"अरे आप भी क्या बीती बात लेकर बैठ जाते हैं. किसी भी नए रिश्ते के आने से हमारे अधिकार नहीं छिना करते, बल्कि हमारी ज़िम्मेदारियां कम हो जाती हैं. मुझे यह बात कुछ देर में समझ आई मगर समझ आ गई."
"सत्यनारायण की कथा की सारी तैयारियां हो गईं छोटी बहू!" मांजी ने यह बात बड़ी बहू दीप्ति से न पूछकर छोटी बहू रिया से पूछी तो दीप्ति के मन में एक टीस सी उठ गई.
"हर बात रिया से ही पूछ लो, खाने में कब क्या बनेगा, घर में क्या राशन आएगा, मैं तो जैसे इस घर की कुछ हूं ही नहीं?" डाइनिंग साफ़ करती हुई दीप्ति का यह बड़बड़ाना पास ही अख़बार पढ़ते कैलाशजी सुन रहे थे.
कुछ देर बाद वे दीप्ति से बोले, "क्या हुआ दीप्ति, तुम्हारा मूड आज कुछ उखाड़ा हुआ है?"
"नहीं बाबूजी, ऐसा कुछ नहीं." दीप्ति ने यह कहकर बात टालनी चाही, मगर कैलाशजी की अनुभवी आंखों से वह बच न सकी.
"देखो बड़ी बहू, तुम अपना ग़ुस्सा मन में दबाकर रखोगी तो वह और भी बढ़ जाएगा. इसलिए तुम्हारे मन में जिस बात को लेकर ग़ुस्सा है वह कह दो."
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अपने ससुरजी के यह मधुर वाक्य सुन उसके मन का सारा गुबार शब्दों में फूट पड़ा, "बाबूजी, आप लोग छोटी को स्नेह दें, सम्मान दें इससे मुझे कोई परेशानी नहीं. लेकिन अगर मेरे सारे अधिकार ही उसे दे दें तो?" यह कहती हुई दीप्ति की आंखें सजल हो गईं.
तभी उसकी सासू मां यानी सरलाजी वहां आ गईं. दीप्ति की सजल आंखें देख वे कुछ समझ नहीं पाईं. वे कुछ पूछतीं उसके पहले ही कैलाशजी उनके प्रश्नों के उत्तर में बोल पड़े, 'सरलाजी, जो पहले आपकी मनोदशा थी, वही आज बड़ी बहू की मनोदशा है."
दीप्ति और सरलाजी दोनों अचंभित सी कैलाशजी की ओर देखीं तो वे आगे बोले, "दीप्ति, तुझे आजकल छोटी बहू के आ जाने से जो महसूस हो रहा है न! ऐसा ही तुम्हारी सास सरला को भी महसूस होता था जब तुम नई-नई इस घर में आई थीं.
तब यह हमेशा मेरे सामने मुंह फुलाकर एक ही बात बोलती रहती थीं कि मेरे तो सारे अधिकार दीप्ति ने छीन लिए, अब तो घर में सब उसकी मर्ज़ी से ही होता है."
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उनकी इस बात पर सरलाजी हंसती हुई बोलीं, "अरे आप भी क्या बीती बात लेकर बैठ जाते हैं. किसी भी नए रिश्ते के आने से हमारे अधिकार नहीं छिना करते, बल्कि हमारी ज़िम्मेदारियां कम हो जाती हैं. मुझे यह बात कुछ देर में समझ आई मगर समझ आ गई."
"अब जाओ दीप्ति, तुम पूजा की सामग्री जाकर देख लो. रिया बहू थोड़ा तुम्हारी जैसी अनुभवी है. तुम सालों से घर की सारी पूजा होते देख रही हो."
दीप्ति मुस्कुराती हुई वहां से चल दी. उसने ऐसी कई चीज़ें अपनी देवरानी रिया को याद दिलाईं, जो वह पूजा में रखना भूल गई थी. रिया भी बड़े प्रेम से वहां से उठकर पीछे की ओर बैठती हुई दीप्ति से बोली, "दीदी, अब आप आगे आकर और भी चीज़ें ध्यान से देख लीजिए. कहीं मैं कुछ और भी तो नहीं भूल गई." देवरानी के इस विनम्र आग्रह ने उसे भीतर तक स्नेह से भिगो दिया. घर के बाकि लोगों के साथ पीछे-पीछे सरलाजी और कैलाशजी भी आ गए. और सरलाजी ने भी पूजा समाग्री की ऐसी दो-चार चीज़ें याद दिला दीं, जो उनकी दोनों बहुएं रखना भूल गई थीं.
कुछ ही देर में पंडितजी कथा के लिए आ चुके थे. वे कथा की सारी उत्तम व्यवस्था देखकर कैलाशजी की प्रशंसा करने लगे तो कैलाशजी पंडितजी से बोले, "हमारे घर की सारी ज़िम्मेदारियां तीन ज़िम्मेदार और समझदार नारियों ने ले रखी है, तभी तो हमारे घर में हर चीज़ की तैयारी पूरी पुख्ता तरीक़े से होती है." अपने ससुरजी और पंडितजी की बातें सुनकर दीप्ति आज अपने छोटे-बड़े हर रिश्ते पर गर्व का अनुभव कर रही थी. उसे वाकई यह लग रहा था कि रिया के आने से उसकी कितनी सारी ज़िम्मेदारियां कम हो गई हैं.
अब दीप्ति को अपने मन में उठे कड़वे भावों पर बड़ा पछतावा हो रहा था. वह समझ गई थी कि नए रिश्तों के आने से ज़िम्मेदारियां बंटती हैं अधिकार नहीं.

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