"क्यों लाए... कम से कम पूछ तो लेते इतनी महंगी चीज़ लेने से पहले.” एकटक अंगूठी देखती अनामिका की आंखें छलकीं और स्वर भर्राया तो केशव चिहुंके, “अरे, इतनी भी महंगी नहीं है, सॉलीटेयर थोड़े न है. अरे क्या हुआ, अच्छी नहीं लगी. तुम रो रही हो! पर क्यों? क्या इतनी बुरी है.”
“बुरी तो मैं हूं. सगाई में दी तुम्हारी महंगी सॉलीटेयर संभाल नहीं पाई.” केशव को हक्का-बक्का छोड़ वह रो पड़ी.
खुली आलमारी के आगे कपड़ों का अंबार लगा था, चेहरे पर हवाइयां लिए वह आलमारी का एक-एक कोना खंगाल रही थी कि तभी कानों में आवाज़ पड़ी, “अरे दीदी, यही बखत मिला क्या फैलारा डालने के लिए!”
अनामिका ने आग्नेय दृष्टि से घरेलू सहायिका को देखा, जो एक हाथ में झाडू और दूसरा हाथ कमर पर रखे खड़ी थी. तूफ़ान की तरह आने और आंधी की तरह चली जाने वाली रज्जो को दो-चार मिनट के लिए भी होल्ड पर रख दिया जाए, तो झुंझलाकर सुनाने में ज़रा लिहाज़ नहीं करती.
“दीदी, पहले से समेटा-समेटी कर लिया करो. चार घर और भी तो हैं.”
“तुम जाओ, मैं कर लूंगी ये कमरा...” अनामिका के सर्द से लहजे पर वह ठिठकी.
“क्या हुआ, पूरी आलमारी उलट-पुलट डाली. कोई बात है क्या?”
“हां, कुछ ढूंढ़ तो रही हूं, यहीं रखी थी, पर अब मिल नहीं रही.” बेसाख्ता उसके मुंह से निकला, तो रज्जो का मुंह सूख गया.
“क... क्या था दीदी!”
उसके उतरे मुंह पर नज़र डाल वह चेती...चार बरस से रज्जो घर में काम कर रही है. एक सुई भी इधर से उधर नहीं हुई. आलमारी सदा बंद रहती है. वह ख़ुद खड़े होकर झाडू-बुहारू करवाती है. ऐसे में उस पर शक... न नहीं, उसने ही कहीं रख दी होगी.
“बोलो न दीदी, क्या ढूंढ़ रही हो?”
“एक फाइल में ज़रूरी काग़ज़ थे, वही ढूंढ़ रही थी. तू जा मैं लगा दूंगी झाडू.”
सुनते ही उसके चेहरे पर राहत आई. एक कमरे में झाडू लगाने की छूट ने उसके चेहरे को खिला दिया. वह टली तो अनामिका ने सामान रखना शुरू किया. एक-एक दराज फिर से टटोले, सामान रखा फिर उलझा मन लिए नहाने चली गई. नहाने के बाद भी ताज़गी महसूस नहीं हुई. मन उस हीरे की अंगूठी में अटका रहा, जो मिल नहीं रही.
दिमाग़ बार-बार बीते समय में जाकर अंगूठी पहनने और उतारकर रखने के बीच की कड़ियों को जोड़ता रहा, पर आलमारी के लॉकर के अलावा कहीं और रखी हो ख़्याल ही नहीं आया. वैसे भी अपनी आलमारी और दराज़ों में वह किसी को हाथ लगाने नहीं देती. केशव और आर्या को भी नहीं.
एक बार फिर सिरे से खोज आरंभ हुई. सारी पर्सें, अटैचियां, अगल-बगल की आलमारियां तलाश लीं. ये वो जगहें थीं, जहां रत्ती भर उम्मीद नहीं थी. फिर भी इस आस में खंगाली गई कि शायद चमत्कार हो और लाल मखमल की डिबिया झलक दिखा दे, पर नाउम्मीदी ही हाथ लगनी थी सो लगी. इन सबमें सिर फटने को आ गया. अंगूठी की चिंता में निवाला मुंह में नहीं गया तो ऐसा होना ही था. शाम को केशव घर आए तो उसका हुलिया देखकर चौंके, “तुम्हें क्या हुआ?”
“सिर में दर्द है.”
“क्यों?”
“अब इस क्यों का क्या जवाब दूं?” वह झुंझलाई.
“दवा ली?”
“नहीं.”
“तुरंत लो.” उन्होंने फ़रमान सा जारी किया, तो इस कंसर्न पर समझ नहीं आया हंसे या रोए. और कोई होता तो पत्नी के सामने दवाई लिए खड़ा हो जाता, हाथ में दवा धर देता... माथे पर मलहम मलने लग जाता... और नहीं तो माथे पर हाथ रखकर बुखार-वुखार चेक कर तसल्ली तो देता, पर उसके अनोखे और मासूम पति को प्रेम के ये चोंचले समझ में ही नहीं आते.
कुछ देर वह अनमनी सी बैठी रही. फिर चाय बनाने चली गई. खदबदाते पानी को देखते हुए सहसा मन गीला सा हो आया.
दिनभर ऑफिस में बिताने के बाद ये अपेक्षा कि वह उसका माथा सहलाएं, ज़्यादती है. पैसा कितनी मेहनत से आता है. दिनभर ऑफिस में और रातें फाइलों में उलझे बीतती हैं, तब जाकर वह और आर्या एक अच्छा जीवन बिता पा रहे हैं.
चाय लेकर वह आई, तो केशव ने उसके मुरझाए चेहरे को देखकर पूछा, “सिरदर्द ज़्यादा है क्या?” केशव के आशंकित प्रश्न पर वह ठिठकी, फिर धीरे से बोली, “नहीं, सब ठीक है. बस एक बात को लेकर परेशान हूं, जो बताऊं तो...”
सुनते ही केशव के चेहरे पर भय तिर आया. हाथ पकड़कर थोड़े घबराए से बोले, “आर्या तो ठीक है?”
“वो मस्त है, मुझसे ही एक नुक़सान...”
“... नुक़सान की चिंता मत करो, सुबह ही देख लिया था. गाड़ी के दरवाज़े पर तुमने अच्छा-खासा डेंट लगा दिया है.”
“अरे वो बात...”
“ये वो सब छोड़ो. नुक़सान की बातें कल के विशेष दिन तक कतई नहीं.” वह मुस्कुराए.
विशेष दिन यानी उनकी मैरिज एनिवर्सरी... मैरिज एनिवर्सरी के लिए केशव का कंसर्न देख अनामिका सोच में पड़ गई. केशव अमूमन इतने रोमांटिक हैं नहीं. हमेशा तो, ‘मैरिज एनिवर्सरी की प्लानिंग तुम ही करो भाई. जहां कहोगी चल देंगे’ कहने वाले केशव विशेष दिन की चिंता कर रहे हैं. शायद आर्या ने इस बार चेताया हो, “ख़्याल रखना.” ख्याल उसकी मम्मी का... आने वाले विशेष दिन का...
दूध का जला छाछ फूंक-फूंककर पीता है, इसीलिए केशव मैरिज एनिवर्सरी के लिए सतर्क थे. दरअसल, कुछ महीने पहले एक और विशेष दिन आया था और वह था उसका जन्मदिन... उस दिन केशव देर रात घर आए. वो भी खाली हाथ बिना उपहार के. हर साल आर्या कुछ न कुछ ख़रीदकर आर्या और पापा लिखकर दे देती है, पर भीइस बार... न गिफ्ट दिया न समय.
उसका मूड ख़राब देखकर बोले, “चलो तुम्हें कुछ ख़रीदवा दूं, फिर डिनर कर लेंगे.” पूरा दिन इंतज़ार करने के बाद रात आठ बजे यह सुनकर उसका पारा चढ़ गया. नतीज़ा वह न डिनर पर गई और न ही शॉपिंग पर. वो तो भला हो आर्या का. फोन आया, तो सब जान-सुनकर स्थिति संभाली. केक-बुके समेत ऑनलाइन खाना भी ऑर्डर किया.
अगले दिन केशव ने छुट्टी ले ली थी. जन्मदिन पर आहत हुई भावनाओं पर मरहम लगाया गया. शॉपिंग-डिनर सब कुछ था, बस वह दिन विशेष नहीं. उस दिन तय हुआ जो भी हो जाए, ऐसे ख़ास अवसरों पर ऐसी कोई चर्चा नहीं होगी जिससे घर में कलह हो... नेगेटिविटी आए.
सगाई की अंगूठी खोई है यह पक्का भी तो नहीं. कभी-कभी सामने रखी चीज़ नहीं दिखती. एनिवर्सरी निबट जाए, फिर दोनों मिलकर ढूंढ़ लेंगे.
“क्या सोचने लगी. कल के लिए क्या सोचा है?”
“सोचना क्या है, शाम को मंदिर और रात में डिनर पर चले जाएंगे.”
“डिनर पर कहां जाएंगे?”
“जहां कहो.”
“अरे, हर साल एनिवर्सरी को लेकर कितना उत्साहित रहती हो. इस बार इतनी उदासीनता.” केशव ने अजीब नज़रों से उसे देखा, तो उसने अपनी उदासी का सारा दारोमदार आर्या पर डाल दिया.
“आर्या थी तो अलग बात थी, अब अकेले क्या प्लान बनाऊं.”
“ओह समझा... बिटिया को मिस किया जा रहा है. रुको, अभी करते हैं
वीडियो कॉल.”
“अरे नहीं, उसके इम्तहान हैं. अपनी सहूलियत से फोन करने दो. मैं एकदम मूड में हूं. कल डिनर पर पहनने वाली साड़ी निकाल लेती हूं.” कहते हुए वह उठी. साड़ियों के हैंगर टटोलने के बहाने नज़रें लाल मखमली डिबिया को ढूंढ़ती रहीं, पर नतीज़ा शून्य.
लौटकर आई तो देखा केशव लैपटॉप में डूब चुके थे. केशव को ऑफिस के कामों में डूबा देख मन गीला सा हो आया. छोटे-मोटे नुक़सान वह हंसकर टाल देते हैं, पर इतनी महंगी चीज़ न मिलने की बात बताए तो जाने कैसे रिएक्ट करें. ग़ुस्सा तो होंगे नहीं, हो ही नहीं सकता. उनकी फ़ितरत ही नहीं है, पर दुखी हो जाएंगे. दुख और चिंता ज़ाहिर करें न करें, पर उसका ख़ुद का मन तो भारी हो ही रहा है कि जिस अंगूठी से उसकी क़ीमत, भावनाएं, गुदगुदाती यादें जुडी हैं, वह गुम हुई तो भला ख़ुद कैसे सह पाएगी.
शादी-ब्याह, तीज-त्योहारों के अलावा वह अंगूठी मैरिज एनिवर्सरी के दिन तो ज़रूर ही पहनी जाती. इस ख़ास अवसर पर तो सुनहरी यादों को जी लेने का ज़रिया बन जाती वह अंगूठी. दोनों की अरेंज मैरिज में सगाई का वह प्रेमिल पल; जब केशव ने उसे अंगूठी पहनाई थी, सदा के लिए मन में अंकित हो गया था.
“सगाई की अंगूठी जिसे पहननी है, उसकी पसंद की होनी चाहिए.” यह केशव का मानना था. जिससे वह भी सहमत थी. शादी से पहले अंगूठी पसंद करने ज्वेलर शॉप में उसके साथ मम्मी-पापा भी गए थे, जबकि केशव अकेले आए थे.
केशव ने अपने लिए अंगूठी पांच मिनट में ही पसंद कर ली थी. पापा उसका भुगतान करके ले भी आए, पर वह घंटे भर तक अंगूठी के चयन प्रक्रिया में उलझी रही. केशव बड़े धैर्य से बैठे थे. दो अंगुठियों के बीच मामला अटका था. एक चुनी जाने की कगार पर ही थी कि तभी उसकी नज़र एक और अंगूठी पर पड़ी.
“इसे निकालिए.” उसने कहा तो सेल्समैन धीरे से बोला, “ये तो सॉलीटेयर है. महंगा है.”
“ओह!” वह चिहुंकी ज़रूर पर नज़रें अंगूठी पर चिपकी रहीं.
“आपको पसंद हैं तो देख लीजिए.” केशव ने कहा, तो देखने के पैसे कहां लगते हैं वाले अंदाज़ में उसने कंधे उचकाकर सहमति भरकर अंगूठी जैसे ही उंगली में डाली, इतनी परफेक्ट कि जैसे उसकी उंगली के लिए ही बनी हो. सोने की नन्हीं कटोरी में बूंद सा वो हीरा उसका दिल ले उड़ा.
“कितने की है?” केशव ने पूछा तो जवाब आया, “ढाई लाख.”
पापा-मम्मी और उसकी हैरान नज़रें एक-दूसरे से मिलीं. मम्मी ने आंखों ही आंखों में उसे घुड़का और उसने झट से अंगूठी निकालकर रख दी.
“जो पहले देखी थी वही पसंद है.” कहकर उसने भरपूर नज़र सॉलीटेयर पर डाली.
सेल्सपर्सन ने सॉलीटेयर के महंगे होने की सारी वजहें बिना पूछे ही बताईर्ं... कट, रंग, स्पष्टता और कैरेट के स्तर पर वह अव्वल दर्जे की थी. सच, उस सिंगल पीस के हीरे को देख ऐसी फीलिंग हुई मानो समुद्र तट पर खड़े होकर हसरत से डेयरिंग तैराकों को दूर जोश में उठती लहरों से खेलते देख स्वयं किनारे तक सुस्ताने चली आई लहरों में ही पांव भिगोकर ख़ुश हो लिया जाए.
खैर उस दिन तो वह सॉलीटेयर की जगमगाहट मन में बसाए घर चली आई. सगाई वाले दिन जब उसने अंगूठी पहनने के लिए उंगली बढ़ाई, तो वही सॉलीटेयर अंगूठी इठलाती हुई उसकी अनामिका में विराजमान हो गई. उसकी विस्मित प्रसन्नचित्त नज़रें अंगूठी पर और केशव की मुस्कुराती मंत्रमुग्ध नज़रें उस पर टिकी थीं. और वो पल कैद हुआ कैमरे की नज़र से सदा के लिए. मन-मस्तिष्क में तो खैर है ही. इसीलिए एनिवर्सिरी पर तो केशव ज़रूर ही उसकी उंगली सहलाते बोल उठते, “अनामिका की अनामिका में मेरी पहली भेंट.” वो अलग बात है कि रिझाने की वैसी चेष्टा फिर केशव ने कभी नहीं की.
“पुरुष का प्रेम बस विवाह होने तक ही उमगता है. सब कुछ करता है जो प्रेयसी को भाए. ज्यों एक बार बंधन हुआ तो सब ग्रांटेड.” उसका दिया उलाहना सुनकर केशव अपना क्रेडिट कार्ड उसकी ओर बढ़ाकर कह देते, “सब कुछ तो तुम्हारा ही है. जो मर्ज़ी है ले लो. शादी से पहले उसकी एक अंगूठी पर अपनी सेविंग और शादी के बाद अपना क्रेडिट कार्ड उस पर न्योछावर करने वाले केशव बड़ा दिल रखते हैं, वह जानती है. पर बड़ा दिल रखना और दिल न्योछावर करने में अंतर तो है ही.
आज मन में धुकधुकी मची है कि उनकी पहली और अब तक की आख़िरी नायाब भेंट कहां रखकर भूल गई या गुम ही हो गई... कौन जाने. कल केशव की नज़रें उसकी उंगली टटोलेंगी तो क्या करेगी-कहेगी. उधेड़बुन में डूबी वह रात को खाना निपटाकर आई तो केशव ने पूछ लिया, “कल का क्या प्रोग्राम है?”
“कभी तुम भी तो सोचो.”
“अच्छा, सोचता हूं.” कहकर केशव ने आंखें मूंद लीं और जल्दी ही खर्राटे लेने लगे. वह करवटें बदलती रही. दिमाग़ अंगूठी में उलझा रहा, इसलिए देर रात नींद आई. सुबह आंखें खुली, तो केशव बगल में नहीं थे और धूप पर्दे को चीरकर अंदर आ रही थी. रसोई से आती खटपट की आवाज़ सुनकर वह हड़बड़ाते हुए रसोई में गई, तो देखा केशव चाय बना रहे थे.
“अरे, तुम क्या कर रहे हो और मुझे जगाया क्यों नहीं!”
“थोड़ा और सो लेती. आर्या ने कहा था मम्मी को चाय बनाकर सरप्राइज़ कर दो, पर तुम तो पहले ही उठ गई.”
“आर्या! क्या फोन आया था उसका?”
“हां, थोड़ी देर पहले.”
“तो जगाया क्यों नहीं?”
“तुम अलार्म सुनकर नहीं उठी तो लगा, आज नींद अच्छी आ गई. आर्या रात को बात करेगी. मैंने अपनी-तुम्हारी तरफ़ से बधाई ले ली.”
सूरज निकला तो पूर्व से ही था, फिर केशव. वह समझ गई कि केशव आर्या के उकसाने पर ही चाय वाला सरप्राइज़ देने में जुटे हैं.
“पीकर बताओ, कैसी बनी है?” केशव ने चाय की प्याली थमाई, तो उसकी नज़र रसोई के हुलिए पर पड़ी. चाय पत्ती और शक्कर ढूंढ़ने के चक्कर में सारे डिब्बे रैक पर आ चुके थे. कुछ के तो ढक्कन भी ठीक से नहीं लगाए थे. सच कहें तो झुंझलाहट हुई कि सरप्राइज़ का ख़्याल क्यों ही आया. उस चक्कर में उठाया नहीं. अब भागदौड़ करके नाश्ता-पानी निपटाना पड़ेगा सो अलग.
“अरे पियो न.” केशव के इसरार पर उसने प्याली मुंह से लगाई. पानी सी बेस्वाद चाय किसी तरह पीकर वह फ़टाफ़ट गुसलखाने में चली गई. लौटी, तो देखा केशव फोन पर लगे थे. आज एनिवर्सिरी है तो दिनभर फोन आते रहेंगे. और समय होता तो वह बधाइयां बटोर-बटोर हुलसती, पर आज मन उद्विग्न था. केशव जाएं तो एक बार फिर अंगूठी की खोज हो, पर केशव तो उदार मन हो कह रहे थे, “मैं तो जाता ही नहीं, पर कुछ पेंडिंग काम हैं जो निपटाने ज़रूरी हैं. शाम को जल्दी आ जाऊंगा.”
केशव में ये परिवर्तन शायद उसकी उदासीनता की प्रतिक्रिया थी. केशव नहीं जानते कि वह उदास नहीं, सगाई अंगूठी न मिलने से चिंतित है. वह बेचारे उदासी का कारण आर्या की अनुपस्थिति से उपजे उसके अकेलेपन को मानते हुए ज़बरन लीड लेने को बाध्य हैं.
बारह बजे तक वो ऑफिस के लिए निकले तब उसका मोबाइल बजना शुरू हुआ. बधाइयों का तांता लगा और फिर रही-सही कसर कॉलोनी की सहेलियों ने केक के साथ आकर पूरी कर दी. दो-ढाई बजे तक उनसे ़फुर्सत मिली, तो घर और रसोई दुरुस्त की.
साढ़े तीन-चार बजने को हुए वह अंगूठी की खोज में जुटती कि तभी केशव का फोन आ गया, “सुनो, ऑफिस से जल्दी निकल रहा हूं. एक घंटे में पहुंच जाऊंगा. मंदिर के लिए तैयार हो जाना. फिर डिनर के लिए ताज चलेंगे.”
केशव जल्दी आ रहे हैं सुनकर नज़र ख़ुद पर पड़ी. शादी की सालगिरह और इतना अस्त-व्यस्त हुलिया. वह गुसलखाने की ओर भागी. तरोताज़ा होकर सिल्क का गुलाबी सूट पहना. चेहरा हल्के मेकअप से दुरुस्त किया. शाम को मंदिर से आने के बाद डिनर के लिए तैयार होना है यह सोच आलमारी खोल ली. साड़ी निकालते-निकालते एक बार फिर लॉकर टटोला पर नतीज़ा शून्य.
और तभी कॉलबेल बजी, दरवाज़ा खोला तो देखा केशव खड़े मुस्कुरा रहे थे. कुछ ज़्यादा ही मुस्कुरा रहे थे. स्वभाव के विपरीत उनका यह व्यवहार उसे असहज कर रहा था. चाय बनाने वह रसोई में आ गई और केशव फ्रेश होने चले गए. चाय लेकर आई तो देखा केशव ने मुस्कुराते हुए एक लाल मखमली डिबिया उसकी ओर बढ़ाई. नामी ज्वेलर का नाम डिबिया में लिखा देख उसने लपककर डिबिया ली और खोली तो आंखें हैरत से फैल गईर्ं. केशव अनामिका की अनामिका में अंगूठी पहनाते बोले, “सगाई वाली अंगूठी तुम्हारी पसंद की थी, पर यह मेरी पसंद है. एक बार जो देखा तो बस मन अटक गया. कोई और अच्छी लगी ही नहीं. सगाई वाली तो संभालकर पहनती हो. इसे हमेशा पहने रहना. ये भी हीरे की है.” छोटे-छोटे हीरों जड़ी अंगूठी वाकई बहुत सुन्दर थी.
“क्यों लाए... कम से कम पूछ तो लेते इतनी महंगी चीज़ लेने से पहले.” एकटक अंगूठी देखती अनामिका की आंखें छलकीं और स्वर भर्राया तो केशव चिहुंके, “अरे, इतनी भी महंगी नहीं है, सॉलीटेयर थोड़े न है. अरे क्या हुआ, अच्छी नहीं लगी. तुम रो रही हो! पर क्यों? क्या इतनी बुरी है.”
“बुरी तो मैं हूं. सगाई में दी तुम्हारी महंगी सॉलीटेयर संभाल नहीं पाई.”
केशव को हक्का-बक्का छोड़ वह रो पड़ी.
“कल से ढूंढ़ रही हूं, पर वो अंगूठी नहीं मिल रही.”
“ऐसा कैसे हो सकता है. अंगूठी तो आलमारी में ही होगी.”
“नहीं है, कल जाने कितनी बार खंगाल डाली. सारे कपड़े हटाकर कोना-कोना छान मारा, पर नहीं मिली.”
“आज देखा?”
“हां, लॉकर तो...”
“लॉकर के नीचे वाली दराज देखी? शायद ग़लती से मैंने... एक मिनट रुको...” आधी अधूरी बात कहते हुए केशव तेज़ी से उठे और आलमारी के लॉकर के नीचे वाली दराज खोलकर मखमली डिबिया उठाई और उत्साह से बोले, “ये तो रही.”
“अरे, पर कल इस जगह भी देखी थी मैंने...पर आज...” कहते-कहते उसकी नज़रें केशव से टकराईं.
वह कान पकड़े कह रहे थे, “तुम जाग न जाओ, इस हड़बड़ी में कल रात यहां डाल दी. सोचा, सुबह लॉकर में रख दूंगा, पर भूल गया. दरअसल, कल सुबह नाप के लिए ज्वेलर के पास ले गया था. अनामिका ने अपनी नई अंगूठी देखी, एकदम उसकी उंगली में फिट.
“ओह! तो नाप के लिए सगाई वाली अंगूठी...”
“नाप के लिए चोरी से निकालनी पड़ी सगाई वाली अंगूठी. तुम हमेशा कहती थी, इसकी नाप एकदम परफेक्ट है. क्या करूं सरप्राइज़ देना चाहता था. क्या जानता था कि कल ही तुम इसकी ढूंढ़ाई शुरू कर दोगी.”
“पर क्यों देना था तुम्हें सरप्राइज़!” अनामिका के खूंखार अंदाज़ पर वह सहमता उससे पहले ही अनामिका उसके सीने से लग गई, “ओह केशव, अब न देना सरप्राइज़. तुम्हारे सरप्राइज़ ने कल से सांसें अटका कर रखी हैं.”
उसके भीगे स्वर से विचलित हो केशव बोले, “अरे, आर्या ने ही कहा कुछ बढ़िया गिफ्ट करना. तुम भी तो हमेशा कहती रही, कभी सरप्राइज़ भी दो. तो सोचा दे ही दूं.”
“तुम जैसे हो वैसे रहो. तौबा करो सरप्राइज़ से.”
“कर ली.” वह कान पकड़े बोल रहे थे, “जो सरप्राइज़ मेरी अनामिका की आंखों में आंसू ला दें, उस सरप्राइज़ की ऐसी की तैसी.”
केशव के सीने से लगी-लगी एक बार फिर वह अंगूठी निहार रही थी और केशव उसे. इस प्यारे पल को कैद करे ऐसा कोई कैमरा नहीं था, फिर भी वह पल कैद हो रहा उनके धड़कते दिलों में हमेशा... हमेशा के लिए.
