेले ही बिताना... क्या यही जीवन रह गया है? तो फिर विवाह होने और न होने के बीच अंतर ही क्या बचा है? क्या मांग में हल्का-सा सिंदूर लगा लेने की औपचारिकता मात्र से वैवाहिक जीवन की सार्थकता पूरी हो जाती है. ढेरों प्रश्न कौंध रहे हैं मेरे मन में! अधिक और अधिक पाने की चाह में लगता है जीवन कहीं खो गया है.
मैं अलीशा हूं...
जब से मुझे कुछ समझ आई है, तब से मैंने इस घर में सूनापन ही देखा है. मुझे मालूम है कि मम्मी-पापा मुझसे प्यार तो करते हैं, लेकिन दिन-रात के काम और थकने के बाद उनके पास समय ही कहां बचता है? नहीं तो भला अपने अकेले बच्चे को भी कोई ऐसे ही छोड़ देगा! उनकी मजबूरियों ने मेरे लिए उनके अंदर के प्रेम को कहीं दबा दिया है. कुछ दिन पहले की ही बात है, मम्मी-पापा के घर आने पर मैंने अपने बर्थडे की बात क्या छेड़ दी कि कोहराम मच गया.
“मरने की फुर्सत नहीं है, अब बर्थडे की तैयारी में जुटो. कोई ज़रूरी है बर्थडे मनाना?” मम्मी के इन शब्दों ने मुझे रुला-सा दिया. मैं ग़ुस्से में बेड पर औंधी लेट गई.
मेरा उतरा चेहरा देख पापा ने मम्मी को डांटना शुरू कर दिया, “इतनी कठोर हृदय की मां मैंने दुनिया में नहीं देखी. ज़रा बच्चे का मन रख लेती, तो मर नहीं जातीं.”
“तो तुम्हीं क्यों नहीं लगाते गले से? बर्थडे का काम ओढ़ो तो जानूं.” मम्मी क्रोध में बोलीं.
“घर को नरक बना रखा है इस औरत ने. इसलिए मेरा घर आने का दिल नहीं करता.” कहते हुए पापा घर से बाहर चले गए. गनीमत हुई, वरना अक्सर यह विवाद घंटों चलता रहता.
मैं अपने दिल की बात बताऊं. मुझे घर से अच्छा स्कूल लगता है. वहां मेरे कई दोस्त जो हैं. मेरी कॉलोनी के सभी बच्चे अपने मम्मी-पापा और भाई-बहन के साथ अपने दिल की बात शेयर कर लेते हैं. मैं किसके साथ शेयर करूं, किससे अपने मन की बातें कहूं? घर में अक्सर कोई होता ही नहीं है. मेरे साथ हैं, तो बस मेरी क़िताबें और सूना घर. हां, कॉलोनी के कुछ बच्चों के साथ कुछ समय बिता सकती हूं, लेकिन उनकी मर्ज़ी होने तक की शर्त के साथ. कोई ज़बर्दस्ती थोड़े है कि वो मेरे साथ खेलें. यह अकेलापन कब दूर होगा, पता नहीं.
मैं मकां, क्या कहूं...
मैं अपना क्या परिचय दूं, समझ में नहीं आ रहा है. मेरे स्वामी ने वैसे तो मेरा नाम बड़ा आकर्षक और लुभावना रखा है- आनंद, लेकिन सच पूछो, तो यह ऐसे ही है, जैसे आंख का अंधा नाम नैनसुख, क्योंकि मैं ख़ुश हूं ही कहां. जब से वजूद में आया हूं, तब से अकेलापन महसूस करता रहा हूं. सोचता हूं कि अगर अपनी बात नहीं कहूं, तो कहानी अधूरी रह जाएगी. आप मुझे कुछ और न समझ लेना, मैं वह मकान (घर नहीं, घर में तो ख़ुशियां बसती हैं) हूं, जहां शरद, नेहा और अलीशा रहते हैं. इन तीनों प्राणियों में उपेक्षा की साम्यता के चलते मुझे अलीशा से अधिक लगाव है, क्योंकि ज़्यादातर वही मेरे साथ रहती है. मैं पूछता हूं कि जब मुझे यूं ही अकेला छोड़ देना था, तो मुझे अस्तित्व में ही क्यों लाया गया इस संसार में?
मुझे इर्द-गिर्द के पड़ोसियों को देखकर बड़ी ईर्ष्या होती है और साथ में दुख भी. कुछ तो मेरे जैसे हैं, लेकिन कई साथी तो साधारण ही हैं. मेरी जैसी साज-सज्जा उन्हें नसीब नहीं है, फिर भी वे काफ़ी ख़ुश नज़र आते हैं. उनके मालिक और मालकिन उन्हें बड़ा स्नेह और अपनापन देते हैं. अक्सर हंसी-ठिठोली, आपसी प्रेम से भरी बातचीत, लोगों का आना-जाना और बच्चों के बीच खेलकूद की किलकारियों का माहौल बना रहता है उनके पास. और मेरे पास क्या है सिवा एक अंतहीन नीरवता के? पेट्रोल की क़ीमत में बढ़ोतरी को लेकर विपक्ष का भारत बंद आह्वान के कारण मजबूरी में शरद, नेहा और अलीशा को घर पर ही रहना पड़ा है. फिर भी घर में कोई रौनक़ नहीं आ सकी. हमेशा चुप रहने की आदत में यकायक बदलाव आता भी तो कैसे?
लेकिन पड़ोस के वीरेश के घर में सुबह से ही ख़ासी चहल-पहल है. वीरेश का परिवार कुछ ही दिनों पहले इस कॉलोनी में आया है. कोई ख़ास आमदनी नहीं है. प्राइमरी स्कूल में शिक्षक ही तो है वह. घरेलू पत्नी सुलक्षणा और दो जुड़वां बेटियां सोना, मोना, इन चार प्राणियों के ख़र्चे का बोझ भी उनकी ख़ुशियां नहीं छीन पाया है. जब देखो, किसी न किसी बहाने घर में हंसने-खेलने और उमंग का माहौल बना रहता है, जैसे नित नया उत्सव हो.
कॉलबेल की आवाज़ सुनकर जब शरद ने दरवाज़ा खोला, तो सामने वीरेश और सुलक्षणा खड़े थे. वीरेश ने कहा, “देखिए भाई साहब, बड़ी मुश्किल से आपको भी समय मिला है. आज दोपहर का भोजन आप हमारे घर पर करिएगा.”
“धन्यवाद, क्या कोई ख़ास ओकेज़न है?” शरद ने पूछा.
“अजी ख़ुशियां बांटने का कोई ख़ास मौक़ा थोड़े ही होता है. यह काम तो किसी भी बहाने किया जा सकता है.” वीरेश ने कहा. फिर मुस्कुराते हुए सुलक्षणा से बोला, “आप ही बता दीजिए.”
“भाईसाहब, अपनी शादी और बेटियों की सालगिरह का फंक्शन तो हम पहले ही दूसरी कॉलोनी में मना चुके हैं. यहां आने के बाद लगा कि अब नया क्या करें. तभी अपनी इंगेजमेंट की सालगिरह याद आ गई. बस, होने लगी उसकी तैयारी. आप और आसपास के दस परिवार होंगे. आप आइएगा ज़रूर.” सुलक्षणा ने फिर नेहा से भी कहा, “भाभीजी, सब घर में ही तैयार करना है. कुछ हाथ बंटा दीजिएगा. भाईसाहब, आपको कोई ऐतराज़ तो नहीं है ना?”
“नहीं, नहीं, यह तो और ख़ुशी की बात है, क्यों नेहा?” शरद खुलकर बोल पड़ा. हमेशा बनी रहनेवाली मन की घुटन न जाने कहां तिरोहित हो गई.
“क्यों नहीं, क्यों नहीं.” नेहा ने भी सहज हंसी के साथ कहा.
जब शरद और नेहा अलीशा के साथ वीरेश के घर पहुंचे, तो मध्यम स्तर के घर और कम सुविधाओं के बावजूद सहजता, प्रेम, अपनत्व, सहयोग और प्रसन्नता का परिवेश देखकर अचंभित हो उठे. उन्हें वीरेश के घर की तुलना में अपने सारे वैभव और सुविधाएं बौने नज़र आने लगे. हंसी-ठिठोली और रुचियों से भरे वातावरण ने उन्हें कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया. घर की आवश्यकताओं के लिए पैसा ज़रूरी तो है, लेकिन पैसा सब कुछ नहीं दे सकता. केवल सुविधाओं और वैभव से ही घर की सारी ख़ुशियां हासिल नहीं की जा सकतीं. कभी-कभी तो अधिक पैसों का मोह उल्टे ख़ुशियां छीन लेता है और ऊंचे स्तर और वैभव पाने की उम्मीद पारिवारिक परिवेश में अंतहीन अवसाद भर देता है.
तीन घंटे का समय कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला. शरद और नेहा आज काफ़ी हल्का महसूस कर रहे थे. सबके बीच उन्होंने घुल-मिलकर ढेरों बातें कीं. कोई ख़ास विषय नहीं, कोई गणित के आकलन या औपचारिकता बंधे शब्द नहीं. कुछ समय उन्हें आपस में बातें करने का भी मिल गया. तनाव के बोझ से मुक्त नेहा ने नौकरी और कोचिंग क्लास छोड़ने और शरद ने ओवर टाइम नहीं करने का निर्णय भी ले लिया. यूं लगा, जैसे खुले आकाश की बयार में पंछी की तरह उड़ रहे हों.
जाते समय शरद और नेहा ने वीरेश के घर आए सभी परिवारों को दूसरे दिन अपने घर पर रात्रिभोज का निमंत्रण दे दिया. पूछने पर उन्होंने बताया कि आज उनकी शादी की सालगिरह है. यद्यपि ऐसी कोई बात थी नहीं.
असलम कोहरा
अधिक कहानी/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां पर क्लिक करें – SHORT STORIES