कल का रविवार जाने कैसे बीतेगा. ससुरजी को सुबह छह बजे ही चाय हाथ में चाहिए. पता नहीं मेरा रविवार कब आएगा. वसुधा के दिल से एक आह निकली.
शनिवार शाम से ही वसुधा का दिल बैठने लगता था. हफ़्ते भर तक जितनी भागदौड़ होती थी उसकी उससे ज़्यादा तो रविवार को बोझ बढ़ जाता था. सबके हिस्से आराम करने के लिए एक रविवार आता था, लेकिन वसुधा के हिस्से तो जैसे रविवार लिखा ही नहीं था.
अभय को रविवार को छुट्टी रहती तो वह शनिवार की रात पलंग पर पसरकर देर रात तक अपनी पसंद की फिल्म देखता. टीवी की लाइट और आवाज़ में वसुधा सो नहीं पाती.
उस पर रविवार है कहकर क्या तो अभय की और क्या तो बच्चों की ढेर सारी फ़रमाइशें. उस पर भी सबके ताने, बच्चे कहते, "मम्मी, तुम कितनी लकी हो तुम्हे पढ़ना नहीं पड़ता. बस आराम से रहो."
अभय कहते, "तुम्हारे तो मज़े है भई, ऑफिस का झंझट नहीं, कोई वर्कलोड नहीं. बस ऐश है."
अब सुबह से रात तक कितने ऐश में रहती है वो ये तो उसका दिल ही जानता है. उस पर इस कोरोना के चक्कर में वर्क फ्रॉम होम और ऑनलाइन पढ़ाई ने और हालत ख़राब कर दी है. उस पर किसी के नाश्ते-खाने का कोई समय ही नहीं है. जितनी देर खाना बनाने में नहीं लगती उससे ज़्यादा समय तो सबको खाना खिलाने में लग जाती है. सबका नाश्ते का, खाने का समय अलग. सारा दिन वो बस खाना ही परोसती रहती है.
दोपहर का खाना ख़त्म हुआ नहीं कि जिसने सबसे पहले खाया होता है उसको फिर भूख लग आती है.
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उस पर पढ़ाई का आजकल पैटर्न ऐसा हो गया है कि हर समय बच्चों के टेस्ट ही चलते रहते हैं. ऋचा के टेस्ट ख़त्म हुई नहीं कि रोहन के शुरू. काम के बीच बच्चों को पढ़ाना भी पड़ता है. और अधिकतर रविवार के दिन पर एक बोझ ये भी बढ़ जाता है, क्योंकि अक्सर ही सोमवार को बच्चों का टेस्ट या परीक्षा होती.
कितनी भी तैयारी करके रखो तब भी वह सारा दिन चकरघिन्नी सी घूमती रहती है सबकी फ़रमाइशें पूरी करते हुए.
और इधर हफ़्ते भर से सासू मां और ससुरजी भी आए हुए हैं. कल का रविवार जाने कैसे बीतेगा. ससुरजी को सुबह छह बजे ही चाय हाथ में चाहिए. पता नहीं मेरा रविवार कब आएगा. वसुधा के दिल से एक आह निकली.
दूसरे दिन वसुधा ने नौ बजे सास-ससुर को नाश्ता दिया तो उन्होंने कहा बच्चों और अभय के साथ करेंगे. तब वसुधा बोली कि वे लोग तो आज देर से उठेंगे.
"ऐसे कैसे देर से उठेंगे. नौ तो बज गए. तुम क्या सारा दिन नाश्ता हाथ में लेकर घूमती रहोगी क्या." ससुरजी ने डपट कर सबको आवाज़ लगाई तो तीनों अगले पंद्रह मिनट में ही डायनिंग टेबल पर हाज़िर हो गए. दस बजे तक सबका चाय-नाश्ता हो गया. वसुधा खाने की तैयारी करने लगी.
बच्चे और अभय टीवी के सामने बैठ गए तो सासू मां ने टोक दिया कि समय पर नहा लो. डेढ़ बजे फिर ससुरजी ने कहा कि सब साथ बैठकर ही खाना खाएंगे. इससे परिवार में प्यार भी बढ़ता है और गृहिणी भी समय पर काम से फ्री हो जाती है. उस दिन ढाई बजे जब सारा काम निपट गया तो सालों बाद वसुधा अख़बार लेकर अपना मनपसंद कॉलम पढ़ पाई. बीच में जब भी बच्चे या अभय कोई फ़रमाइश करने के लिए मुंह खोलते मांजी उनको डांट देती कि ख़ुद उठकर ले लो, तुम्हारे पैरों में क्या मेहंदी लगी है.
शाम चार बजे जब उसने सबकी चाय बनाई तब ससुरजी ने सरप्राइज़ दिया, "बच्चों को हम देख लेंगे. तुम्हारे लिए फिल्म के टिकट बुक कर दिए हैं. जाओ तुम दोनों फिल्म देख आओ."
"लेकिन रात का खाना भी तो बनाना है. फिल्म देखने में तो देर हो जाएगी." वसुधा बोली.
"आठ बजे ख़त्म हो जाएगी. आज के दिन सब खिचड़ी खा लेंगे. आकर बना लेना." मांजी ने कहा तो वह आनन-फानन में तैयार होकर मूवी देखने चली गई. बरसों बाद एक ख़ुशनुमा शाम बिताई उसने. लेकिन घर आते हुए फिर रसोईघर दिखने लगा. घर आते ही वह हाथ-मुंह धोकर किचन में जाने लगी तो मांजी ने कहा, "वहां कहां जा रही हो. आओ खाना खा लो."
"लेकिन पहले बनाऊं तो..." वसुधा बोली.
"तुम्हारी मनपसंद मिक्स वेज, शाही पनीर, फ्रूट रायता और तंदूरी रोटी के साथ जीरा राइस और दाल तड़का तैयार है." मांजी ने डायनिंग टेबल की ओर इशारा किया.
"लेकिन यह सब?" वसुधा हैरान थी.
"जोमैटो, स्विगी ज़िंदाबाद!" ससुरजी अपना मोबाइल दिखाकर मुस्कुराए.
"हफ़्ते भर सबका ध्यान रखने वाली को भी तो एक दिन आराम मिलना चाहिए." मांजी बोली.
"ओह धन्यवाद मांजी-पिताजी!" वसुधा का मन भीग गया. बरसों बाद आख़िर उसे उसका रविवार मिल ही गया था.
"अब से हम हर रविवार को मम्मी को भी उसका रविवार दिया करेंगे और अपना काम ख़ुद किया करेंगे." ऋचा-रोहन ने घोषणा की.
"अच्छा बदमाशों, सच में मम्मी को रविवार देना चाहते हो या होटल का खाना खाने के लिए कह रहे हो."
अभय ने कहा तो सब हंस पड़े.

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