"ये क्या हाल बना रखा है अनु?" "कुछ नहीं सुमि, समय की चढ़ती धूप ने सब कुछ सोख लिया है. शब्दों की भाषा वो मिट्टी के बेलों से बतियाना, मैं सब कुछ भूल गई रे सुमि. वे ढेले, पत्ते भी मेरी राह तकते-तकते गूंगे हो गए होंगे."
आंख अलसा रही थीं, पलकों की चादर नयनों पर तनती फिर उघड़ जाती. आज मैं चाहकर भी अपनी डायरी नहीं लिख पाई थी. वजह? पवन झकोरों की हरकतों ने मन की अतीत की पगडंडियों पर लाकर खड़ा कर दिया था.
अभी दो घंटे पहले मैं जैसे ही अपनी डायरी पर कलम चलाने को तत्पर हुई थी कि अचानक हवा के तेज झोंके से डायरी के पृष्ठ फड़फड़ाहट की आवाज़ के साथ उल्टे-पल्टे फिर समीर की अठखेलियों ने जो पृष्ठ खोला वह मेरे अब तक के बीते दिनों का सबसे उदास अनुभूतियों का शब्द बटोर था...
तारीख़ १३ फरवरी... जिस दिन 'अनु' की चंचलता काल समुद्र निगल गया था. 'अनु' का धुंधला-धुंधला चेहरा मेरे सामने मुस्कुराता खड़ा है, वो चहकती हुई मुझसे कहने लगी...
"देखो तुमने कितनी कोमल नन्हीं-नन्हीं गुलाब की पंखुड़ियों को अपने पैरों तले रौंद डाला सुमि." उसके नयन भीग गए थे.
"ख़ैर कोई बात नहीं, मैं चुनकर इन्हें गुलाब की जड़ के अस्तित्व में मिलाने के लिए छोड़ देती हूं." कहकर उसने सारी पंखुड़ियों को बीन-चुनकर गुलाब के पेड़ की 'गुड़ाई-परिधिवृत्त' के भीतर सहेज दिया.
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"अरे अनु, ये क्या किया तूने? इससे क्या होगा?"
"ये सरस पंखुड़ियां सुमि, खाद बन इसकी जड़ों में, तने में, फिर शाखाओं, पत्तियों, फूलों में समा जाएंगी. यह सब कर मेरी आत्मा को कितना सुकून मिला, तू नहीं जानती सुमि..."
"मुझे तो तेरी आदत मालूम है, पर अनु, तू ससुराल में ऐसी बकबक करेगी तो तुझे सब पागल समझेंगे."
"नहीं सुमि, वहां भी मैं अपने आंगन, बगीचे की सोंधी-सोंधी मिट्टी के ढेलों, फूलों-पत्तियों पर मदहोश पड़ी शबनम सी ओस की बूंदों से बातें करूंगी, उन्हें कहानी का पात्र बनाऊंगी."
"और ये सब न कर पाई तो..?"
"नहीं सुमि, लिखना मेरा सपना है. इसके बिना में जी न सकूंगी."
अतीत की गहराइयों में झांककर मैं एक पल भूल गई थी कि अनु अब नहीं है... इस दुनिया में, वो तो...
आशा के विपरीत वैसा ही हुआ जिसकी मुझे आशंका थी.
अनु के सपने पूरे न हो सके थे. शब्दों के संग आंख-मिचौली खेलना वह घर-गृहस्थी की ज़िम्मेदारियों के बीच भूल सी गई थी. वो दिन मुझे अच्छी तरह याद है.
अनु की ख़ुशी के लिए उसके कहानी पात्रों से दोस्ती करने का अभ्यास कर रही थी. तभी एक दिन तार के दो शब्द अनायास मेरे ज़ेहन में आकर धंस गए, "अनु चल बसी."
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ब्याह के दो साल बाद उसके बुलाए जाने पर अलमोड़ा पहुंची.
अधमैला सा पल्लू, पैरों की बिवाई से झांकती रक्त लालिमा, हाथों पर उभरी काली रेखाएं बिना कुछ बोले-सुने उसकी व्यथा कहानी सुना गई थीं. मैं उसे देखकर सहम गई थी, यह वो अनु है... नहीं..?
मेरी आंखें छलछला आई थीं. हम दोनों गले मिली. आंसुओं की तह दोनों दिलों को भिगो गई थी.
"ये क्या हाल बना रखा है अनु?"
"कुछ नहीं सुमि, समय की चढ़ती धूप ने सब कुछ सोख लिया है. शब्दों की भाषा वो मिट्टी के बेलों से बतियाना, मैं सब कुछ भूल गई रे सुमि. वे ढेले, पत्ते भी मेरी राह तकते-तकते गूंगे हो गए होंगे."
अनु ने अपनी आलमारी से कोरे काग़ज़, कलम निकालकर मेरी तरफ़ बढ़ा दिए थे.
"अब तू मेरा सपना साकार करना सुमि." वह बोले जा रही थी...
"मेरा दम घुटता है सुमि, वो पल, वो स्मृति बूंदें मेरे मन को जब-तब भिगो जाती हैं. आकांक्षाओं के बादल बिन बरसे ही... सुमि," कहकर अनु रो पड़ी थी.
"मैं जी नहीं पाऊंगी सुमि. मेरे मरने से पहले सुमि तू मेरे बागों की झूमती डालियों, फूल-पत्तों से, मेरी इकट्ठी की गई सीप शंखी पत्थरों से, मेरी अधूरी कहानियों के पात्रों से दोस्ती कर लेना. सुमि... तुम इस कलम से उन्हें फिर हंसाओगी न? क्या तुम मेरे लिए इतना भी न करोगी?"
मैं निःशब्द बुत सी बनी सब कुछ सुन रही थी. पलकों की कोरें भीग गई थीं. आंसू बह चले थे आंसुओं को लाख समेटने की कोशिश करती, पर प्रयास असफल रह जाते.
अलमोडा से लौटने के बाद मन किसी चीज़ में नहीं लग रहा था. मेज पर रखी अनु की कलम, वो काग़ज़ मुझे घूरते, मैं सहम जाती.
अनु की ख़ुशी के लिए उसकी कहानी के पात्रों से दोस्ती करने का अभ्यास कर रही थी, तभी एक दिन टेलिग्राम के दो शब्द अनायास मेरे ज़ेहन में आकर धंस गए, अनु चल बसी.
न जाने कितने दिनों अनु की आवाज़, वो भोला-मासूम चेहरा और अंतिम मुलाक़ात के क्षण मेरा पीछा करते रहे.
फिर एक दिन हल्के से खनक गूंजी. अनु ने मुझे स्वप्न में याद दिलाया "सुमि, मेरी अधूरी कहानियों के अक्षर शब्द जो समय की राख पड़ने से अधजले बुझे से पड़े हैं. उन्हें तुझे अपनी कलम की साहित्यिक बयार पंखों से चेताना है, जिलाना है... तू तो भूल गई रे... अनु का सपना साकार नहीं करेगी?"
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"अनु मेरी आत्मा जब-जब उन स्याह काग़ज़ों से मिलने जाती है, तो वो अक्षर रो पड़ते हैं."
"सुमि... चल उठा कलम."
अगले दिन मैंने अनु के सारे अधबुझे अक्षर समूहों को बटोरा, अपने घर के पीछे उसके घर-आंगन में, बागीचे में जाकर बैठती, तो पुरानी यादें मन की मिट्टी की स्मृति बूंदों से भिगो देतीं. फिर में अनु के बुद्धि-बीजों की छाप अपने दिलो-दिमाग़ में अंकुरित करने की कोशिश करती. इसी प्रयास में कई कहानियां लिख डाली.
सहसा पवन झकोरे फिर खिड़की पार कर आए और मेरी डायरी से फड़फड़ाकर बात करने लगे. फिर एक तेज समीर का पंख उड़ा जिसकी आहट से वो पृष्ठ फिर पहले की तरह मेरी डायरी के अन्य पृष्ठों के बीच जाकर धंस गया.
- उषा श्रीवास्तव 'आस्था'
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