मेरा मन हुआ चिल्लाकर कहूं कि हर चिड़िया नहीं उड़ सकती. यह देखो, अपनी मां को! सोने के पिंजरे में क़ैद चिड़िया, पर हमेशा की तरह आज भी मन की आवाज़ मन में ही रह गई. क्या मुझमें बाबा के विरुद्ध बोलने का साहस नहीं है? या मैं वाकई कुछ करना ही नहीं चाहती? जब मैं ख़ुद ही अपने आप को नहीं समझ पा रही, तो कोई और कैसे मेरे मन की थाह ले सकता है?
छुट्टियों में घर आई निशा दी पूरे घर में तितली की तरह उड़ती फिर रही थीं. बाबा भी बेटी के आने से बहुत ख़ुश नज़र आ रहे थे. घर औए प्रत्येक अतिथि से निशा दी को मिलवाते. उनका चेहरा गर्व से आलोकित हो उठता था.
"हां, ठीक पहचाना आपने. यह वही छुईमुई सी निशा है, जिससे बचपन में अपनी सुड़कती नाक तक नहीं संभाली जाती थी और अब इतने बड़े शहर में इतना बड़ा बैंक संभालती है." आगंतुक की हैरत से चौड़ी होती आंखों के साथ बाबा की छाती भी गर्व से चौड़ी हो जाती. ऐसा नहीं है कि ऐसे पलों में मुझे निशा दी पर गर्व महसूस न होता हो. आखिर वे मेरी इकलौती हमउम्र ननद हैं. उनकी प्रशंसा से मेरा भी मन पुलकित हो जाता है, पर दिल में कहीं गहरे एक कसक सी महसूस होती है. बाबा के उच्च आदशों के कारण पूरे कस्बा उनका मान करता है, लेकिन कोई कभी उनसे यह सवाल क्यों नहीं करता कि बेटी और बहू के लिए अलग-अलग प्रतिमान क्यों? मैंने भी दी के साथ उतनी ही शिक्षा पाई है. दिखने में भी उनसे बीस ही हूं, यदि दी जितने अवसर और प्रोत्साहन मुझे मिला होता तो क्या मैं अपने आपको सिद्ध नहीं कर देती? लेकिन एक तो मैं ठहरी घर की बहू यानी घर की मुर्गी दाल बराबर, उस पर विधवा. बाबा का बस चले, तो मुझे घर के बाहर कदम न रखने दें. बहू घर की लाज होती है.
मैं यह नहीं कहती कि मुझे इस घर में कोई कमी या परेशानी है. मुंह खोलने से पहले ही मेरे और मेरे बेटे करण के लिए हर चीज़ उपलब्ध हो जाती है, बल्कि इतनी सुख-सुविधाएं तो हमें नीरज के रहने भी उपलब्ध नहीं थी. पर फिर भी कभी-कभी मुझे उपेक्षित होने का एहसास क्यों होता है? मैं ख़ुद को सोने के पिंजरे में क़ैद चिडिया सी महसूस करती हूं
बैठक से आते वार्तालाप के स्वर अब मंद पड़ने लगे हैं. दी आई होती है. तो उनसे मिलने और उनसे उच्च शिक्षा संबंधी जानकारी जुटाने के नाम पर घर में कोई न कोई आया ही रहता है. मुझे ऐसे अवसरों पर अंदर ही बैठे रहना अच्छा लगता है. आज भी करण को होमवर्क करवाने के नाम पर मैं अपने कमरे में ही बैठी रही.
मेहमान तो चले गए लगते हैं. दी और बाबा फिर किससे बातचीत कर रहे हैं, उत्सुकतावश मैंने बैठक से आनेवाली आवाज़ों की ओर कान लगाए, तो उनमें अपना नाम आता सुन चौंक उठी. मैं सतर्कता से सुनने लगी. पिता-बेटी में मुझे लेकर बहस छिड़ी हुई थी. दी मुझे अपने साथ शहर ले जाने पर ज़ोर दे रही थीं. वे चाहती थीं मैं वहां कोई अच्छा सा कोर्स कर लूं और फिर वहीं नौकरी करने लग जाऊं,
"सब लड़कियां तुम्हारी तरह नहीं होतीं निशा. बहू बहुत अंतर्मुखी, संवेदनशील और समझदार है. बड़ी मुश्किल से नीरज के जाने के बाद अब थोड़ा संभली है. उसे अभी मेरे संरक्षण की ज़रूरत है. करण तो अभी बहुत छोटा है. ज़्यादातर वक़्त मेरे पास ही रहता है. मां के पास तो बस रात को सोने जाता है. थोड़ी देर के लिए भी इधर-उधर हो जाएं, तो मुझे चिंता होने लगती है. वहां नितांत अजनबी शहर में..."
"मैं हूं ना!" दी का स्वर था.
"तू ख़ुद को संभाल रही है यही बहुत है. कल को तेरी शादी हो जाएगी. तू अपने परिवार में व्यस्त हो जाएगी. फिर कौन किसे और कितना संभालेगा? यहां मेरी आंखों के सामने रहते हैं, तो मुझे तसल्ली है. वैसे बहू ने तुझसे इस बारे मे कुछ कहा क्या?" बाबा का उत्सुक स्वर सुनाई दिया.
"होमवर्क हो गया ममा." करण ने पुकारा, तो मैं पास जाकर उसका होमवर्क देखने लगी. तब तक निशा दी भी कमरे में आ गई थीं.
"अरे करण, हो गया तेरा होमवर्क, चल अब खेलते हैं."
दोनों 'चिड़िया उड़. तोता उड़...' खेलने लगे.
मेरा मन हुआ चिल्लाकर कहूं कि हर चिड़िया नहीं उड़ सकती. यह देखो, अपनी मां को! सोने के पिंजरे में क़ैद चिड़िया, पर हमेशा की तरह आज भी मन की आवाज़ मन में ही रह गई. क्या मुझमें बाबा के विरुद्ध बोलने का साहस नहीं है? या मैं वाकई कुछ करना ही नहीं चाहती? जब मैं ख़ुद ही अपने आप को नहीं समझ पा रही, तो कोई और कैसे मेरे मन की थाह ले सकता है?
मैं गौर कर रही थी निशा दी एक-दो दिन से मेरे मन की टोह लेने का प्रयास कर रही थीं. मेरे सम्मुख ही वे करण को फुसलाने लगी, "तू मेरे साथ शहर क्यों नहीं चलता? वहां और भी अच्छा बड़ा स्कूल है."
"मैं ममा के पास ही रहूंगा." करण तुनक जाता.
"तो ममा को भी ले लेते हैं." दी कहतीं,
करण सोचने लग जाता.
"दादा भी चलेंगे?"
"दादा नहीं चल सकते हैं. यहां दुकानें, घर कौन देखेगा?" दी कहतीं.
"हूं! यह भी है. दुकानें तो साथ भी नहीं चल सकतीं." करण फिर सोचने की मुद्रा में आ जाता.
"बच्चे के दिमाग़ पर क्यों अनावश्यक बोझ लाद रही हैं दी? जो चीज़ संभव ही नहीं है." में उखड़ गई थी,
"क्यों संभव नहीं है भाभी? क्या कभी है आपमे? नीरज भैया को गुज़रे दो बरस होने को आए हैं. आपको अपने और करण के बारे में तो सोचना ही पड़ेगा ऐसे कब तक चलेगा!"
"क्या कब तक चलेगा?" में जानकर अनजान बनी रही, निशा दी भी अब उखड़ गई थीं.
"इसका मतलब बाबा ही ठीक हैं. आप ख़ुद ही अपनी खोल से बाहर नहीं निकलना चाहतीं. मैं व्यर्थ ही यह सोचकर अपनी शादी को टालती आ रही हूं कि आप एक बार कहीं सेट हो जाएं... दोबारा घर बस जाए. भाभी क्या सचमुच आप इस घर की चारदीवारी में ही ख़ुश हैं जैसा कि बाबा कहते हैं." मुझे गहन अंतर्द्वंद्व की स्थिति में छोड़ दी करण को घुमाने बाहर निकल गई. रात को करण मेरे पास सोने आया, तो बहुत उत्साहित था.
"ममा, बुआ बहुत अच्छा कार चलाती हैं. इंग्लिश भी बहुत अच्छी बोलती हैं. फोन पर बहुत देर फ्लुएंट इंग्लिश में बात करती रहीं. बुआ बता रही थीं कि जब आप उनके साथ कॉलेज में थीं, तब इंग्लिश डिबेट में आप उन्हें भी हरा देती थीं. अब तो आप ऐसी इंग्लिश नहीं बोलतीं?"
"किसके साथ बोलू?" मेरे मुंह से बरबस ही निकल गया था.
"अब तो यह घर संभालने और तुझे पालने में ही मेरी पूरी ज़िंदगी हॉम होनेवाली है." मन की कसक ज़ुबां पर आ गई थी. मासूम करण शायद ही कुछ ख़ास समझा हो, क्योंकि उबासी लेते हुए वह सोने का उपक्रम करने लगा था, पर मैं देर रात सोने तक यही सब सोचती रह गई थी.
'क्या वाकई में सोने के पिंजरे में क़ैद चिड़िया हूं? पर मुझे किसने क़ैद किया है? बाबा ने? नहीं, उन्होंने तो मुझ पर कोई पहरा नहीं बैठा रखा है, पूरा घर, नाते-रिश्तेदारी सब कुछ तो मेरे ज़िम्मे है, बल्कि वे हर काम मुझसे पूछकर करते हैं. दुकान तक मुझे बताकर जाते हैं, पर निशा दी की तरह उन्होंने कभी मुझे आगे पढ़ने या नौकरी करने के लिए भी नहीं कहा.' मेरा मन अब खुलकर वाद-विवाद पर उतर आया था. 'पर बाबा ने इन सबके लिए कभी मना भी तो नहीं किया? शायद वे मेरे मन की टोह ले रहे हो? मुझ पर जबरन कोई फ़ैसला लादने में हिचकिचा रहे हो? तभी तो उस दिन निशा दी से पूछ रहे थे कि बहू ने ऐसा कुछ कहा क्या? तो क्या ख़ुद पर सारी बंदिशें मैंने आप ही लगा रखी है? मैं ख़ुद ही तो कहीं बाहर की दुनिया में कदम रखने से नहीं हिचकिचा रही? सोने के पिंजरे में बंद चिड़िया पिंजरे की सुख-सुविधाओं की इतनी अभ्यस्त हो गई है कि पिंजरे का दरवाज़ा खोल देने पर भी बाहर उड़ने का साहस नहीं जुटा पा रही?'
"भाभी उठो! हम सब बाबा के संग मॉर्निंग वॉक पर चल रहे हैं. आते वक़्त तबेले से दूध भी लेते आएंगे." निशा दी की पुकार से मेरी आंख खुली, तो मैं हड़बड़ाकर उठ बैठी.
"आप लोग हो आइए, मुझे अभी भोलू से नाश्ता-खाना वगैरह तैयार करवाना पड़ेगा." मैंने टालना चाहा.
"अरे, भोलू कोई नया थोड़े ही है. आप उसे बता दीजिए बस! हम आएंगे, तब तक सब तैयार मिलेगा. हम बाहर आपका इंतज़ार कर रहे हैं." निशा दी फ़रमान सुनाकर चली गईं. मैं फटाफट तैयार होकर, भोलू को आवश्यक निर्देश देकर बाहर आ गई. वाकई बाबा, दी, करण सभी मेरा इंतज़ार कर रहे थे. मुझे साथ चलता देखकर सभी के चेहरे खिल उठे थे. लेकिन मैंने गौर किया कि बाबा सबसे ज़्यादा ख़ुश थे. लौटते वक़्त दूध लेने तबेले पहुंचे, करण वहां सब कुछ बड़े कौतूहल से देख रहा था. बछड़े को गाय के थनों से दूध पीते देखने का उसका यह पहला अवसर था. ग्वाले को दूध दुहते देख वह सवाल कर बैठा, "ये लोग सारा दूध क्यों निकाल रहे हैं? बछड़ा बाद में क्या पीएगा?"
"थनों में और दूध आ जाएगा. अभी इसे नहीं दुहेंगे, तो यह दूध बेकार हो जाएगा. हम पीएंगे, तो हममें ताक़त आएगी, दूधवाले को भी फ़ायदा होगा. वह इसे पचास रुपए प्रति लीटर बेचकर पैसे कमाएगा. उनसे गायों को और अच्छा चारा-गुड़ खिला सकेगा.
थोड़ी मेहनत करे, तो वह इस दूध से क्रीम निकालकर २०० रुपए किलो बेच सकता है, और मेहनत करे, तो घी बनाकर ४०० रुपए किलो बेच सकता है. तुम्हें भी ऐसे ही मेहनत करनी है. तुम भी पढ़कर स्कूल-कॉलेज पास करोगे, बड़ी-बड़ी डिग्रियां जुटाओगे. इंजीनियर, डॉक्टर या वकील बनोगे, जितनी मेहनत करोगे, जितना ख़ुद को परिमार्जित करोगे, उतनी तुम्हारी क़ीमत यानी महत्ता बढ़ेगी. समझ रहे हो न? निर्जीव चीज़ों की तरह ख़ुद को भी महत्वपूर्ण बनाना या ना बनाना इंसान के अपने हाथ में है."
निशा दी का इशारा मैं और बाबा बख़ूबी समझ रहे थे, इसलिए घर पहुंचने तक हम दोनों मौन बने रहे. दी और करण ही शेष रास्ते बतियाते रहे. करण की आज छुट्टी थी, इसलिए घर पहुंचते ही रसोई में घुसने से पूर्व मैंने उसे होमवर्क करने बैठा दिया था. नाश्ता लगाते समय भी मेरे कान बैठक में चल रहे दी और बाबा के वार्तालाप पर ही लगे हुए थे. जैसी कि मुझे उम्मीद थी वार्तालाप का केन्द्रबिंदु मैं ही थी, दी के कटाक्ष से बाबा थोड़ा आहत महसूस कर रहे थे.
"तेरा इशारा में भलीभांति समझ रहा हूं बेटी! बहू की काबिलियत मैं भी जानता-समझता हूं, पर ससुर होने के नाते मेरी भी कुछ सीमाएं हैं. जितने अधिकार भाव से और दबाव बनाकर मैं तुझसे कुछ कह या करवा सकता हूं, उतना बहू से कभी नहीं करवा सकता. वह मेरे पास एक अमानत है, जिसे मुझे हर हाल में सहेजकर रखना है. नीरज के चले जाने के बाद तो मुझ पर यह ज़िम्मेदारी और भी ज़्यादा हो गई है. बहू की इच्छा के विरुद्ध में कोई कदम नहीं उठाना चाहता. यदि वह घर संभालने और करण के पालन-पोषण में ही ख़ुश है, तो मैं उसे और किन्हीं झंझटों में नहीं उलझाना चाहता, और यदि वह तुम्हारी तरह और पढ़कर या नौकरी करके अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती है, तो उसके लिए यह विकल्प भी हमेशा से खुला ही है. कभी कहा इसलिए नहीं कि डर लगता है, प्रकृति ने इतनी कम उम्र में विधवा बनाकर उसके साथ वैसे ही इतना क्रूर मज़ाक कर डाला है. अब ज़माने ने और सताया, ती वो बेचारी कैसे सह पाएगी? अब इसे चाहे मेरी ग़लती समझो या मेरी कमज़ोरी." बाबा भावुक हो उठे, तो मेरी भी आंखें गीली हो गईं. दीक्षने आगे बढ़कर उन्हें संभाला.
"इस क्रूर दुनिया में इतना कोमल हृदय होना आपका साहस दर्शाता है बाबा, कमज़ोरी नहीं. आप हमेशा भाभी के साथ है और रहेंगे, यही सोचकर तो शहर में में निश्चिंत होकर रह पा रही हूं."
"मेरी तो उम्र हो गई है बेटी, न जाने कब तुम लोगों से जुदा हो जाऊं, पर बहू के सामने तो पूरी ज़िंदगी पड़ी है, इसलिए जाने से पहले बहू का भविष्य सुनिश्चित कर जाना चाहता हूं. उसे किन्हीं सुरक्षित हाथों में सौंप देना चाहता हूं, पर उससे भी पहले मैं चाहता हूं कि तेरी तरह वह भी अपने पैरों पर खड़ी हो जाए, ताकि कल को प्रकृति उसके साथ फिर कोई खिलवाड़ करने का साहस करे भी, तो भी उसका मनोबल न तोड़ सके, तू तो बहू की अंतरंग सहेली, बहन, ननद सभी कुछ है. अब तू ही उसके मन की थाह ले. उसमें जीने की नई ऊर्जा जगा. मैं नहीं चाहता वह सिर्फ़ मेरे या करण के लिए ज़िंदगी जीए, उसे अपने लिए जीना सीखना होगा."
"ममा भूख लगी है, नाश्ता दो न! मैंने तो होमवर्क भी कर लिया." बुआ के संग खेलने के लालच में करण फटाफट होमवर्क निपटाकर उपस्थित था. मैं आंखें पोंछकर तुरंत नाश्ता लगवाने लगी,
नाश्ता समाप्त हुआ, तो बाबा अख़बार लेकर बैठ गए. करण निशा दी के संग खेलने लग गया, अपने बेडरूम में पहुंचकर मैंने आलमारी खोली और अपनी डिग्रियों की फाइल निकाल ली. उन्हें झाड़कर तरतीब से जमाते हुए मेरे चेहरे पर वृढ़ता भरी मुस्कान थी. फूल सा हल्का मन आसमां में ऊंची उड़ान भरने के लिए लालायित हो रहा था. बैठक से आते "चिड़िया उड़..." के स्वर मेरे परों में हौसलों की नई उडान भर रहे थे.

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