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कहानी- स्टडी टेबल (Short Story- Study Table)

कल रात बड़ी अच्छी सी पंक्तियां मन में आ रही थीं. बार-बार दोहराती रही सोचा जब विवेक सो जाएंगे तब लिख लूंगी. लेकिन बच्चा है ना जब तक मां थपक कर सुला नहीं देती नींद नहीं आती उसे, वही हाल विवेक का है. पता नहीं विवेक कभी बड़े भी होंगे या नहीं. हर समय जैसे पल्लू से बंधे घूमते रहते हैं. कितना मन चाहता है कि कभी कुछ पलों का एकांत मिले तो चंद लम्हे ख़ुद के साथ गुज़ार सकूं. लेकिन यह इच्छा पूरी होना तो असंभव सा लगता है. बड़ी घुटन होती है कभी-कभी.

पिछले आधे घंटे से विवेक टेबल पर खटर-पटर कर रहे थे. कभी कोई किताब उठाकर शेल्फ में रखते, कभी शेल्फ से कोई किताब निकाल कर टेबल पर रखते. कभी मोबाइल उठाकर यूं ही कोई ऐप खोलते, कभी बंद करके वापस रख देते. उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि समय कैसे बिताएं. एक तो आठ महीने पहले वह रिटायर हो गए, उस पर वैशाली भी पिछले चार दिनों से अपने मायके जाकर बैठी है. उसकी मां को भी अभी ही बीमार पड़ना था और बीमार पड़ी भी तो उनके दूसरे बच्चे भी तो हैं. वैशाली को जाने की क्या ज़रूरत थी. दिनभर उससे बातें करने में दिन बीत जाता है, लेकिन अब वह नहीं है, तो दिन सुरसा के मुंह की तरह बड़ा होता जा रहा है. बेटा ऑफिस चला जाता है और बहू अपने काम में लगी रहती है. वैसे भी चार महीने पहले ही तो ब्याह कर आई है. अभी नई-नई ही तो है. क्या बात करेंगे उससे. बस वह चाय-नाश्ता, खाना समय पर खिला देती है.

जीवनभर कॉलेज में पढ़ाने और पढ़ानेे के लिए पढ़ने में ही लग रहे. कॉलेज के साथी प्राध्यापकों के साथ ही उनका बोलना-बैठना रहा, इसलिए कॉलोनी में भी उनका दोस्त कहने को कोई नहीं है, ना किसी से ऐसी ख़ास बोलचाल ही है. घर-बाहर उनके दोस्त, आत्मीय साथी, हमसफ़र सब कुछ वैशाली ही है. सुबह मॉर्निंग वॉक से लेकर रात में सीरियल देखने तक वह सदा उनके साथ रहती है, तो उन्हें किसी बाहरी साथी की भी कभी ज़रूरत महसूस नहीं हुई. इसलिए आज वह इतना विचलित और अकेलापन महसूस कर रहे थे.

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उन्होंने वैशाली को फोन लगाया कि उससे बात करके कुछ समय बिताएं.

“क्या कर रही हो? मां कैसी हैं?” विवेक ने पूछा.

“मां के पास ही बैठी हूं, ठीक हैं वे. अभी आधे घंटे में क्या बदल जाएगा आख़िर?” वैशाली ने हंस कर कहा, क्योंकि थोड़ी देर पहले ही विवेक ने उसे फोन किया था.

“ठीक है-ठीक है. कौन-कौन है वहां?” विवेक ने पूछा.

“वही सब है जो आधे घंटे पहले थे.” वैशाली ने बताया.

“सब है ही वहां तो तुम वापस क्यों नहीं आ जाती, आख़िर कितने दिन रहोगी? यहां मैं अकेला बोर हो गया हूं.” अब विवेक ने खीज कर कहा.

“इतने बरसों बाद तो मैं मायके आ पायी हूं. मां की भी उम्र हो चली है. कुछ दिन तो रहने दीजिए मां के पास. पता नहीं कब उनका बुलावा आ जाए.” वैशाली ने कुछ शुष्क स्वर में कहा.

“घर में बहू है, बेटा है, कॉलोनी में सबसे बात करिए, दिन कट जाएंगे.”

विवेक ने खीजकर फोन काट दिया. कुछ देर अनमने से बैठे रहने के बाद फिर ड्रॉइंगरूम में जाकर टीवी पर न्यूज़ देखने लगे. उन्हें हर बात पर डिस्कस करने की आदत थी, लेकिन अब न्यूज़ में चलते घटनाक्रम पर किससे चर्चा करें. वह कसमसा रहे थे. जबसे शादी हुई है, तब से आज तक वैशाली कभी दो दिन भी मायके में नहीं रही. शादी-ब्याह में जाती, तो उनके साथ जाती. उनके साथ ही वापस आती. कॉलेज से वे घर लौटते तो वैशाली, बेटी, बेटा सब घर पर रहते थे. अब बेटा ऑफिस जाता है, बेटी की शादी हो गई और वैशाली मायके जाकर बैठ गई. बहू अपने कमरे में. अब शाम की चाय बनाने ही निकलेगी. न्यूज़ देखते हुए वह सोने की कोशिश करने लगे.

शाम की चाय पीते हुए उन्होंने बहू अनन्या से थोड़ी-बहुत औपचारिक बातें कीं, तभी विशाल घर आ गया. दो मिनट बेटे से बात करके वह वॉक पर निकल गए. मुंह बंद करके चुपचाप अकेले घूमना कितना नीरस सा और जानलेवा लग रहा था उन्हें. बेमन से थके कदम उठाते हुए वह धीरे-धीरे घूमने लगे.

रोज़ वैशाली साथ में रहती है, तो अनगिनत टॉपिक रहते हैं उनके पास बोलने के लिए. कॉलोनी के कुछ लोगों से नमस्कार का आदान-प्रदान हुआ. कुछ देर एक समूह के साथ बैठे, लेकिन मन नहीं लगा, जैसे-तैसे एक घंटा बिताकर घर लौट आए.

रातभर बिस्तर पर भी करवटें बदलते रहते हैं, नींद ही नहीं आती. कितनी आदत हो गई है उन्हें वैशाली की. एक पल भी चैन नहीं है. कितना खालीपन, कितना अकेलापन है उसके बिना. तभी तो पति और पत्नी को जीवनसाथी कहते हैं, क्योंकि वे वास्तव में जीवन के हर एक पल के साथी होते हैं.

दूसरे दिन विवेक आलमारी में अपनी शर्ट ढूंढ़ रहे थे. शर्ट ढूंढ़ने के कारण बाकी कपड़े अस्त-व्यस्त हो गए. उन्होंने सोचा कि सारे कपड़े बाहर निकाल कर ठीक से तह करके रख देता हूं. वैशाली के कपड़े भी अस्त-व्यस्त हो रहे थे. विवेक ने उसके भी सारे कपड़े निकाल कर पलंग पर रख दिए, ताकि उन्हें भी ठीक से तह करके व्यवस्थित रख दें. इसी बहाने दो-तीन घंटे का समय बीत जाएगा. विवेक ने अपने कपड़े तह करके जमा दिए, फिर वैशाली के कपड़ों की तह करने लगे. अचानक एक साड़ी की तह करने के लिए जैसे ही उन्होंने साड़ी उठाई, उसमें से एक छोटी सी डायरी पलंग पर गिरी. विवेक ने कभी वैशाली को कुछ लिखते-पढ़ते नहीं देखा था तब यह डायरी? शायद घर ख़र्च के हिसाब लिखती होगी इसमें. उन्होंने उत्सुकतावश डायरी खोलकर देखी.

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उसमें हिसाब नहीं था, लिखा था-

4-3-24

पता नहीं दिन कब बीत जाता है. पिछले 15 दिनों से सोच रही हूं कि उर्मिला के यहां से उपन्यास लाकर पढूं, लेकिन उतना भी नहीं कर पा रही कि उसके घर हो आऊं. फिर सोचती हूं कि यदि ले आई तो क्या होगा, पढ़ तो पाऊंगी नहीं.

8-3-24

कितना कुछ घुमड़ता रहता है मन में. रोज़ सोचती हूं आज कुछ लिखूंगी, लेकिन वह आज कब बीत जाता है, पता ही नहीं चलता. मैं थोड़ा समय भी अपनी मुट्ठी में पकड़ ही नहीं पाती. जाने वह कौन सा दिन होगा जब मैं पल भर बैठकर कुछ लिख पाऊंगी.

इसके बाद दो-चार आधी-अधूरी कविताएं लिखी थी. कोई चार पंक्तियां थीं, कहीं छह या आठ पंक्तियां लिखी थीं. कहीं तो दो पंक्तियां भी पूरी नहीं हो पाई थी.

विवेक को घोर आश्‍चर्य हुआ कि वैशाली ने कविताएं लिखी थीं, क्योंकि उन्होंने तो कभी उसे कुछ पढ़ते भी नहीं देखा. जितनी भी पंक्तियां लिखी हुई थीं, वह बहुत ही कलात्मक भाषा में लिखी थीं. बहुत भावपूर्ण थीं. वह आगे पढ़ने लगे.

15-3-24

जब से वे रिटायर हुए हैं, मैं तो जैसे सांस लेना भी भूल गई हूं. सारा दिन विवेक के ही इर्दगिर्द निकल जाता है. ना ख़ुद किसी काम में रुचि रखते हैं ना मुझे ही ़फुर्सत देते हैं कुछ करने की. सोचा था बच्चों के उत्तरदायित्व को पूरा करने के बाद अपने शौक को समय दूंगी. अच्छा साहित्य पढ़ूंगी, कुछ लिखूंगी लेकिन...

30-3-24

यह चार पंक्तियां भी तभी लिख पाती हूं जब वह नहाने गए होते हैं.

3-4-24

जीवनभर परिवार के उत्तरदायित्वों को पूरा करने में ही जुटी रही. सास-ससुर, बच्चे और अब विवेक. वह भी किसी बच्चे से कम थोड़े ही हैं. क्षण भर भी एकांत नहीं देते. कल की ही बात है सोचा देर तक नहा लूं, कुछ देर तो फ़ुर्सत मिलेगी,

लेकिन दस मिनट बाद ही दरवाज़ा

खटखटाने लगे. वहां भी चैन नहीं. यह नहीं कि कॉलोनी में किसी से पहचान बना लें, फ्रेंड सर्कल बना लें तो मुझे घंटे भर की तो फ़ुर्सत मिले.

13-4-24

अब तो अख़बार पढ़ना भी दुभर हो गया है. पेपर उठाओ तो विवेक आ बैठते हैं और कोई ना कोई बात छेड़ देते हैं. इससे तो बच्चे संभालना ही अच्छा था. विवेक तो बच्चे से भी कठिन है. कोई सीरियल देखने लगती हूं तब भी उनकी कमेंट्री बंद नहीं होती.

5-5-24

अपने बच्चे, फिर विवेक और कुछ सालों में बच्चों के बच्चे. लगता है बस बच्चे ही संभालते जीवन बीत जाएगा...

16-5-24

कल रात बड़ी अच्छी सी पंक्तियां मन में आ रही थीं. बार-बार दोहराती रही, सोचा जब विवेक सो जाएंगे तब लिख लूंगी. लेकिन बच्चा है ना जब तक मां थपक कर सुला नहीं देती नींद नहीं आती उसे, वही हाल विवेक का है. पता नहीं विवेक कभी बड़े भी होंगे या नहीं. हर समय जैसे पल्लू से बंधे

घूमते रहते हैं. कितना मन चाहता है कि कभी कुछ पलों का एकांत मिले, तो चंद लम्हे ख़ुद के साथ गुज़ार सकूं. लेकिन यह इच्छा पूरी होना तो असंभव सा लगता है. बड़ी घुटन होती है कभी-कभी. अब बहुत याद करने पर भी वे पंक्तियां ध्यान में नहीं आ रही हैं कि क्या थीं.

30-5-24

आज शाम को घूम कर वापस आते हुए रमेश भाईसाहब मिल गए थे. यह उनसे बातें करने ठहर गए. मैं बड़ी ख़ुशी से घर वापस आई कि कुछ देर तो रिलैक्स कर सकूंगी, लेकिन कहां, घर आकर हाथ-पैर धोए ही थे कि पीछे से साहब ख़ुद भी चले आए. बड़े ख़ुश थे कि पीछा छुड़ाकर चला आया. और मैं... क्या कहूं कि दो मिनट के लिए भी पीछा नहीं छोड़ते.

20-6-24

कल शाम को रिमझिम फुहार बरस रही थी. बड़ा मन कर रहा था कि एक कप चाय लेकर खिड़की के पास खड़ी होकर चुपचाप बारिश की बूंदों को देखती रहूं. पर मेरे नसीब में वह खिड़की भी कहां.

27-6-24

आते-जाते बड़ी हसरत से उस स्टडी टेबल को देखती रहती हूं बस. काश! कभी उस पर बैठकर मैं भी कभी कोई किताब पढ़ पाती, कभी कुछ लिख पाती. काश...

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डायरी विवेक के कंपकंपाते हाथों से छूटकर पलंग पर गिर पड़ी. आगे नहीं पढ़ पाए वे. तो इसलिए वैशाली मौक़ा मिलते ही अपने मायके जाकर बैठ गई है. उन्हें नहीं ले गई, बहू अकेली रह जाएगी का बहाना बनाकर. लेकिन सच तो यह है कि वह उनसे पीछा छुड़ाकर ़फुर्सत से रहना चाहती है. वह तो उसे हर पल की संगिनी मानते थे और वह, उसे तो वह बोझ लगते हैं.

अगले दो दिन विवेक अनमने रहे. वैशाली से बात करने का भी मन नहीं हुआ. उसने दो-तीन बार फोन लगाया तो विवेक ने उठाया नहीं.

शाम को विशाल घर आया तो उसने पूछा, “मां आपको फोन लगा रही हैं, आप उठा क्यों नहीं रहे पिताजी? अनन्या के फोन पर भी आपने मां से बात नहीं की. क्या बात है आपकी तबीयत तो ठीक है ना?” विशाल ने उनका माथा छूकर पूछा.

“ठीक हूं मैं. यह देख.” विवेक ने डायरी विशाल को थमा दी.

विशाल ने दस मिनट में ही डायरी पढ़ डाली, “तो इसलिए आप मां से नाराज़ हैं?”

“तो नहीं होऊंगा क्या? मैं तो उसका इतना साथ देता हूं,

एक पल को भी अकेला नहीं छोड़ता. कहीं आता-जाता नहीं. किसी से बात मुलाक़ात तक नहीं करता और उसके मन में...” विवेक का

गला रुंध गया.

“पिताजी मां भी आपसे बहुत प्यार करती हैं, लेकिन आपको समझना होगा कि उनका अपना भी एक अलग अस्तित्व है, कुछ इच्छाएं हैं. उन्हें भी अपने शौक पूरे करने की इच्छा है और उसके लिए उन्हें थोड़ा सा स्पेस चाहिए बस. जीवनभर वह हमारे सपनों को पूरा करने में लगी रहीं तो अब हमारा भी कर्तव्य बनता है कि हम उसकी छोटी सी इच्छा का मान रखें. ज़्यादा नहीं पर घंटे-दो घंटे का एकांत, उनका अपना एक व्यक्तिगत कोना तो घर में उन्हें दे सकते हैं ना? और देना भी चाहिए, प्यार सिर्फ़ बांधने का नहीं, थोड़ा सा स्पेस देने का नाम भी है.” विशाल ने उनका हाथ थपथपाते हुए कहा.

तीसरे दिन वैशाली घबराकर घर वापस आ गई. स्टेशन पर विशाल उसे लेने गया.

“क्या बात है बेटा तेरे पिताजी ठीक तो हैं?” वैशाली ने विवेक को न देखकर बेचैनी से पूछा.

“सब ठीक है मां.” विशाल ने मुस्कुरा कर उसे गले लगा कर आश्‍वस्त किया.

घर पहुंचते ही अनन्या उनका हाथ थाम कर कमरे में ले गई, “सरप्राइज़ मां.”

वैशाली ने देखा खिड़की के पास स्टडी टेबल नए ढंग से सजा हुआ था. छोटा सा फ्लावर पॉट गुलाबी फूलों से सजा हुआ, पेन स्टैंड, बड़े लेखकों के उपन्यास और किताबें.

“यह तुम्हारा कोना और तुम्हारा अपना स्टडी टेबल.” विवेक कुर्सी थामे मुस्कुरा रहे थे.

“और यह डायरी और पेन, अब आप खिड़की के बाहर बरसती बूंदों को देखकर ख़ूब कविताएं लिखा करिएगा.” अनन्या ने एक ख़ूबसूरत डायरी-पेन उसे देते हुए कहा.

“तुम इस कुर्सी पर बैठो मैं अभी आया.” विवेक कमरे से बाहर जाने लगे.

“अरे आप कहां चले?” वैशाली ने पूछा.

“सबके लिए चाय बनाने, तब तक तुम डायरी में कुछ लिख डालो फटाफट.” विवेक ने कहा तो सब हंसने लगे. स्टडी टेबल पर रखे फुल मुस्कुरा रहे थे. वैशाली डायरी-पेन लेकर कुर्सी पर बैठ गई. देर से ही सही, लेकिन उसे अपना स्टडी टेबल आख़िर मिल ही गया.

विनीता राहुरीकर

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