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कहानी- पुरस्कार (Short Story- Purskar)

जिन गुणों का उसमें नितान्त अभाव था, आज वो भी उसमें पैदा हो गए थे. शायद व्यक्ति के जाने के बाद उसकी क़ीमत बढ़ जाती है. धीरे-धीरे बातों का रुख बदला और निशान्त पर आकर केन्द्रित हो गया.

रात को जगमगाती रोशनी से सजा घर आज सुबह थोड़ा शोक में डूब गया था, क्योंकि इस घर की सबसे छोटी व लाड़ली बिटिया रोहिणी अभी-अभी विदा हुई थी. कुछ स्त्रियों की आंखें अब भी सजल थीं. रोहिणी की मां सबसे ज़्यादा रो रही थीं. आख़िर दुख तो होता ही है अपने कलेजे के टुकड़े को विदा करते हुए, लेकिन सबसे बड़ी शान्ति बस यही थी कि बिटिया अच्छे घर में गई थी, इसीलिए मांजी-बाबूजी व उसके भाई के चेहरे पर पूर्ण सन्तुष्टि के भाव उभर आए थे.

"चलो आज इस ज़िम्मेदारी से भी मुक्ति मिली. बड़ी चिन्ता लग रही थी." अम्माजी आसपास बैठे रिश्तेदारों से बतिया रही थीं. वार्तालाप में रोहिणी या रोहिणी के भैया का ही ज़िक्र हो रहा था. "रोहिणी इतनी अच्छी थी. सारा घर उसने ही संभाल रखा था. मुझे तो पता ही नहीं चलता था कि रसोई में क्या हो रहा है, कहां कोई चीज़ रखी है?"

बतियाने वाली सारी महिलाएं रोहिणी का गुणगान कर रही थीं, "रोहिणी तो ससुराल के अवगुणों को भी निभा लेगी, बहुत गुणी है रोहिणी, अपने व्यवहार से सभी के मन को मोह लेगी, यहां अपनी भाभी के साथ भी बिल्कुल बहन की तरह से रहती थी." जिन गुणों का उसमें नितान्त अभाव था, आज वो भी उसमें पैदा हो गए थे. शायद व्यक्ति के जाने के बाद उसकी क़ीमत बढ़ जाती है. धीरे-धीरे बातों का रुख बदला और निशान्त पर आकर केन्द्रित हो गया.

उनकी बातों से कामना नाराज़ या दुखी नहीं थी. लेकिन उसे अफ़सोस अवश्य हो रहा था, क्योंकि बहू होने के कारण कोई उसका नाम लेने वाला नहीं था. घर में बहू का नाम उस समय बड़ा ज़ोर-शोर से लिया जाता था, जब कोई कार्य घर के अहित में होता था. लाख बार सफ़ाई देने पर भी बहू की बातों पर विश्वास नहीं किया जाता था. कामना ने बचे हुए कार्यों को समेटना प्रारम्भ कर दिया, जबकि उसका बदन टूट कर चूर-चूर हो गया था. तीन दिन से तो आराम का नाम ही नहीं था. फिर भी वह यह सोचकर काम में जुट गई थी कि घर का कार्य तो सारा उसे ही समेटना है, क्योंकि लड़की के विदा होने के एक-दो घंटे बाद ही रिश्तेदार बिदा होने के लिए आग्रह करने लगेंगे. यह सब काम अकेले उसी को समेटना है. काम को थोड़ा हल्का करने के उद्देश्य से ही वह अपनी छोटी बहन नमिता को रोकना चाहती थी.

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नमिता के रुक जाने से रोहिणी की विदाई भी इतनी नहीं खलेगी. वह रोहिणी को प्यार करती थी. वैसे तो तीनों ही ननवें उसे बहुत प्यारी थीं, पर छोटी होने के कारण रोहिणी ने उसके प्यार पर अधिक कब्जा कर लिया था. दोनों, बहनों की तरह ही मिल जुलकर रहती थीं. यह ननद और भाभी के प्यार का ही परिणाम था कि वह सास के कड़वे स्वभाव को भी झेल जाती थी. उसे ससुराल में भी मायके का आभास होने लगता, लेकिन फिर भी वह रोहिणी की विदाई पर रो नहीं पाई थी.

पता नहीं, कामना का हृदय कैसा विचित्र था कि कभी तो वह अनजान लड़की की विदाई पर ही रो पड़ती. रेडियो या टी.वी. पर विदाई गान सुनकर रो पड़ती, लेकिन उसका हृदय आज पत्थर का हो गया और वह अपने नेत्रकोष से दो मोती ननद की विदाई पर समर्पित न कर पाई.

वह शीघ्रताशीघ्र कार्य समेट रही थी. साथ में नमिता भी हाथ बंटा रही थी. उसके कानों में स्त्रियों के बतियाने का स्वर निरन्तर पड़ रहा था.

"हां भई यह निशांत की ही हिम्मत है, जो इस घर की नैया पार लगा दी. नहीं तो न जाने क्या होता?"

"हां भाई बड़ा ही होनहार व समर्पित बेटा है, नहीं तो इस ज़माने में... पूछो मत... एक-एक की कहानी सुनते हैं तो कलेजा मुंह को आता है."

"हे भगवान ऐसा बेटा हर किसी को दे." एक ने भगवान को धन्यवाद में हाथ जोड़ दिए.

"किसी काम को बोझ समझकर नहीं करता, बड़े प्यार व आत्मीयता से करता है. इस ज़माने में तीन-तीन लड़कियों का ब्याह. लोग अपनी बेटियों से घबराते हैं, निशांत बेचारे ने तो तीन-तीन बहनों का दायित्व पूरा किया है."

"हां बेचारा शादी के दो साल पहले से ही घर के जंजाल में फंस गया था और अब तक नहीं निकल पाया. भगवान भी शरीफ़ों की ही परीक्षा लेता है. बहनों से निबटते ही अपनी बेटियों की ज़िम्मेदारी आ जाएगी. तीन बहनें और दो बेटियां, बेचारा ज़िम्मेदारियां निभाते-निभाते ही बूढ़ा हो जाएगा."

कामना प्रतीक्षा कर रही थी कि शायद कभी उसकी प्रशंसा में भी वो शब्द कहे जाएंगे. वह तो अपने पति की ज़िम्मेदारी निभाने में आधे से भी ज़्यादा हाथ बंटा रही थी. कामना के मन में विचारों का ज्वार सा उठ खड़ा हुआ. उसे बहुत अच्छी तरह याद है.

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शादी से पहले उसके कितने सपने थे, 'शादी के बाद तो बस ऐश ही ऐश होगा, लड़का बैंक में कैशियर है. घर का सारा काम निबटाकर आराम से पलंग पर लेटकर टी.वी. पर प्रोग्राम देखा करेगी या टेप पर मनपसंद गाने सुना करेगी. कितना शौक था उसे फिल्मी गाने सुनने का. स्कूल जाते समय यदि कोई मनपसंद गाना रेडियो पर आता होता तो वह अपनी चाल धीमी कर देती. दो-तीन बार तो इसी आदत के कारण विद्यालय में सज़ा भी पा चुकी थी. स्कूल जाते-जाते तो जूते टूट गए हैं. एम.ए. पास कर ली. बस बहुत है. अब घर में... आराम फरमाया करेगी. शादी एक ज़िम्मेदारी का नाम है, इस बात से वह नितान्त अनभिज्ञ थी. उसकी निगाह में तो शादी का अर्थ घूमना-फिरना, सजना- संवरना ही था.

लेकिन उसका ये सपना शीघ्र ही टूट गया. ससुराल में परिस्थितियां मकड़जाल की भांति बुनी हुई थीं, जिनसे निकलना नितान्त कठिन था. ससुर सस्पेन्ड थे, सास फालिज के रोग से पीड़ित थीं, ससुर का केस इलाहाबाद कोर्ट में चल रहा था ऊपर से सास की असाध्य बीमारी पर रुपया पानी की तरह बह रहा था. परिस्थितियों के व्यूह में फंसे इस घर की बड़ी बेटी सुनंदा भी अभी गृहस्थी ज़माने से वंचित थी. घर में कोई दूसरा कमाने वाला नहीं था. घर के काम की अधिकता को देखते हुए सुनंदा ने पढ़ना बीच में ही छोड़ दिया था. छोटी दो ननदें, राधा और रोहिणी विद्यालय में पढ़ती थीं. पति के ऊपर लदे भार को देखकर रोहिणी का सिर भी पहले तो चकरा गया. वह बड़ी बुझी बुझी सी रहने लगी. रिश्ते के समय स्वर्ग सी दिखाई देने वाली यह ससुराल अब समस्याओं का अखाड़ा दिखाई देने लगी थी.

उसकी कोई भी इच्छा घर की समस्याओं के कारण मृगतृष्णा बन गई. ज्यों-ज्यों समय बीतता जा रहा था, त्यों-त्यों उसकी स्थिति में और परिवर्तन आता जा रहा था. पहले तो कामना को इच्छाओं का ही दमन करना पड़ता था, पर अब तो उसे अपनी आवश्यकताएं भी छोड़नी पड़ जाती थीं. संयम की जितनी भी शिक्षा विद्याध्ययन के समय अर्जित की थी, उन सबका प्रयोग उसे अब करना पड़ रहा था. फिर भी घर की समस्याएं सुरसा के मुख समान मुंह खोले खड़ी रहती थीं.

इधर अपनी भी गृहस्थी बढ़ रही थी. लग रहा था, यदि यही हाल रहा तो उसके बच्चे भी आत्मसंयमी और जितेन्द्रिय बनने के लिए बाध्य हो जाएंगे, औरों के बारे में ये सोचते-सोचते वह अपने बारे में सोचना, कोई चीज़ लाना या करना भूल ही गई थी. बच्चों के साथ भी यही हो, वह यह बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थी.

बड़ी ननद सुनन्दा की शादी के समय तो उसने अपने ही हाथों सारा सामान एकत्रित किया था, लेकिन इच्छा होने पर वह एक साड़ी भी नहीं ले सकी, जो साड़ियां शादी के समय दी गई थीं, उन्हीं से शादी में काम चला लिया था. इस खेलने खाने की उम्र में प्रौढ़ों जैसी गंभीरता उसके चेहरे पर आ गई थी.

एक दिन उसने स्वयं भी परिस्थितियों से लड़ने का निर्णय लिया और सास व पति को मना कर बाहर सर्विस के क्षेत्र में पदार्पण किया. अब वह और अधिक मज़बूत जीवन जीने के लिए तैयार नहीं थी. टूट गई थी वह अभाव को बर्दाश्त करते-करते.

घोड़े समय के पश्चात् ही धीरे-धीरे घर की काया पलटने लगी थी. आख़िर एक की कमाई ओर दो की कमाई में अन्तर तो होता ही है. सास का ऑल इंडिया इन्स्टीट्यूट में इलाज करा लिया था. तीन साल के अन्तराल से दोनों ननदों को उनकी ससुराल भेज दिया था. अपने बच्चों को भी इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ाना आरम्भ कर दिया. घर के हालात तो बहुत बदल गए थे, लेकिन इतना घर सजाने-संवारने में उसे सर्विस के साथ-साथ भी त्याग करना पड़ा था. कहावत है न खाली कुएं का पेट भरना बहुत मुश्किल होता है. सुनंदा की शादी के समय तो उसे मायके से प्राप्त आभूषणों को भी बेचना पड़ा था. अपने दहेज के बर्तन तथा अन्य सामान भी ननद को देने पड़े थे. इतना सब करते-करते वह बत्तीस साल की उम्र में भी कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया था, क्योंकि अब बच्चों के ख़र्च बढ़ने लगे थे. ऐसा लगता था मानो घर में पैसा बस उसी के नाम का न हो. वेतन से दुगने ख़र्च थे. पति का वेतन तो घर ख़र्च व बच्चों की आवश्यकताओं में स्वाहा हो जाता. बाकी के ख़र्च उसे ही उठाने पड़ते. कभी-कभी तो वह अपनी आवश्यकता के समय अपने को असहाय देखकर झल्ला उठती, 'आख़िर क्यों उसने अपने ऊपर बोझ लाद लिया है. इतना सब करने के बाद भी उसकी स्थिति में तो किंचित मात्र ही परिवर्तन आया है. फिर यह सोचकर शान्त हो जाती कि बादल अपना सारा जलकोष पृथ्वी को हरा-भरा करने में ही लुटा देते हैं और स्वयं रिक्त होकर चले जाते है. बच्चों की शादी में उसका सहयोग पति से भी अधिक था.

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स्त्रियों का वार्तालाप सुन-सुनकर उसके दिल में विचारों का ज्वालामुखी पर्वत जैसे पिघलकर बाहर आना चाहता था. सोच-सोचकर उसके मस्तिष्क की नसों में तनाव आ गया था. लग रहा था मानो सिर फट जाएगा. उसके हृदय में रह-रहकर एक टीस सी उठती और पूरे शरीर में कौंध जाती. वह परिवार के सदस्यों में अपने को खोजने का प्रयास करने लगी. उसे लगा, जब घर में उसका कोई अस्तित्व ही नहीं तो फिर वह किसके लिए इतना सब कर रही है. किसके लिए उसने अपना सर्वस्व बलिदान कर रखा है. क्यों नहीं वह अपने जीवन को सम्पूर्ण रूप से जी पा रही. यदि तीनों ननदों की शादी उसे न करनी पड़ती तो आज वह क्या इसी हाल में होती. पैतृक सम्पत्ति के रूप में उसे केवल पैतृक ज़िम्मेदारियां मिली थीं, सोचते-सोचते उसकी आंखों के आगे अंधेरा छा गया.

अचानक उसके हाथों से लड्डुओं का बर्तन गिर गया. लड्डू फर्श पर चारों ओर लुढ़क गए और वह अचेत अवस्था में फर्श पर गिर पड़ी. बर्तन गिरने की झंकार कमरे में गूंज उठी, जिसकी आवाज निश्चित रूप से पास के कमरे में भी पहुंची थी. आवाज़ सुनकर सास और दो-तीन स्त्रियां कमरे में आई और पास बैठ गई. बहू की हालत देखकर वह घबरा गईं.

"अरे कोई पानी लाओ, देखो न मेरी बहू को क्या हो गया है. अरे कोई निशांत को बुलाओ." सास की आवाज़ भर्रा गई.

इतने में ही नमिता पानी ले आई थी. सास ने एक हाथ से कामना के सिर को धीरे से उठाया और पानी पिलाने का प्रयास किया. मुंह पर छींटें मारने के साथ-साथ वह बड़बड़ा भी रही थीं, "इतना थक गई है. पहले थोड़ा सा आराम कर लेती. कोई जल्दी थोड़े ही है. आख़िर इंसान ही तो है. लगातार काम करते हुए तो मशीन भी ठप्प हो जाती है." वह धीरे-धीरे कामना के बालों में उंगलिया फिरा रही थीं. कामना को धीरे-धीरे होश आ रहा था. वह अर्द्धचेतन अवस्था में आंखें बंद करके पड़ी थी.

तभी स्त्रियों का वार्तालाप प्रारम्भ हो गया. कुछ स्त्रियों की यह आदत होती है कि वे बहू के सामने सास की और सास के सामने बहू की पक्षधर बन कर अपने को हितैषी सिद्ध करना चाहती हैं. पता नहीं यह प्रेम प्रगट करने की कौन सी पद्धति है. "अरे सास को बातें करता देख इसे लगा होगा कि मैं ही काम क्यूं करूं? इसीलिए बहाना बना रही होगी."

"देखो ना कैसा हाल बना रखा है अपना? ये सब इसलिए जिससे रिश्तेदारों को पता चले कि बहू कितनी दुखी है."

"देखो न ननद की विदाई पर दो आंसू भी नहीं बहाये, नहीं तो अनजान लड़की की विदाई पर भी आंखें भर आती हैं, कमाल है आज की बहुओं का!"

सुनकर कामना का मन कर रहा था कि वह एक-एक को सही जवाब दे. अपने बाल नोंच ले. आख़िर बहू नामक जीव इतना कमज़ोर क्यों होता है? तभी सास की कड़कदार आवाज़ सुनकर वह अवाक रह गई.

"किसी के घर का तुम्हें क्या पता? तुम्हारी बहुएं होंगी ऐसी. मेरी तो बहू नहीं, देवी है, देवी. आज घर में जो रौनक है, वह बहू का प्रताप है. यह घर के लिए निशांत से भी ज़्यादा करती है. ऐसी बहू तुम्हें नसीब नहीं हुई, इसीलिए बात बना रही हो. मैंने पिछले जन्म में मोतियों का दिन किया होगा जो ऐसी देवी मिली है."

सुनकर कामना का हृदय गदगद हो गया. सास द्वारा किया गया मूल्यांकन उसे ऐसा लग रहा था जैसे उसे समाज सेवा के लिए राष्ट्रपति द्वारा देश का सर्वोच्च पुरस्कार मिला है. उसे आज लगा कि वह घर की अहम् सदस्या है. वह इस घर की रीढ़ है.

सास अब भी उसके पास बैठी थीं. कभी हाथ, कभी पांव सहला रही थीं. कामना की आंखें छलक आईं. वह उठी और सास के गले लग गई और फफक-फफक कर रोने लगी, "तुम मेरी मां हो."

"तू तो मेरी पहले से ही बेटी है. तुझे आज पता चला!"

- रेषा‌

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