"मैं आपकी बातों का प्रतिकार नहीं करुंगा, किंतु परिवार की ख़ुशी के लिए हम क्या-क्या ग़लतियां कर जाते हैं, हम उनको नहीं देख पाते और ईश्वर को दोष देते रहते हैं.” विवेक ने उसे समझाते हुए कहा.
“मैने क्या ग़लती की? हमेशा से अपने परिवार को आगे बढ़ाने की ही कोशिश की.” देवयानी ने रुंधे गले से कहा.
“आप बिल्कुल सही कह रही हैं. फिर भी मैं कहूंगा एक बार आप पीछे मुड़कर देखिए.” विवेक ने कहा.
“तुम ही बताओ ना मैंने क्या ग़लती की है.” देवयानी ने पूछा.
“आप सुन पाएंगी?” विवेक ने सवाल किया.
“मम्मी बात हो गई है, जीतने का वह है उससे ज़्यादा मिल रहा है, अगले महीने फाइनल हो जाएगा.”
एक सांस में विवेक ने तो अपनी पूरी बात कह दी. किंतु देवयानी की सांस अटक गई. उसे लगा जैसे समंदर के किनारे किसी बच्चे ने बड़े यत्न से रेत से घर बनाया हो, उसे गढ़ने में उसने अपनी सारी ऊर्जा लगा दी हो, किंतु क्रूर लहरों ने एक पल भी नहीं लगाया उसे बहा कर ले जाने में.
एक सप्ताह बीत गया था. चलने-फिरने में असमर्थ देवयानी के पांव में जाने कौन सी शक्ति आ गई थी. शायद अतीत की वह सारी यादें सहस्त्र किरणें बन उसके पांवों को उर्जित कर रही थीं, तभी तो घर की दीवारें, खिड़कियां, दरवाज़े को इस कदर स्पर्श कर रही थीं मानो किसी रोते हुए बच्चे की आंसुओं को पोंछ रही थी. करीने से सजे घर के एक-एक कोने को आंखों में बंद करने की कोशिश कर रही थी. घर का वह एक-एक समान जिसको ख़रीदने में साल-महीने लग जाते थे, जिसे बड़े यत्नों से सहेज कर रखा था, देखकर लंबी सांसें ली थी उसने. टेरेस पर गई तो गमले सूनी आंखों से उसे निहार रहे थे. फूल तो सारे सूख चुके थे, पर करीने से रखे गमले में उनकी ख़ुशबू अभी भी बची हुई थी.
रात हो चुकी थी विवेक अपने कमरे में गहरी नींद सो चुका था, पर देवयानी आंखें कहां बंद कर पा रही थी. उसकी नज़रें तो दीवारों पर ठहरी थीं.
दो दिन बाद मैं यहां से चली जाऊंगी कभी ना आने के लिए... यह सोचते ही उसके हृदय में हूक सी उठीं थी, चीत्कार कर उठी वह. अतीत के पन्ने फड़फड़ाते हुए स्वयं ही पलटने लगे थे.
"देवयानी जितनी बड़ी चादर हो, उतना ही पांव फैलाने चाहिए. जिस स्कूल की तुम बात कर रही हो वह इस शहर का सबसे महंगा स्कूल है. बहुत अधिक फीस है. मैं उतना कहां से दे पाऊंगा. मैने विवेक के लिए जहां अप्लाई किया है, वहां फीस कम है और यदि हमारे बेटे में प्रतिभा होगी तो वह कहीं भी पढ़ेगा अच्छा ही करेगा.” रितेश ने समझाते हुए देवयानी से कहा.
“परसों बड़ी दीदी का फोन आया था, पूछ रही थीं एडमिशन के बारे में. मैंने तो कह दिया है कि मैं बड़े स्कूल में एडमिशन करवा रही हूं. कुछ दिन कहीं ओवरटाइम करके मैनेज कर लो. विवेक थोड़ा बड़ा हो जाएगा तो मैं भी कहीं ज्वाइन कर लूंगी. तुम्हें उतनी परेशानी नहीं होगी.”
देवयानी ने मानो अपना फ़रमान सुना दिया. रितेश देवयानी की ज़िद के सामने विवश हो गया.
एक तरफ़ जिद्दी वक़्त, जो एक पल भी रुकने को तैयार नहीं था, दूसरी तरफ़ देवयानी की ज़िद, दोनों के जद्दोज़ेहद में फंसा रितेश हर पल अपने को सहज बनाते हुए कठोर तप कर रहा था. देवयानी ने एक निजी संस्था जॉइन कर लिया था. विवेक के स्कूल की पढ़ाई ख़त्म हो चुकी थी. रितेश पहले पांच बजे घर आता था, किन्तु ओवरटाइम के कारण अब दस बजे रात में घर आता. उठती-गिरती लहरों की तरह ज़िंदगी चल रही थी.
यह भी पढ़ें: गुम होता प्यार… तकनीकी होते एहसास… (This Is How Technology Is Affecting Our Relationships?)
पिता के उच्च पद और प्रतिष्ठा के बीच पली-बढ़ी देवयानी पांच बहनों में सबसे छोटी थी, पर नियति... पता नहीं उसे सीधे रास्ते क्यों नहीं भाते. उबड़-खाबड़ रास्ते ही उसे भाते हैं. पिता ने चार बहनों का उच्च घरों में विवाह कर दिया. देवयानी अभी स्कूल में ही थी कि पिता ने दुनिया से विदा ले लिया. कॉलेज की पढ़ाई अभी पूरी भी नहीं हुई थी उसकी कि उसी समय एक अच्छे परिवार से रिश्ता आया. पिता के नहीं होने के कारण असुरक्षा की भावना से घिरी देवयानी की मां ने आनन-फानन में उसका विवाह कर दिया.
उस समय रितेश भी पढ़ाई कर रहा था. नियति मानो बहुत जल्दी में थी. समय कम थे और उसे बहुत सारा काम करना था. एक्सीडेंट में रितेश के माता-पिता की मृत्यु ने रितेश के करियर को लहूलुहान कर दिया. आगे की पढ़ाई वह नहीं कर पाया. देवयानी भी अपनी अधूरी पढ़ाई विवाह के बाद पूरा करना चाहती थी, पर वह नहीं कर पाई. एक तरफ़ रितेश का किसी निजी संस्थान में नौकरी करने के लिए एक छोटे शहर में आना और अपनी गृहस्थी को किसी तरह दिशा देना, दूसरी तरफ़ उनके जीवन में विवेक का आना. उनके होंठों पर हंसी की रेखा खींची थी या माथे पर शिकन वे दोनों समझ नहीं पाए. जीवन मैराथन बन चुका था.
“देवयानी मेरे जीवन का यह सपना था कि मैं डॉक्टर बनकर किसी छोटे शहर में ऐसा हॉस्पिटल खोलूं कि किसी बड़ी बीमारी के लिए लोग हमेशा बड़े शहरों की तरफ़ दौड़ पड़ते हैं, उन्हें वह सुविधा अपने छोटे शहर में ही मिले. आज कितनी ख़ुशी की घड़ी है कि विवेक ने अपने दमखम पर मेडिकल का एग्जाम पास किया है. हमारा बेटा प्रतिभाशाली है, जहां रहेगा वहीं अच्छा करेगा. उसका रैंक इतना अच्छा है कि देश के किसी भी कॉलेज में उसका एडमिशन हो जाएग. किंतु उसे बाहर जाने की क्या ज़रूरत है. इसी शहर के मेडिकल कॉलेज में क्यों नहीं पढ़ सकता है?” रितेश ने गंभीरता से कहा था.
पर देवयानी? वह तो अपने आसपास से बेख़बर अपनी बहनों की होड़ में ज़िद के मचान पर बैठी हुई थी.
“ठीक है हमारा बेटा प्रतिभाशाली हैं, किंतु उसकी प्रतिभा में तभी तो निखार हुआ जब मैंने उसे शहर के सबसे बड़े महंगे स्कूल में पढ़ाया, वरना उसकी प्रतिभा दब जाती. इसलिए मैं कह रही हूं मेडिकल की पढ़ाई के लिए किसी उच्च संस्थान में भेज दो, तभी वह अच्छे डॉक्टरों में शामिल हो पाएगा. मेरी बहनों के सारे बच्चे तो बाहर हीं पढ़ें हैं, तभी तो आज सभी उच्च पद पर कार्यरत हैं.”
रितेश देवयानी की दलीलों के सामने एक बार फिर नतमस्तक हो गया. वह विवाद में नहीं पड़ना चाहता था.
"अपनी बहनों से होड़ लगाना छोड़ दो देवयानी. हम जैसे हैं ठीक हैं.” यह कहते हुए रितेश कमरे से बाहर चला गया.
वक़्त उस पाखी की भांति इतना ऊंचा उड़ रहा था कि उसे धरती नज़र ही नहीं आ रहा था, आसमान ही उसे धरती लगने लगा था.
“मेरी बहनों के सारे बच्चे विदेश में सेटल हो चुके हैं. यदि विदेश में जॉब मिल रहा है तो इस शहर में विवेक को तुम जॉब करने के लिए क्यों मजबूर कर रहे हो.” देवयानी ने उत्तेजित होते हुए कहा.
“पर मेरा सपना तो यही था. विवेक का क्या सपना है एक बार उससे तो पूछ लो.” रितेश ने गंभीर स्वर में कहा.
“मेरा भी वही सपना है जो पापा का है.” विवेक ने दृढ़ता से कहा था.
विवेक के मेडिकल की पढ़ाई समाप्त हो चुकी थी. देवयानी ने पिता और पुत्र की दृढ़ता को देखते हुए परिस्थिति को बड़ी चालाकी से अपनी ओर कर लिया. “ठीक है बेटा तुम पापा का सपना पूरा करना. पहले कुछ पैसे तो इकट्ठा कर लो, तभी तो यहां बड़ा हॉस्पिटल बना पाओगे. इसके लिए तुम्हें विदेश जाना ही पड़ेगा.” तर्क में इतना दम था कि पाखी का उड़ान नहीं थमा.
“क्या हमारी बहू आएगी तो इसी किराए के मकान में रहेगी?” देवयानी ने बड़े ही उतावलेपन से कहा.
“अब क्या..?” रितेश भौंचक्का रह गया.
“इतनी भी समझ नहीं है तुमको.” देवयानी ने सवाल किया. किंतु बिना रितेश का जवाब सुने उसने स्वयं ही जवाब दे दिया.
“मैंने बात कर लिया है. मेरे ही संस्थान में मिसेज़ मल्होत्रा ने फ्लैट लिया है. उस अपार्टमेंट के सारे फ्लैट बिक चुके हैं. एक बचा हुआ है. मैं तो कल उधर चली गई थी देखने. बहुत बढ़िया है.”
“विवेक जब विदेश से आएगा और यहां रहने लगेगा तब अपनी पसंद का फ्लैट ख़रीद लेगा. तुम क्यों परेशान होती हो. वैसे भी उसकी पढ़ाई का लोन अभी भी मैं भर रहा हूं. फ्लैट कहां से लेंगे." रितेश ने थोड़ा ग़ुस्साते हुए कहा.
यह भी पढ़ें: शादीशुदा ज़िंदगी में कैसा हो पैरेंट्स का रोल? (What Role Do Parents Play In Their Childrens Married Life?)
“मैं अपनी सैलरी पर लोन ले लूंगी और विवेक का वहां सेटलमेंट हो जाएगा तो वह भी तो कुछ पैसे भेजेगा ही. हम लोग मैनेज कर लेंगे.”
उस दिन देवयानी की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था, जब वह अपने नए फ्लैट में आई. फिर तो देवयानी का अपनी बहनों की होड़ में घर के इंटीरियर डेकोरेशन का सिलसिला चल पड़ा. घर के सारे फर्नीचर उसने बदल डाले. दीवारों पर क़ीमती पेंटिंग्स लग गई. घर के एक-एक कोने पर देवयानी ने अपनी ऊर्जा लगा दी. पूरे टेरेस पर सेरामिक के गमलों की बाढ़ आ गई. मौन रितेश हतप्रभ हो सब कुछ देखता-सुनता रहता. कभी बोलने की कोशिश करता है तो देवयानी की तर्कपूर्ण दलीलों के सामने चुप हो जाता.
कुछ साल बीते. नियति फिर से अपनी अठखेलियों के लिए आतुर हो रही थी. उस दिन वक़्त पता नहीं क्यों बहुत ज़्यादा कठोर हो गया. रितेश का ऑफिस से आकर बेहोश हो जाना और पड़ोसियों की मदद से उसे अस्पताल ले जाना. उसके बाद किसी बड़े अस्पताल में रेफर होना, बड़े शहर में ले जाते देर हो जाना और फिर हार्ट अटैक के बाद पैरालिटिक अटैक... मानो वक़्त किताब बन गया था, लम्हे उसके पन्ने और नियति उसे जल्दी-जल्दी पलट रही थी.
विवेक आया था विदेश से लेकिन फिर जल्दी ही लौट गया. उसे लौटना पड़ा, यह भी देवयानी का ही किया धरा था. उसकी दूसरे नंबर वाली बहन ने अमेरिका में ही पली-बढ़ी लड़की से रिश्ते की बात की और देवयानी झट से तैयार हो गई. रितेश और विवेक की उसने एक नहीं सुनी. विवाह के बाद बहू भारत आने के लिए तैयार नहीं हुई. जिस दिन ख़बर आया कि देवयानी और रितेश दादा-दादी बन गए, उसी दिन रितेश को हार्ट अटैक आया था. विवेक की पत्नी भी अस्पताल में थी, जिसके कारण विवेक नहीं आ पाया. बाद में आया भी तो जल्दी उसे लौटना पड़ा,.
एक तरफ़ रितेश बिस्तर पर पड़ा था, दूसरी तरफ़ देवयानी घर और बाहर दोनों संभाल रही थी. सजा-धजा घर मुंह फाड़े दोनों को देखता रहता था, क्योंकि दोनों ही पीड़ा के आवरण में लिपटे घर की दीवारों को भूल गए थे. साल-दर-साल बीतते चले गए. दोनों पर उम्र का शिकंजा कसता चला गया. चलने-फिरने में असमर्थ देवयानी ने बाहर जाना छोड़ दिया था. रितेश की हालत दिन पर दिन बिगड़ती जा रही थी. वह स्वयं को नहीं संभाल पा रही थी, फिर रितेश को कैसे संभाल पाती. विवेक हमेशा उन्हें अपने साथ चलने को कहता, किंतु वह उस घर को छोड़कर जाना ही नहीं चाहती थी.
वक़्त ने फिर चाल चली. एक तरफ़ रितेश ने दुनिया से विदा ले ली थी, दूसरी तरफ़ गिरने के कारण देवयानी का चलना-फिरना बिल्कुल ना के बराबर था. सालों से वक़्त देवयानी को सबक सिखा कर एंजॉय कर रहा था. किंतु आज घर के हर कोने की नम आंखें देखी तो स्तब्ध पर रह गई. देवयानी अतीत से लौटी.
विवेक ने अंतिम निर्णय लिया था. उसने घर के महंगे सामानों को बेच दिया. बाकी को ज़रूरतमंदों को दे दिया. घर के लिए भी उसने बात फाइनल करके देवयानी को बताया. जल्दी ही वह घड़ी आ गई. आज जाने का दिन था. देवयानी के आंसू रुक नहीं रहे थे. बहुत देर विवेक उसे देखता रहा था. उसे चुप कराने की उसने कोशिश नहीं की मानो किसी ख़ास पल का वह इंतज़ार कर रहा था.
कुछ समय बिता विवेक देवयानी के क़रीब आया. उसके हाथों को अपने हाथों में लेते हुए उसने कहा, "मम्मी आपको जितना रोना है रो लीजिए, क्योंकि मेरे पास ये आंसू नहीं बहेंगे. देवयानी और ज़ोर से फफक कर रो पड़ी
"भगवान को मेरी ख़ुशी देखी नहीं गई.” देवयानी ने रोते हुए कहा.
यह भी पढ़ें: रिश्तों की बीमारियां, रिश्तों के टॉनिक (Relationship Toxins And Tonics We Must Know)
"मैं आपकी बातों का प्रतिकार नहीं करुंगा, किंतु परिवार की ख़ुशी के लिए हम क्या-क्या ग़लतियां कर जाते हैं, हम उनको नहीं देख पाते और ईश्वर को दोष देते रहते हैं.” विवेक ने उसे समझाते हुए कहा.
“मैने क्या ग़लती की? हमेशा से अपने परिवार को आगे बढ़ाने की ही कोशिश की.” देवयानी ने रुंधे गले से कहा.
“आप बिल्कुल सही कह रही हैं. फिर भी मैं कहूंगा एक बार आप पीछे मुड़कर देखिए.” विवेक ने कहा.
“तुम ही बताओ ना मैंने क्या ग़लती की है.” देवयानी ने पूछा.
“आप सुन पाएंगी?” विवेक ने सवाल किया.
"हां बोलो.” देवयानी ने धीरे से कहा.
“मम्मी आपने हमेशा सामाजिक दायरे से सोचा, व्यक्ति और परिवार के दृष्टिकोण से नहीं सोचा. बड़ा महंगा स्कूल, बड़ा संस्थान, विदेश में नौकरी, विदेश की लड़की से विवाह, अपनी सामर्थ्य से अधिक का फ्लैट ख़रीदना... पापा को मेंटल प्रेशर का शिकार बना दिया. उन्होंने आपकी भावनाओं को ध्यान में रखकर कभी आप पर ज़बरदस्ती नहीं की.”
देवयानी ने आंसू भरी आंखों से विवेक को देखा. विवेक ने अपनी बात ज़ारी रखते हुए कहा, “पापा कभी-कभी मुझसे शेयर करते थे. अमीरी में पली-बढ़ी है देवयानी. मैं उसे जीवन का कोई सुख दे नहीं पाया, अगर वह सुख की कामना करती है तो मैं उसे रोक नहीं पाता हूं.”
सुनकर देवयानी जड़ सी हो गई.
विवेक ने फिर कहा, “मम्मी, आज विदेश में मैं डॉक्टर हूं. एक मिडिल क्लास फैमिली के लिए बहुत बड़ी बात है. इसका श्रेय मैं आप ही को दूंगा. किंतु मैं वहां भीड़ में खो सा गया हूं. पापा का सपना था छोटे शहर में अस्पताल खोलना. यदि आप पापा की बात मानती तो मुझे बहुत बड़े स्कूल और संस्थान की ज़रूरत नहीं थी , छोटी जगह पर भी मैं पढ़ाई कर लेत. मुझे विदेश जाने की भी ज़रूरत नहीं थी. मैं यहीं पर नौकरी कर इतना कमा लेता कि धीरे-धीरे अपना अस्पताल खोल लेता सिर्फ़ जुनून चाहिए. हम साथ में रहते, पापा पर इतना प्रेशर नहीं पड़ता और शायद उनकी वह स्थिति होती ही नहीं.”
विवेक की आंखों में आंसू भर गया. उसका गला रूंध गया था. फिर भी उसने कहा, "यदि यहां के अस्पताल में मैं वह सुविधा देता जो बड़े शहरों में होता है तो जो पापा के साथ हुआ, बड़े अस्पताल में ले जाते देर हो गई थी, वह शायद किसी और के साथ नहीं होता. एक तरफ़ मानवता की रक्षा होती, दूसरी तरफ़ आपके बेटे का ही नाम होता. भीड़ में मैं अलग और ऊपर होता. सामाजिक प्रतिष्ठा भी हमें मिलती."
देवयानी का सिर झुक गया था. विवेक ने फिर कहा, “अपनी ज़िद में आपने मेरा विवाह विदेश में पली-बढ़ी लड़की से कर दिया. यहां आकर रहने के लिए वह तैयार नहीं थी और यदि मैं ज़िद करता तो शायद हम अलग हो जाते. आपको वह भी बर्दाश्त नहीं होता. आपकी महत्वाकांक्षाओं ने एक सुखी परिवार को नष्ट कर दिया. वहां विदेश में अपने आप को गुमशुदा पाता हूं. आपका जीवन भी तो बेहद संघर्षशील रहा. आपको कहां आराम मिला.”
विवेक थोड़ी देर के लिए चुप हो गया. मौन कमरा दोनों को देख रहा था. विवेक ने देवयानी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, "इस घर को सजाने में आपने दिन-रात एक कर दिया. सालों लग गए किंतु आज क्या हश्र हुआ... आपकी आंखों में आंसू रुक नहीं रहे हैं... मैं अब यहां आकर नहीं रह सकता और आप भी कभी ना आने के लिए ही जा रही हैं... महत्वाकांक्षी होना बुरी बात नहीं, किंतु वह सही दिशा में होनी चाहिए. चलिए उठिए जाने का समय हो गया है.” कहते हुए विवेक उठ पड़ा. दोनों ही रो पड़े.
थरथराती आवाज़ में विवेक ने कहा था, "काश मम्मी आपने पापा का कहा मान लिया होता... काश!..
- रवि संगम
अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES
अभी सबस्क्राइब करें मेरी सहेली का एक साल का डिजिटल एडिशन सिर्फ़ ₹599 और पाएं ₹1000 गिफ्ट वाउचर.