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कहानी- कंकाल (Short Story- Kankal)

सुषमा मुनीन्द्र

कई कुरूप हुए हैं, जिन्होंने अपने क्षेत्र में नाम कमाया. इतना नाम कमाया कि लोग उनकी कुरूपता भूल गए. उनके काम को याद रखने लगे. मैंने कुरूपों से प्रेरणा ली. मुझ जैसी कंकाल, लोगों को जीवनदान दे रही है सोचकर शांति मिलती है. सच कहूं तो बुराई सुनना मेरे बहुत काम आया. बुराई सुनने से सहनशक्ति बढ़ती है.

वक़्त-वक़्त की बात है, पता नहीं किसने सबसे पहले कहा होगा. सरस को लग रहा है जिसने भी कहा होगा, उसके तारतम्य में कहा होगा.
सरस के लिए वक़्त ऐसी गुत्थी बन गया है, जिसे सुलझा लेने का कौशल उसके पास नहीं है. एक वक़्त था जब रूप-रंग के दर्प में ख़ुद को सर्वेसर्वा मानती थी. एक वक़्त है जब इस तरह पिटी हुई लग रही है जैसे वक़्त ने चार पनही रसीद कर दी है. एक वक़्त था जब विज्ञान स्नातक प्रथम वर्ष की मगरूर छात्रा थी. एक वक़्त है जब दिल्ली के विख्यात हार्ट केयर एण्ड रिसर्च सेन्टर के आवंटित रूम में प्यादा बनी बैठी है. लग रहा है वक़्त ने पूरी तरह ठग लिया है.
वे तारीख़ें आती हैं जिनके लिए हम चाहते हैं न आएं. उसका व्यवसायी पति जय व्यवसाय में, वह गृहस्थी में मुब्तिला थी कि वक़्त एकाएक वीभत्स हो गया. वक़्त ने वीभत्स होने के लिए मध्य रात्रि को चुना. तेज खांसी और सांस में अवरोध से जय पस्त हुआ जाता था. ख़ासी थम नहीं रही थी. बेचैनी, घबराहट, घुटन से भली प्रकार सांस नहीं आ रही थी. दोनों विवाहित बेटियां अपना संसार रौशन कर रही हैं. बेटा बाहर पढ़ रहा है. ड्राइवर को कॉल कर सरस जय को किसी तरह अस्पताल ले गई. छोटे नगर रतनपुर में न पर्याप्त चिकित्सकीय सुविधाएं न दक्ष चिकित्सक. चिकित्सकों ने आरम्भिक उपचार करते हुए दो टूक कहा, शीघ्रताशीघ्र दिल्ली ले जाना होगा.
घातक वक़्त.
जय दिल्ली के हार्ट केयर एण्ड रिसर्च सेन्टर में भर्ती कर लिया गया. अस्पताल के कपड़ों में जय का मरीज़ वाला हुलिया देख सरस को लगा चेतना खो देगी, पर चेतना कठोर होती है. भीतर न जाने कौन सी मज़बूती होती है, जो चेतना को खोने से बचा लेती है. सरस की नसों में कम्पन है. जय उसे चलाचली के मुहाने पर नज़र आ रहा है. दूसरे दिन से जांच शुरू हो गई. जांच के लिए जय व्हील चेयर से कई कक्षों में ले जाया जाता. भय से या पीड़ा से सुस्त होकर लौटता. सरस को लग रहा है अस्पताल आकर मरीज़ और उसके परिजन कुछ भी सोचने के लिए स्वतंत्र नहीं रह जाते हैं.
रिपोर्ट ने सरस की स्फुलिंग ख़त्म कर दी. जय के हृदय का एक वाल्व बदला जाएगा. एक रिपेयर होगा. सुबह हार्ट स्पेशलिस्ट हेड सर्जन समूह के साथ कक्ष में आए. उनके नरम व्यवहार से मरीज़ की आधी बीमारी दूर हो जाती है. उन्होंने ध्वस्त सी बैठी सरस से कहा, “न घबराएं. यहां कई ऑपरेशन रोज़ होते हैं. हमारे लिए बहुत बड़ी बात नहीं है. कल सुबह दस बजे सर्जरी होगी. शाम को मेरी वाइफ राउण्ड पर आएंगी. कुछ निर्देश देंगी.”
शाम को अपना विलक्षण रुतबा लिए सधी चाल से शगुन राउण्ड पर आई. यही वक़्त था जब वक़्त पीछे लौट कर सज्जनपुर के कन्या महाविद्यालय में पहुंच गया. सरस चकमा खा गई. शगुन? इतनी बड़ी सर्जन? इसे तो वह कंकाल कहती थी. देह और चेहरा परिष्कृत भराव लेकर ऐसा रसूख वाला लग रहा है कि मिलान करना कठिन है कि यह वही रूखी-सूखी शगुन है. सरस का बदन सूख गया. जय ग़लत जगह आ गया है. जय उसका पति है, जान कर शगुन उपचार को भरपूर बदला निकालने का अवसर बना सकती है. शगुन इस तेज़ी से जय के बेड के समीप गई जैसे मरीज़ के अलावा परिदृश्य से प्रयोजन नहीं रखती है. उसने अपने साथ आए डॉक्टर और पैरा मेडिकल स्टाफ को कुछ निर्देश दिए. जय की हथेली थपक कर बोली, “आप ठीक हो जाएंगे.”
वापस लौटते हुए उसकी नज़र सरस की उड़ी रंगत पर पड़ी. ज़रा सा ठिठकी. यह तो कॉलेज की परम सुंदरी है, जो ख़ुद को प्रधान समझती थी. देह में चर्बी चढ़ गई है. अनोखी अदा ढल गई है. चेहरे में कातरता है, पर बदलाव इतना नहीं है कि पहचानी न जाए.
“सरस तुम…”
“शगुन…”
“ये… मेरे पति. ठीक हो जाएंगे न?”
“हां, हम डॉक्टर्स इसीलिए यहां हैं. अभी राउण्ड पर हूं.”
शगुन तेज़ी से चली गई. सरस इस तरह श्‍लथ हो गई मानो समझ खो दी है. शगुन के विराट रूप के सामने वह अदना लग रही है. उसने जय को देखा. चेहरे में अंतिम मियाद वाली पीड़ा और भय है. जीवनभर के मोह, प्रलोभन, स्वप्न एक प्रश्‍न पर आकर सिमट गए हैं- ओ.टी. से सलामत वापसी करेगा या…
जय ओ.टी. में है.
सरस लॉबी में आकर बैठ गई. यहां ऑपरेशन वाले मरीज़ से संबंधित सूचनाएं एनाउन्स की जाती हैं. तरतीब से लगी कुर्सियों में मरीज़ों के परिजन बैठे हैं. लॉबी में भव्यता, शांति, ठंडक है. सरस को भव्यता भयभीत कर रही है. शांति अशांत बना रही है. ठंडक नसों को ठंडा किए दे रही है. ईश्‍वर से जय के लिए कल्याण मांगती देर तक बैठी रही. जब बैठना कठिन लगने लगा, चहलकदमी करते हुए लॉबी के उस कोने में चली गई जहां चार बड़े टीवी लगे हैं. बाइपास, पेसमेकर, वॉल्व सर्जरी, एंजियोप्लास्टी जैसी शल्य क्रिया की रील्स टीवी पर चल रही है. लाल रुधिर और लब्ब-लब्ब धड़कते हृदय को देख उसकी धड़कनें हलक में आ गईं. लगा अस्पताल चक्रव्यूह या मायालोक है, जहां से कभी नहीं निकल सकेगी. उसने आख़िरी सहारे के रूप में भगवान को याद किया.
जय की सर्जरी के पेपर में उसने दस्तखत कर दिए हैं. यदि शगुन के प्रतिशोध के कारण जय ओ.टी. से जीवित न लौटा, तो समाज या क़ानून को कोई ख़बर नहीं होगी कि वह शगुन के द्वारा की गई भर्रेशाही के कारण जीवित नहीं लौटा है. छोटा सा शब्द सॉरी शगुन को दोषमुक्त सिद्ध कर देगा.
सरस को अपनी सुंदरता और शगुन की निपुणता याद आई. अपनी मक्कारियां उसका मनोबल याद आया. अपने गुनाह उसकी सूझबूझ याद आई. पेचीदा विगत को याद करते हुए उसकी दशा ऐसी हो रही है जैसे लम्बी यात्रा की थकी यात्री है. वक़्त पीछे लौटते हुए सज्जनपुर के कन्या महाविद्यालय में जा पहुंचा है. सरस और शगुन विज्ञान स्नातक प्रथम वर्ष की छात्राएं. सरस अपने रूप-रंग के कारण चर्चा में थी. तीसरी पंक्ति की बेंच में गुमशुदा सी बैठी रहने वाली शगुन गुमशुदा ही रहती यदि रसायन शास्त्र की प्राध्यापिका गौरी मैडम न पूछती, “ग्यारहवीं में कितनी छात्राओं की फर्स्ट डिवीजन है?” उन दिनों बारहवीं नहीं था. ग्यारहवीं की बोर्ड परीक्षा होती थी. चार छात्राएं खड़ी हुईं, जिनमें सबसे अधिक 76 प्रतिशत शगुन का था. अब सौ प्रतिशत का दौर है. तब चार-छह विद्यार्थी ही प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते थे. इन्हें अखिल भारतीय प्रतियोगी परीक्षा में सफल होने लायक माना जाता था. गुड सेकेण्ड भी एक डिवीजन होता था, जो 55 से 59 प्रतिशत के बीच का था. गौरी मैडम ने शगुन को शान से देखा, “बढ़िया शगुन. विद्यार्थी अच्छे हों तो पढ़ाने में मज़ा आता है.”
शगुन के मुख पर अर्हता का तेज था. छात्राएं पीछे मुड़ कर उसे देखने लगीं. सरस की भंगिमा बिगड़ी हुई थी. बगल वाली सहपाठिन की कनपटी में फुसफसाई, “शरीर में जान नहीं है. दिमाग़ को खुराक़ कहां से मिलती है कि 76 प्रतिशत बता रही है. मुझे सब फर्ज़ी लग रहा है.”
शगुन ने सभी शिक्षकों को प्रभावित कर लिया. गौरी मैडम कद्रदान बन गईं. प्रश्‍न पूछतीं. सबसे पहले शगुन का हाथ उठता. मैडम बोलीं, “शगुन तुम तो बता ही दोगी. आज और कोई बताए. सरस तुम बताओ.”
46 प्रतिशत लेकर दो साल में ग्यारहवीं उत्तीर्ण हुई सरस गर्दन झुकाकर खड़ी हो गई. मैडम ने तिक्तता से कहा, “सरस, फैशन पर नहीं पढ़ाई पर ध्यान दो. शगुन से प्रेरणा लो.”
यही वक़्त था जब सरस के सक्रिय और सुप्त दिमाग़ में शगुन इतना प्रभावी हो गई कि उसे लगने लगा इसके सम्मुख उसका रूप-रंग बेअसर होता जा रहा है. मैडम के जाते ही ऊंची आवाज़ में बोली, “गौरी मैडम कंकाल की मातृ देवी (गॉड मदर) बनी जा रही हैं.”
बेहूदा तर्ज़ इतना आकस्मिक था कि छात्राओं की हंसी अनायास निकल गई. किसी ने पूछा, “कंकाल?”
“जूलोजी लैब के शो केस में जो ह्यूमन स्केलेटन रखा है, उसमें चमड़ी चढ़ा दो तो 76 प्रतिशत बन जाएगा.”
शगुन इस तरह असम्पृक्त दिखी मानो कटाक्ष को गौर करने लायक नहीं समझ रही है. जानती थी पढ़ने में रुचि रखने वाली दो-चार छात्राएं ही उसके साथ हैं.
अधिसंख्यक छात्राएं सरस के पैसे से कैन्टीन में मुफ़्त का खाने-उड़ाने के लिए सरस की जी हुजूरी में रहती हैं. कुछ कहती है तो सरस का समूह सामूहिक द्वन्द पर उतर पड़ेगा. शगुन, सरस की अशोभनीय गतिविधियों पर ध्यान न दे किताबों में इतनी दत्त रहती कि अन्य गतिविधियों में प्रतिभागिता नहीं करती थी. कॉलेज में वार्षिक गतिविधियां हो रही थीं. सरस ने वाद-विवाद प्रतियोगिता में हिस्सा लेने के लिए घर में ट्यूशन पढ़ाने वाले गुरू से स्पीच लिखवाकर रट ली. गर्मजोशी से प्रस्तुति दी. सभी प्रतिभागियों के विचार सुन लेने के उपरांत संचालक ने कहा, “विषय के पक्ष और विपक्ष में बहुत कुछ कहा गया, पर सम्यक दिशा में बात नहीं हुई है. कोई छात्रा उठाए गए बिन्दुओं पर अपनी बात रखना चाहे तो मंच पर आ सकती है.”
शगुन का इरादा न था, पर विपक्ष के कुछ बिंदु उसे अतिरंजित लगे. वह सहसा मंच पर आ गई. सरस ने परिहास किया, “कंकाल हूट होने के लिए माइक के सामने खड़ी है. जोश में बोलने के लिए शरीर में चर्बी होनी चाहिए.”
अचम्भा!
झिझकी से दिखने लगी शगुन अलग ही उग्र भाव में थी. उसने विपक्ष में बोलने वालों के जो बिंदु काटे, उनमें सबसे अधिक बिंदु सरस के थे. शगुन को प्रथम स्थान मिलना सरस के लेखे में पतन वाली बात थी. वह शगुन को लक्ष्य बनाने लगी. अगले दिन कक्षा में प्रविष्ट होते हुए शगुन ने देखा ब्लैक बोर्ड में कंकाल का चित्र बना है, जिसके ऊपर 76 प्रतिशत लिखा है. सरस सोच रही थी शगुन हंगामा करेगी, पर वह शिष्टाचारी भाव में अपनी बेंच पर बैठ गई. सरस ने सुनाया, “भगवान ने मुझे कंकाल बनाया होता, तो मैं आत्महत्या कर लेती.”
बगल की छात्रा ने कहा, “कंकाल मातृ देवी से शिकायत कर देगी, तो सरस तुम्हें केमिस्ट्री के प्रैक्टिकल में ज़ीरो मिलेगा.”
प्रहसन चलता रहता, लेकिन वनस्पति शास्त्र के सर आ गए. कंकाल को देखा, “किसकी शरारत है?”
कक्षा में मौन. “कंकाल के साथ 76 प्रतिशत लिखा है. 76 प्रतिशत किसके हैं?”
शगुन खड़ी हो गई, “सर, मेरे.”
“तो यह तुम्हारा कार्टून बनाया गया है. बताओ किसकी शरारत हो सकती है?”
शगुन, सरस का प्रताप बता देना चाहती थी, पर उसके अंत:करण में अच्छे इंसान वाली शुद्धता थी.
“जिसके शरीर में कंकाल नहीं होगा, उसने बनाया होगा. बताएं सर हम बिना स्केलेटन के ज़िंदा रह सकते हैं?”
सर को शगुन धीरज वाली लगी. छात्राओं को सरसरी तौर पर देखते हुए बोले, “किसी का मज़ाक बनाना अच्छी सोच नहीं है.”
शगुन ने सराहना की, “सर, कंकाल का डायग्राम कमाल का है. बनाने वाली ने मेहनत से बनाया है.”
सरस तिलमिला गई. कंकाल आदर्श बनने चली है. सर के गमन करते ही बोली, “कुछ लोग मोटी चमड़ी के होते हैं. अपमान, अनादर सह जाते हैं.”
इसे अतिरंजना कहें या विकार कि शगुन को देखते ही सरस के भीतर आतिश भर जाती थी. कंकाल को हीन बनकर रहना चाहिए, पर उसके मुक़ाबले पर आना चाहती है. शगुन कॉलेज, परिसर, क्लास, कैन्टीन, लैब, लाइब्रेरी जहां भी होती, सरस उसकी ओर संकेत कर कानाफूसी या हंसी-ठट्टा करती. उसने शगुन के समूह की तीनों छात्राओं को उकसाया, “तुम लोग कंकाल से अपने दिमाग़ के लिए पोषण लेती हो क्या?”
एक ने कह दिया, “हां इसीलिए हम तीनों शगुन के साथ रहते हैं. जिसे मुफ़्त के समोसे, आलूबण्डे खाने हों तुम्हारे साथ रहें. सरस पढ़ने में थोड़ा समय लगाया करो. एग्ज़ाम होने वाले हैं.”
शगुन निस्पृह बनी रहती. सरस को लगता उसकी अवहेलना कर रही है, बल्कि उसकी उपस्थिति को अमान्य कर रही है.
प्रैक्टिकल एग्ज़ाम हो गए. प्रिपरेशन लीव हो गई.  
वनस्पति शास्त्र की प्रायोगिक परीक्षा में आया युवा एक्सटरनल एग्ज़ामिनर रसिक मिज़ाज का था. सरस की मोहिनी सूरत पर मोहित हो गया. वर्णमाला के अनुसार सरस और शगुन की सीट समीप थी. वायवा में सरस से विषय संबंधी प्रश्‍न न पूछ इधर-उधर की बातें करते हुए आंखें उसके चेहरे पर चस्पा किए रहा. शगुन से कई प्रश्‍न पूछे. उसने सम्यक उत्तर दिए. अद्भुत बात थी. शगुन की तरह सरस को भी 50 में 49 अंक दे गया.
वार्षिक परीक्षाफल अनुमानित ही था. शगुन ने सर्वाधिक अंक अर्जित किए. सरस सभी विषयों में अनुत्तीर्ण. उसके पिता समझ गए उसमें विज्ञान पढ़ने की योग्यता नहीं है. बीए में प्रवेश दिला दिया कि किसी तरह स्नातक हो जाए तो विवाह कर दें. सरस को विज्ञान की सहपाठिन से ज्ञात हुआ शगुन ने पहले प्रयास में पीएमटी निकाल लिया है.
सरस वक्रोक्ति, “कंकाल ठीक जगह पहुंच गई. इतनी दुर्बल है कि उसे जीवनभर दवाइयों की ज़रूरत पड़ेगी. अपना इलाज ख़ुद कर लिया करेगी.”
बीए पूरा करते ही सरस का विवाह रतनपुर के प्रतिष्ठित व्यवसायी के पुत्र जय से हो गया. तीन बहनों के बाद मुंहमागे इकलौते पुत्र जय की शान-शौकत थी. जय उसके रूप की जय-जयकार करता. सरस फूले न समाने वाले भाव में होती, “सोचती थी बिज़नेस मैन बही खाते पढ़ना ही जानते हैं, पर तुम्हें सराहना करना आता है.”
“बही खाते ही जानता-समझता था. तुमसे मिलकर लगा ज़िंदगी को बही खाते की तरह नहीं ज़िंदगी की तरह जीना चाहिए.”
“समझी नहीं.”
“अब समझ में आ रहा है ज़िंदगी में कितने रंग, स्वाद, ख़ुशबू होती है.”
वह सुनहरा वक़्त था. पौष्टिक खाकर सरस की देह का भूगोल बढ़ गया. दो पुत्रियों, एक पुत्र का जन्म हो गया.
पिता के निधन के बाद जय व्यवसाय में अस्त-व्यस्त हो गया. बातों के विषय बदल गए. बच्चों की शिक्षा, व्यावसायिक पैंतरे, अम्मा की बीमारी. रूप की बातें ख़त्म हो गईं. अपनी गति-नियति तय करते हुए वक़्त लम्बी दूरी नाप कर दिल्ली के हार्ट केयर एण्ड रिसर्च सेंटर में ठहर गया है. लॉबी में मरीज़ों से संबंधित सूचनाएं ठहर-ठहर कर घोषित हो रही हैं. संबंधित मरीज़ के परिजन सूचना के आधार पर आवाजाही कर रहे हैं. जय की सूचना नहीं मिल रही है. सरस मोहताज की तरह बैठी है. पापी मन में संशय उठ रहे हैं. यदि शगुन मौक़ापरस्त निकली, जय को कुछ हो गया तो रेडीमेड गारमेन्ट्स के इतने बड़े व्यवसाय का क्या होगा? बेटा अभी सक्षम नहीं हुआ है.
यह शाम सात का वक़्त है. जय को आईसीसीयू में शिफ्ट किए जाने की घोषणा हुई. उसे घोषण सांद्र अंधेरे के पार उदित हो रहे उजास की तरह लगी. चौथे दिन जय को रूम में शिफ्ट कर दिया गया. इस दौरान शगुन ने उससे कोई सम्पर्क नहीं किया. दोपहर में मुस्कुराते से मुख वाली सिस्टर तनकम्मा रूम में आई. हंसकर सरस को नमस्कार किया, “मैडम, आप शगुन मैडम की क्लासमेट हो?”
“हां… हम दोनों…”
“मैडम का ऑर्डर है मिस्टर जय की स्पेशल केयर करनी है.”
“यहां अच्छी केयर हो रही है.”
“शगुन मैडम और धनंजय सर बहुत होशियार हैं. इन दोनों के कारण हॉस्पिटल फेमस हो गया है. शगुन मैम जिस पेशेन्ट को हाथ लगा दें, समझो ठीक हो गया.”
प्रतिस्पर्धा का कोई कतरा शायद अब भी भीतर पड़ा था कि सरस ने पूछ लिया, “सैलरी बहुत मिलती होगी.”
“पैकेज एक करोड़ है. उनकी कैपेबिलिटी के सामने यह पैकेज कुछ नहीं है. कुछ लोगों का टाइम पैसे से अधिक क़ीमती होता है. ट्रीटमेन्ट करने विदेश जाती रहती हैं. आपका लक अच्छा है कि दोनों यहां हैं.”
तनकम्मा, शगुन की प्रभुता का इस तरह बखान कर रही थी मानो यह उसका व्यक्तिगत गौरव है. सरस को लगा भुरभुरे धरातल पर खड़ी है. सोचती थी कंकाल से कोई विवाह नहीं करेगा, पर प्रेजेन्टेबल और दमदार लगने वाले डॉक्टर धनंजय उसके पति हैं. अब तक जय की फ़िक्र प्रबल थी. जय से अलग कुछ सोच नहीं पा रही थी. अवचेतन पर पड़ते दबाव के कम होने पर पृथक सोचने लगी. वह वस्तुत: शगुन के सामने खड़े होने की भी औकात नहीं रखती है. शगुन विराट रूप में है. शगुन से नज़र मिलाकर बात करने का बल उसमें नहीं है.
शाम को शगुन और धनंजय आ गए. जय से हालचाल पूछकर इत्मीनान से बैठ गए. शगुन ने आत्मीयता दी, “सरस, आज मैंने धनंजय से कहा थोड़ा वक़्त निकालो. मुझे अपनी क्लासमेट से ख़ूब बातें करनी हैं. मेडिकल में जाने के बाद मैं सबसे कट गई थी.”
झिझक बहुत है, पर सरस को शगुन इतनी अपरिहार्य लगी कि जी चाहा उसके चरण छू ले.
“शगुन, तुम्हें किस तरह धन्यवाद दूं?”
“ज़रूरत नहीं है. हम दोनों ने अपनी ड्यूटी की है.”
“लग रहा है जैसे तुम जय की प्राण रक्षा के लिए डॉक्टर बनी हो.”
धनंजय ने सूत्र पकड़ लिया, “सरस जी आप ठीक कहती हैं. शगुन की सूरत देखते ही मरीज़ को अभयदान मिल जाता है. मुझे तो इनके बिना दो कदम चलने में कठिनाई होती है.”
शगुन खुलकर हंसी. सरस को लगा उसी तरह खिल्ली उड़ा रही है जैसे वह उड़ाती थी. मनुष्य अपने भीतर के भावों से नहीं छूट पाता है.
“सरस, मेडिकल में धनंजय कई सुंदरियों की पहली पसंद थे. मुझ कंकाल में पता नहीं क्या देख लिया कि अड़ गए मुझसे शादी करेंगे.”
सरस के चेहरे में उधेड़बुन के भाव उभर आए. क्या धनंजय कंकाल वाली अवमानना जानते हैं? क्या-क्या जानते हैं? धनंजय उसे ही देख रहे थे.
“सरस जी, आप ही बताएं मेरे साथ पार्टीज़ में सुंदरियां ज़रूर जंचतीं, पर मेरे काम में इतना साथ कैसे देतीं जितना शगुन देती है.”
सरस ने पलकें झुका लीं. धनंजय शायद सब जानते हैं, इसलिए चुनौती दे रहे हैं, दक्षता के सम्मुख रूप की महिमा नहीं होती.
शगुन ने शालीनता बनाए रखी, “धनंजय, कुछ अधिक नहीं हो गया? सरस, मैं तुम्हें डिनर के लिए इनवाइट करने आई हूं. घर कैम्पस में ही है. सिस्टर तनकम्मा जय जी का ध्यान रखेंगी. कल शाम सात बजे ड्राइवर भेजूंगी. धनंजय को कहीं जाना है. हम सहपाठिनें आराम से अपने ज़माने को याद करेंगे.”
सरस के प्राण पशोपेश में. घर बुला कर एकांत में ़फुर्सत से जलील करेगी.
शगुन का साफ़ स्वच्छ सुविधायुक्त घर. प्रफुल्ल भाव में शगुन. पटकनी खाई सी सरस. योग क्षेम पूछने के लिए स्वर तंत्र नहीं खुल रहा है. बैठक में लगी बड़ी फ्रेम्ड तस्वीर बोलने का बहाना बन गई.
“शगुन बहुत सुंदर तस्वीर है.”
“मेरी बेटी और बेटा. दोनों मेडिकल कर रहे हैं. हमारा परिवार चिकित्सकों का परिवार बनता जा रहा है.”
“क्या कहूं शगुन… पता नहीं कैसी बेवकूफ़ी थी, जो मैंने तुम्हारी कद्र न की. माफ़ी ही मांग सकती हूं.”
“माफ़ी क्यों सरस? तुम न होती तो शायद मैं यहां तक न पहुंचती.”
“मतलब?”
“तुम लोग मेरी खिल्ली उड़ाती थी. मुझे तकलीफ़ होती थी, पर ज़िद भी मिली कि बुद्धि का भरपूर उपयोग कर जीने का लक्ष्य ढूंढ़ लूंगी.”
“मैं शर्मिंदा हूं.”
“कई कुरूप हुए हैं, जिन्होंने अपने क्षेत्र में नाम कमाया. इतना नाम कमाया कि लोग उनकी कुरूपता भूल गए. उनके काम को याद रखने लगे. मैंने कुरूपों से प्रेरणा ली. मुझ जैसी कंकाल, लोगों को जीवनदान दे रही है सोचकर शांति मिलती है. सच कहूं तो बुराई सुनना मेरे बहुत काम आया. बुराई सुनने से सहनशक्ति बढ़ती है. मेडिकल की पढ़ाई करना, कैडेबर (डेड बॉडी) को देखना, एनाटॉमी समझना आसान नहीं था. कई मेडिकल स्टूडेन्ट घबरा जाते थे जबकि बुराई सुनते हुए मैं मानसिक रूप से मज़बूत हो गई थी.”
“शगुन तुमने जय की जान बचाई. मैं नहीं सोच पाती उनके बिना जीवन कैसा होगा.”
“सरस, मैंने उपकार नहीं किया. इलाज करना मेरा प्रोफेशन है. ड्यूटी है. मरीज़ ठीक हो जाता है तो यह हम डॉक्टर्स को अपनी व्यक्तिगत जीत लगती है. मरीज़ को बचा नहीं पाते तो लगता है हम हार गए हैं.”
सरस रो देगी. कोई इतना सहज कैसे हो सकता है कि अपवाद की तरह लगे. इसे देखकर लग रहा है स्वाभाविक भाव में रहने के लिए मेहनत नहीं करनी पड़ती. बनावटी भाव में रहने के लिए करनी पड़ती है. वह जब शगुन को देखकर तिलमिलाती थी, मानसिक अस्थिरता से भर जाया करती थी. बातें नहीं सूझ रही हैं. किसी तरह बोली, “तुम महान पैदा नहीं हुई शगुन, लेकिन मेहनत से महानता को पा लिया है. मैं कहीं नहीं पहुंच सकी.”
“इस महान की बात ध्यान से सुनो. जय जी की सर्जरी बहुत अच्छी हुई है. उन्होंने हमारे साथ बहुत कोऑपरेट किया. पेशेन्ट के एफर्ट्स अच्छे हों, तो इलाज करने में आसानी होती है. कुछ पेशेन्ट ओ.टी. की ठंडक, शांति, तेज़ लाइट, डॉक्टरों की संख्या देखकर घबराने लगते हैं. जय जी की छह महीने, बल्कि साल भर अच्छी केयर करनी होगी. इन्फेक्शन से बचाना होगा. मेडिसिन, रूम टेम्प्रेचर, डायट का ध्यान रखना है. कैलोरी को ध्यान में रखने हुए डायट चार्ट बना दिया जाएगा. अच्छी केयर हो तो रिकवरी जल्दी होती है.”
“ध्यान रखूंगी.”
डिनर के बाद ड्राइवर सरस को अस्पताल पहुंचा गया. जय को अस्पताल से छुट्टी मिल गई. बिल के भुगतान के समय कर्मचारी ने बताया, “यहां कुछ केस में 10 परसेन्ट की छूट दी जाती है. शगुन मैम के कहने पर आपको 20 परसेन्ट की दी गई है.”
भुगतान करते हुए सरस को लग रहा था पूरी तरह क्षुद्र हो गई है. ऐसी क्षुद्र जिसे माफ़ी मांगने का भी मौक़ा नहीं मिलता.

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