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कहानी- विदाई (Short Story- Vidai)

इस बार सुमि को विदा करते समय मेरा दिल नहीं भर आया, मेरे पैर नहीं कंपकपाए थे... और न ही सुमि से आंखें मिलाने में मैं कतरा रही थी. आज तो जैसे मेरे हाथ-पैरों में पर लग गए थे और मैं दौड़-भाग कर सुमि की तैयारी कर रही थी.

रातभर का हंसी-ख़ुशी एवं मज़ाक का माहौल अब बोझिल होता जा रहा था. जैसे-जैसे बिटिया सुमि की विदाई का समय पास आता जा रहा था, रंजना की बेचैनी बढ़ती जा रही थी.

उसको समझ में नहीं आ रहा था, किस से क्या पूछे, कैसे विदाई की तैयारी करे? कोई भी उससे कोई बात पूछता तो रंजना का दिल भर आता और शब्द गले में अटक कर रह जाते. रंजना के पति सुमेश ज़रूर बाहर सामान की पैकिंग करवा रहे थे. बारातियों एवं दामाद जितेश की आवभगत में लगे हुए थे. जब रंजना से नहीं रहा गया तो वह अंदर के कमरे में चली गई और खिड़की के पास कुर्सी खींचकर बैठ गई. एक अतीत चलचित्र की तरह रंजना की आंखों में घूमता चला गया...

सुमि उनकी इकलौती बेटी थी. सुमि के जन्म के बाद उसके मन में एक कसक हमेशा उठती रही, काश एक लड़का और हो जाता...

अरे भाई ऐसे समय के लिए तो लड़के की चाह होती ही है. अब देखो न, सुमि तो पराया धन थी, आख़िर जिंदगीभर तो उसे घर में बिठाकर नहीं रख सकते थे...

आज वह दिन आ ही गया, जब सुमि को विदा करना पड़ रहा है. लेकिन सुमि के बाद इस घर के आंगन में कोई किलकारी सुनाई नहीं दी. सुमेश की तो जैसे जान ही थी... सुमि. दो मिनट के लिए वह सुमेश की आंखों से ओझल नहीं हो पाती थी. वक़्त गुज़रता गया और मैंने भी अब अपना प्यार अपनी सुमि पर उढ़ेलना शुरू कर दिया था. हम दोनों की आंखों की दुलारी, राजदुलारी अब सुमि ही तो थी. खाते-पीते, सोते जागते हम दोनों सुमि... सुमि... ही पुकारते रहते थे, और सुमि भी जैसे-जैसे बड़ी होती जा रही थी, इस घर में अपनी अलग ही जगह बनाती जा रही थी. वह इस तरह से सारे घर में समा गई थी कि वक़्त गुज़रते समय ही नहीं लगा और आज उसकी विदाई का भी समय आ गया था. एक बार उसके जन्मदिन पर मैंने अपनी बनाई हुई यह ग़ज़ल भी गाई थी.

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वक़्त तन्हा-तन्हा यूं गुज़र गया

कुछ हक़ीक़त हुआ, कुछ अफ़साना बन गया

एक चाह दिल में लिए बैठी हूं...

वक़्त रुका रहे कुछ इस तरह

सुमि और ज़्यादा दिन रहे,

अपनों की राह...

होती नहीं चाह पूरी कभी अपनी

ये तो दस्तूर है ज़माने का

रहे बेटी जब तक अपने आंगन में

ख़ुशियों से भर दो उसके दामन को...

वक़्त तन्हा तन्हा यूं गुज़र गया

कुछ हक़ीक़त हुआ, कुछ अफ़साना बन गया...

ठुमक-ठुमक कर चलती हुई सुमि बड़ी होती गई. वह दिन हमारे लिए सबसे ख़ुशी का दिन था, जब सुमि ने अपने हाथों से चाय बनाकर हमारे सामने पेश की थी. मैं और सुमेश दोनों ही नौकरीपेशा थे, इसलिए सुमि की देखभाल उसकी दादी ही करती थीं. हमारे और उसकी दादी के शुभसंस्कारों के बीच बहुत कुछ सीखती जा रही थी सुमि. सुमेश का तो जैसे उसके बिना काम ही नहीं चलता था, ऑफिस जाने का समय हुआ कि नहीं उनकी रट शुरू हो जाती थी, "सुमि मेरा पेन कहां है, सुमि मेरे जूते, मेरी टाई, मेरा बैग, मेरा लंच..." और बेचारी सुमि दौड़-दौड़ कर सब चीज़ें देती जाती थी. फिर घर से निकलते समय सुमि दरवाज़े के पास आकर खड़ी होती थी, तब सुमेश जाते-जाते उसके गालों पर एक प्यारा सा चुम्बन दे देते थे, जिसे पाकर सुमि की ख़ुशी का पारावार नहीं रहता था. सुमेश के जाने के बाद मेरी पुकार शुरू हो जाती थी, "सुमि मेरी लाल बॉर्डर वाली साड़ी निकाली कि नहीं, और हां उसके साथ मैच करता हुआ ब्लाउज़ भी निकाल देना, मेरी सैंडिल और बैग..." सुमि सब कुछ करती थी, बिना किन्हीं पूर्वाग्रहों और शिकवा शिकायतों के... मेरे जाने के बाद वह अपनी दादी का थोड़ा बहुत काम करती और स्कूल जाने की तैयारी करने लगती थी.

ऑफिस और पारिवारिक तनावों के चलते कभी-कभी मेरे और सुमेश के बीच तनातनी भी हो जाती थी. और हम लोग एक-दूसरे से बात नहीं करते थे, तब सुमि हम लोगों के बीच सेतु का कार्य करती थी. वह भी खाना-पीना छोड़ देती थी.

मुझे वह घटना आज भी याद है, जब एक बार हम लोगों के बीच तनाव ज़्यादा ही बढ़ गया था और ऐसा लगता था कि अब हमारी डोर टूटने ही वाली है, क्योंकि पति-पत्नी के बीच जब अहं ज़्यादा बढ़ जाए और कोई भी नादानी में समझौता करने को तैयार न हो, तब ऐसी स्थिति आ ही जाती है. तब सुमि की आंखों से अनवरत आंसू बह रहे थे, उसने भी कुछ नहीं खाया-पीया था और वह बोली थी, "क्या आप लोग अपनी बेटी सुमि की खातिर समझौता नहीं कर सकते?" उसकी बात से हम दोनों का अहं न जाने कहां चला गया था और सुमि को अपनी बांहों में समेटे हम काफ़ी देर तक रोते रहे थे. फिर हम दोनों ने सुमि की ख़ातिर प्रण किया था कि अब हम कभी नहीं लड़ेंगे. समय अबाध गति से गुज़र रहा था और सुमि ने बी.एस सी. कर लिया था, इसके बाद उसने पी.एस.सी. फेस करके सांख्यिकी विभाग में सहायक संचालक का पद हासिल कर लिया था. इसी के साथ हमारी चिंता भी बढ़ गई थी. और सुमि के लिए अच्छे लड़के की तलाश हमने शुरू कर दी थी, लेकिन जब भी उसके लिए मैं लड़का देखने जाती एक कसक ज़रूर उठती कि काश! मुझे भी एक लड़का होता... मेरी चिंता उस समय को लेकर ज़्यादा थी, जब हमारे हाथ-पैर थक जाएंगे, हम पति-पत्नी दोनों कमज़ोर हो जाएंगे. बीमार हो जाएंगे, तब हमारी सेवा-देखभाल कौन करेगा? हालांकि मेरी सोच समसामयिक थी, लेकिन सोच से ज़्यादा यह मेरी अत्यधिक चिंता थी.

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"अरे रंजना, तू यहां बैठी है, वहां तेरी पुकार मची हुई है. सुमि और जितेश मंडप के नीचे बैठे हैं." अपनी बड़ी बहन साधना की आवाज़ सुनकर मैं चौंक गई थी और जल्दी से अपने आंसू पोंछती हुई कमरे के बाहर आ गई थी. जिस सुमि को मैंने अपनी गोद में बिठाया था, अपने हाथों से खिलाया था, उसी का सामना करने से मैं कतरा रही थी. मेरी अपनी सुमि आज पराई हो गई थी.

सुमि बार-बार आंखें बचाकर मुझे देख रही थी और मैं उससे बचने की कोशिश कर रही थी. सच में बड़ा कड़ा दिल चाहिए, अपनी बेटी की विदाई के लिए... इस बात का एहसास मुझे आज हो रहा था. सामान बस पर चढ़ाया जा चुका था. बाराती बस में बैठ चुके थे और अब मैं यंत्रवत सी सुमि के गले लगने के बाद, जितेश की परछन उतार रही थी. इसके बाद क्या हुआ, मुझे होश नहीं रहा, क्योंकि रोते-रोते मैं बेहोश हो गई थी. दस दिन गुज़र गए थे. सब कुछ सामान्य सा होता जा रहा था.

सुमि की जगह अब मैं और सुमेश अपना-अपना काम करने लगे थे. उसकी तस्वीरों का एलबम निकाल कर हम काफ़ी देर तक देखा करते थे. फिर पहली विदा के लिए सुमेश चले गए थे. सुमि अपने ससुराल में बहुत ख़ुश थी, जितेश उसे बहुत चाहता था. इसी के साथ मुझे यह भी मालूम हुआ कि जितेश अपने माता-पिता का भी बहुत ध्यान रखता है और सुमि को भी यही समझाता है कि इसी तरह से उसे भी अपने सास-ससुर की सेवा करनी है. इस बात से मेरा सोया हुआ भूत फिर जाग गया कि काश मेरा भी लड़का होता.

अब मैने निश्चय किया कि सुमि को यहां बुला लिया जाए और जितेश का ट्रांसफर यहीं करवाकर उसे घर जमाई बना लिया जाए. आख़िर ये घर और पैसा किसके लिए है? इसलिए मैंने सुमि के मन में ससुराल और सास-ससुर के लिए ज़हर घोलना शुरू कर दिया. पहले तो सुमि उसे नज़रअंदाज़ करती, लेकिन धीरे-धीरे वह मेरे कहने में आने लगी.

सुमि को देखकर एक बार मुझे अपनी शादी के शुरू के दिन याद आ गए थे. सुमि कितनी सुंदर लग रही थी. माथे पर बड़ी बिंदी, कान में बड़ी-बड़ी लटकन वाली झुमकी, हाथों में लाल चूड़ियों के दोनों तरफ़ सोने के कंगन और पैरों में तीन-तीन बिछिए, सच में, मैं भी तो कुछ-कुछ सुमि जैसी ही दिखती थी. हमारे पड़ोस वाली शर्मा बहन जी ने तो कहा था, "रंजना, सुमि बिल्कुल तेरे ऊपर गई है. बड़ी होने पर देखना सुमि कितनी सुंदर लगेगी."

१५ दिन सुमि के रहने के बाद जितेश उसे लेने आ गया था. जितेश मिलनसार था और थोड़े ही दिनों में हम सभी से घुल-मिल गया था. धीरे-धीरे मैंने उसके मन को भी टटोलना शुरू कर दिया, और सुमि के माध्यम से भी मेरी बातें उस तक पहुंच रही थीं. इन्हीं बातों से घर का वातावरण थोड़ा बोझिल सा हो गया था, लेकिन जितेश अपनी समझदारी से सभी परिस्थितियों का सामना कर रहा था. इसी बीच सुमेश को दिल का दौरा पड़ गया... और अत्यंत गंभीर अवस्था में उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा था. सुमि और जितेश ने रात-दिन एक कर दिया था. नर्सिंग होम में शुरू-शुरू में जितेश और मैं ही रुकते थे, फिर जितेश और सुमि रुकने लगे. एक दिन जब मैं नर्सिंग होम पहुंची, तो अचानक जितेश की आवाज़ सुनकर दरवाज़े पर ही रुक गई. जितेश सुमि से कह रहा था, "देखो सुमि,

तुम्हारे मम्मी-पापा का सहारा अब हम दोनों ही हैं. यहां इनकी देखभाल भी करनी पड़ेगी, वह तो भगवान का लाख-लाख शुक्र है कि हम लोग यहां थे, नहीं तो मम्मी अकेली बहुत परेशान हो जातीं. मेरी तरफ़ से तो तुम्हें पूरी छूट रहेगी कि तुम मम्मी-पापा का पूरा ध्यान रखा करो और यहां आया-जाया करो. तुम भी अपने को अकेला मत समझना, मैं भी पूरा साथ दूंगा. एक तरह से देखा जाए तो अब मेरे ऊपर दो-दो माता-पिता की सेवा का भार आ गया है..." और इसी के साथ जितेश हंसने लगा था.

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जितेश की बात से मेरी आंखों पर से परदा उठ गया था. आदमी कितना स्वार्थी होता है. अपने फ़ायदे के लिए दूसरों को कितना भी नुक़सान पहुंचा सकता है. इस बात को सोचकर मुझे अपने से ही ग्लानि होने लगी थी. एक तरह से देखा जाए तो मुझे सुमि के माध्यम से एक पाला-पोसा लड़का भी मिल गया था. मैंने अपने को सामान्य किया और रूम में आकर वातावरण को हल्का करते हुए बोली, "हां तो लाला जी क्या खुसुर-फुसुर हो रही थी." जितेश हंसते हुए बोला, "मम्मी जी, ये लाला जी कहकर आप संबंधों में दूरियां मत लाइए, मैं तो आपके लिए सिर्फ़ जितेश ही हूं... आपके लड़के जैसा ही हूं, आप कभी अपने को अकेला महसूस मत करिएगा."

सुमेश के स्वास्थ्य में अब सुधार होता जा रहा था. सुमि और जितेश एक महीने तक रहे. बड़ा अच्छा लगा सुमि के साथ-साथ जितेश के भी यहां रहते हुए. सुमेश के घर आने के बाद जितेश और सुमि ने जाने की इच्छा प्रकट की. यानी फिर से सुमि की विदाई का समय आ गया था. इस बार सुमि को विदा करते समय मेरा दिल नहीं भर आया, मेरे पैर नहीं कंपकपाए थे... और न ही सुमि से आंखें मिलाने में मैं कतरा रही थी. आज तो जैसे मेरे हाथ-पैरों में पर लग गए थे और मैं दौड़-भाग कर सुमि की तैयारी कर रही थी. सुमि को खाने में क्या अच्छा लगता है, कौन सी साड़ी उस पर फबती है, कौन से कंगन सुमि को पसंद हैं... मैं याद करके रखती जा रही थी. जितेश के लिए ख़ुद ही बाज़ार जाकर शूट लाई थी.

मेरी भाग-दौड़ देखकर सुमेश भी हैरान थे.

सुमि समझ नहीं पा रही थी कि ये मम्मी को क्या हो गया है, उस दिन तो मेरी विदाई पर रो-रोककर बुरा हाल था और आज ख़ुशी-ख़ुशी मेरी विदाई की तैयारी कर रही हैं. लेकिन जितेश सब समझ रहा था. सुरक्षा एक ऐसी चीज़ है, जिसे पाकर व्यक्ति अपना कार्य व्यवहार बदल देता है. सुमेश ने अपने कांपते हाथों से सुमि और जितेश को आशीर्वाद दिया... और मैं अपने हाथों से सुमि की सुहाग पिटारी टैक्सी में रखने पहुंच गई थी. सुमि को गले लगाकर सास-ससुर की सेवा करके उनका दिल जीतने की सलाह दी और जितेश को अपना भरपूर प्यार और आशीर्वाद दिया.

- संतोष श्रीवास्तव

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