अर्चना गौतम ‘मीरा’
एक बार मां ने हंसी-हंसी में कहा था, “वासु! मैं मरूं, तो मेरी मुट्ठीभर राख को मणिकर्णिका घाट पर विसर्जित कर देना... जहां तेरे बाबा की...” टूटा-सा वह मां की तस्वीर के आगे जलती अगरबत्तियों के धुएं में उनकी महक तलाश रहा था.
वह घाट की सीढ़ियां उतर रहा था... धीरे-धीरे. मैं भी उसके साथ थी, ठीक पीछे... एक सौ अस्सी डिग्री के कोण पर. उसे मेरे होने का आभास तक नहीं... पुरोहित का मंत्रोच्चारण चला जा रहा था. सहसा अपने विलय से पूर्व क्षणांश में... अतीत में खोने लगी थी मैं... अतीत की एक-एक घटना प्रतीक्षित खड़ी थी जैसे. दोबारा जिए जाने को. ...मैं और शिरीष सामान्य दंपति, जिसमें हमारा वासु प्रेम की धुरी और धरोहर है... प्रेम-धारा में स्नात हम तीनों और छोटा किंतु सुंदर-सा वह घर, जहां हम तीनों के साथ जुड़े असंख्य ख़ुशियों के क्षण भी बसते हैं. वासु ने तब स्कूल जाना शुरू ही किया था कि भूचाल-सी, उस एक दुर्घटना ने सब कुछ बिखेर दिया था. शिरीष के यूं अचानक हमें छोड़कर चले जाने के बाद कोई अदृश्य-शक्ति ही थी, जिसने मुझे समेटा था. मुझे चलना था, शिरीष के और मेरे सपनों के लिए, हमारे वासु के लिए. मेरी घड़ी की सूइयां मात्र वासु के इर्द-गिर्द घूमती थीं. और वासु के लिए मैं उसकी मां और बाबा दोनों ही तो थी अब. वासु मेरा सर्वस्व था, मेरी प्राण-वायु, मेरी जीवनशक्ति. एक-एक दृश्य अब भी प्रतीक्षा में यूं ही तो खड़ा है. नन्हें-से वासु के बाल संवारती मैं... उसकी उंगली थामे, उसे बैग थमाकर स्कूल छोड़ हाथ हिलाती मैं... वह बढ़ता रहा, मैं हर तापे-तपिश से बचाती, अपने आंचल की छांव किए, ग्लास लिए उसकी मिन्नतें-चिरौरियां करती और लोरी गाकर उसे थप-थपाकर सुलाती. हर परिदृश्य जीवंत है. उसे ज़रा-सा बुखार हो जाता, तो रात आंखों में ही कट जाती सचमुच.हू-ब-हू शिरीष की छवि निकाली थी वासु ने. वही नैन-नक्श, वही क़द-काठी... मैं बलिहारी जाती थी अपने वासु पर. नौकरी, घर और वासु- यही दुनिया हो गई थी मेरी. सपने साकार लगने लगे थे. वासु की लगन और मेरी तपस्या रंग लाई थी. उसे बहुत अच्छी नौकरी मिल गई थी. अकेलेपन का संघर्ष था शायद, जिसने मुझे कुछ जल्दी थका दिया था. अपने बोए-सींचे वृक्ष के तने से टिक, तनिक सुस्ताना चाहती थी मैं... वासु का विवाह कर अपने दायित्वों की इतिश्री कर लेना चाहती थी मैं... भूल गई थी कि जीते जी कहां पूरते हैं सगरे काज. कइयों रिश्तों में से पसंद किया था मैंने अपने वासु के लिए अति सुंदर, कॉन्वेंट शिक्षिता कावेरी को. मध्यमवर्गीय परिवार, तीन बहनें, एक भाई. सब ठीक ही तो था. और भला मुझे क्या चाहिए था? वासु ने तो अपने सारे निर्णय मुझ पर ही छोड़ रखे थे. चट मंगनी, पट ब्याह निपटा लिया मैंने... कावेरी और वासु की जोड़ी देख मैं फूली नहीं समाती. कावेरी में बहू नहीं, बेटी को ढूंढ़ना चाहा मैंने. जाने क्या बात थी? कौन-सी त्रुटि? कैसा पूर्वाग्रह? कावेरी मुझसे कटी-कटी रहती. एकाध बार मैंने खुलकर बात करना चाहा, किंतु मेरी पहल उस पर तुषाराघात करती, वह यूं छिटक जाती, गोया उसे मुझमें कोई दिलचस्पी न हो, लिहाज़ा मैं पुरज़ोर कोशिश में रहती थी कि दकियानूस, खड़ूस छविवाली पुराने ज़माने की सास जैसी कोई हरक़त न करूं. कितना ज़ोर लगाती मैं उसे अपनी ओर खींचने का, लेकिन वह एक क़दम तक न बढ़ाना चाहती थी. कुछ व़क्त बाद कावेरी के पांव भारी हुए. मेरे तो जैसे पंख लग गए थे. मारे ख़ुशी के उड़ी-उड़ी फिरती रही मैं... पूरे नौ महीने उसकी अवहेलना को दरकिनार कर अथक देखभाल की मैंने उसकी. ओह! नन्हा केशव... मैं सुख में नहा गई उसे गोद में लेकर, लेकिन वह तो उससे भी दूर रखना चाहती थी मुझे... मेरी सहनशक्ति चुकने लगी. शुरू-शुरू में दस-पंद्रह दिनों पर आनेवाले कावेरी के माता-पिता ने अब यहीं डेरा जमा लिया था और तब मेरे प्रति कावेरी की अवमानना का कोई पारावार ही न रहा था. उसकी मां उसके इस रवैये को बढ़ावा दिया करती, जिसकी भनक आए दिन वासु से उसके झगड़ों के दौरान मेरे कानों में पड़ जाया करती. मैं अपने ही घर में बेगानी-सी अलग-थलग रहती कि उन्हें कोई बात उठाने का मौक़ा न मिले. गाहे-बगाहे कमियां ढूंढ़-ढूंढ़कर दोनों तिल का ताड़ बना दिया करतीं. कावेरी, वासु और केशव की देखभाल में मैं कोताही करती कैसे? लेकिन दोनों मां-बेटी ने जैसे कमर कस ली थी मुझे वासु के जीवन से बाहर निकाल फेंकने की. मैंने ज़िंदगी के इतने उतार-चढ़ाव देखे और झेले थे, उनकी मंशा भांपते मुझे देर नहीं लगी थी. पर कैसे और क्या समझाती मैं कावेरी को, जिसके मन में मेरे लिए कोई जगह ही नहीं. मैं कुछ कहूं, उससे पहले कावेरी की मां झपटने को आतुर हो उठती. एक रोज़ वे तानाकशी करने में लगी थीं और वासु ने सुन लिया था. आगबबूला हो उठा था वह. स्पष्ट कह दिया था उसने कावेरी से कि उसे उसके माता-पिता के लगातार यहीं जमे रहने पर ऐतराज़ है. फिर तो जैसे कोई मोर्चा-सा छिड़ गया था. एक तो कावेरी कम न थी, दूसरी उसकी मां भी. बड़ा अधिकारी था वासु. कर्मचारियों की रात-दिन आवाजाही रहती. वे दफ़्तर से घर तक की एक-एक ख़बर रखते थे, बात का बतंगड़ बनते देर नहीं लगती. मेरे कारण मेरे बच्चों का भविष्य दांव पर लगे, मैं हरगिज़ सह न पाती. वासु को अपनी क़सम में बांध, नन्हें पोते की छवि दिल में बसाए मैं इलाहाबाद चली आई. माली पेड़ लगाता है, तन-मन से उसकी रक्षा करता है, फल की इच्छा नहीं रखता- समझा लिया था मन को. छह महीनों के विदेशी प्रवास के बाद लौटते ही ढेरों उपहार लादे कावेरी तो एयरपोर्ट से ही मायके हो ली थी. अपने स्वागत में आए, मम्मी-पापा और भाई-बहनों के साथ. थका-हारा वासु जैसे ही अपने सरकारी आवास पहुंचा- फोन की घंटी घनघनाई थी. इलाहाबाद से शर्मा चाचा थे, “बेटा...” आवाज़ की भर्राहट से चौंका था वासु... “जल्दी आ जाओ... तुम्हारी मां, वे नहीं रहीं...” सन्न खड़ा रह गया था वासु. रिसीवर पर चाचा रुंधे कंठ से कुछ कहे जा रहे थे और... मां की मिट्टी ज्यों उसकी बाट जोह रही थी... पाठ को विराम देकर पुरोहित जी उठे, तो वह भी टहलने लगा. बचपन से यौवन तक का साथी यह घर जीर्ण हो चला है. मां ढेरों स्मृति-चिह्नों में यहां-वहां... आंगन के एक कोने में पुरानी जंग खा चुकी छोटी-सी उसकी साइकिल. रस्सी पर न जाने कब से टंगी मां की सादी-सी सूती साड़ी... वासु ने भावविह्वल होकर उसे समेट लिया. मां ऐसे ही सिमट गई थीं उसके अंक में, कृशकाय हो गई थीं. वह मिलने गया था इलाहाबाद मां से, यह पता लगते ही कावेरी ने धमकाया था, “कान खोलकर सुन लो! मैं तुम पर, तुम्हारी मां पर दहेज-प्रताड़ना का केस कर दूंगी.” वह अवाक् व स्तब्ध रह गया था. तब से वह मां से फोन पर भी बात करता तो ऐसे छिपाकर, जैसे कोई चोरी... कोई गुनाह... उसके बाद से वह कावेरी के साथ बस निभाए चला जा रहा था, तो मां के लिए. वासु सोच रहा है- सदा हर निर्णय पर खरी उतरनेवाली उसकी मां से हुई यह पहली और आख़िरी भूल है... उन्हें कभी पता नहीं चलने दिया उसने कावेरी की धमकी का... शिक्षित-सुंदर कावेरी के भीतर के स्वार्थ... दोहरे स्वभाव और खोखले संस्कारों का अंदाज़ा मां लगाती भी तो कैसे? सिर पटक लेना चाहता था अपना. कैसे सही होगी मां ने इतनी वेदना? किंतु अब वह... उसकी रक्तिम आंखों में क्रोध और क्षोभ उतर आया है... जिसने उसे निर्णय तक पहुंचा दिया है. एक बार मां ने हंसी-हंसी में कहा था, “वासु! मैं मरूं, तो मेरी मुट्ठीभर राख को मणिकर्णिका घाट पर विसर्जित कर देना... जहां तेरे बाबा की...” टूटा-सा वह मां की तस्वीर के आगे जलती अगरबत्तियों के धुएं में उनकी महक तलाश रहा था. शर्मा चाची मौका पाकर उसकी बगल में आ बैठीं, “कमज़ोर तो बहुत हो गई थीं दीदी...” पंडित जी गरुड़-पुराण का पाठ कर रहे हैं और वे धीमी आवाज़ में ही सही, बोले जा रही हैं... “अकेली मानस, कभी पकाया-खाया, कभी नहीं. हम ज़रा जौनपुर गई रहीं... तब तो ठीक ही रहीं. किसे पता था...” सफ़ाई देती-देती वे उसे जैसे याद दिलाना चाह रही हैं... “बेटा, अफ़सोस के मारे जान निकली जाती है कि हम सबके रहते उनकी मिट्टी दो दिन पड़ी ख़राब होती रही...” वासु तड़प उठा था और वे अपनी ही रौ में बही चली जा रही थीं कि यकायक बुआजी ने आकर उन्हें बहाने से उठाया, “अरे भाभी, आप यहां हो और वहां भैया हलवाई की लिस्ट के लिए आपको खोज रहे हैं.” वासु मन ही मन बिलख रहा है, सुलग रहा है... पंडित जी किसी बैतरनी नदी का ज़िक्र कर रहे थे- वह बुदबुदा उठा है... “जानता हूं चाची, मां ने जीते जी बैतरनी पार की है...” आगे के शब्दों ने उसके कंठ को अवरुद्ध कर दिया. “बेटा, एक न एक दिन सभी को जाना है, धीरज रखो.” बुआजी उसकी पीठ थपथपाने लगीं. मांजी की मृत्यु की सूचना मिल जाने पर भी कावेरी मायके में ही बनी रही थी, महज़ इसलिए कि दूसरे दिन उसके भाई की सगाई थी. उसे वहां देख कुछ जाननेवालों में कानाफूसियां भी हुईं, किंतु वह अनजान बनी रही. मेहमान अभी विदा हुए ही थे कि वासु का पर्सनल-सेक्रेटरी तलाक़ का नोटिस लिए पहुंचा था. कावेरी और उसके माता-पिता के पैरों तले ज़मीन खिसक गई थी. वह केशव को लिए चुपचाप कार में बैठ गई थी और परिवारवालों ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया था. चार घंटों का सफ़र तय करके जब उसने घर में क़दम रखा, तो बाहर ही रोक दिया था वासु ने उसे, “अब यहां क्यों आई हो?” वह तो सीधे वासु के पैरों पर गिरकर रो पड़ी. बुआजी ने समझाया था, “रहने दे बेटा, सुबह का भूला, शाम को घर वापस आ जाए, तो उसे भूला नहीं कहते.” फिर मुखातिब हुई थीं कावेरी से, “तुम तो इतनी पढ़ी-लिखी हो दुल्हन! ऐसा अगर तुम्हारी मां के साथ होता, तो तुम क्या करती?” कावेरी मुंह छिपाए रोती ही रही. क्या कोई उत्तर था उसके पास? वासु यंत्रचालित-सा उन मुट्ठीभर फूलों को जल-प्रवाह में विलय होता देख रहा था. क्या इस तर्पण से मां के जीवन को लौटाया जा सकता है? जलपंत ने केशव को गोद में लेकर उसके हाथों से भी अंजुलिभर जलधारा जल में ही गिरा दी है. पंचतत्वों में विलीन होते-होते मैंने कहा था, ‘मैंने तुम्हें क्षमा किया कावेरी,’ जिसे वह सुन न सकी, किंतु विश्वास था मुझे अपने वासु और अपने दिए संस्कारों पर कि वह अवश्य क्षमा कर देगा कावेरी को! मैंने केशव के सिर पर प्यार से हाथ फेर दिया था और वह पलटकर मुस्कुराया था.अधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें – SHORT STORIES
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