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कहानी- संक्रमण काल (Short Story- Sankraman Kaal)

श्‍लोक सन्न बैठा था. उसकी आंखों में मम्मी के उग्र, चिड़चिड़े, अक्स उभरे. महसूस किया था पिछले कुछ सालों में वह पापा की ज़रा सी बात पर उखड़ जाती थी. मानो वह पापा पर झल्लाने का मौक़ा ढूंढ़ती हों. पापा की ज़रा सी बात को तूल देना और बातें सुनाना उनका स्वभाव बनता गया. कभी-कभी वह अनमनी-गुमसुम दिखतीं तो कभी बेहद उग्र.

इन दिनों मौसम का रत्ती-रत्ती बदलना मन को भाने लगा था. खिली चटख धूप में सर्दियों के भारी-भरकम कपड़े उतारकर रख ज़रूर दिए थे, पर उन्हें अंदर करने की हिम्मत नहीं थी. वेट एंड वॉच वाली सिचुएशन बनी हुई थीे. सर्दी गई या लौटकर फिर आएगी की दुविधा में कपड़ों का ढेर लग चुका था.
घर के प्रत्येक सदस्य ने अपने ऊपर चढ़े कपड़ों की परतें कम कर दी थीं, पर सुदेश अभी भी मफलर लपेटे बैठक में बैठे हुए थे.
कानों में मफलर लिपटे होने के बावजूद बगल के कमरे से हल्ला-गुल्ला आ रहा था. इस शोरगुल के बीच उनका रसगुल्ला क्या कर रहा होगा, यह विचार मन को कौतूहल से भर रहा था. रसगुल्ला, हां रसगुल्ला ही बुलाते हैं वह अपने दो माह के गुलाबी होंठों, चमकीली आंखों और दूधिया रंगत वाले पोते को, जिसका वास्तविक नाम रियांश है.
नन्हा रियांश जब से इस घर में आया है, वातावरण संगीतमय हो गया है. हवा में खनक सी रहती है. जी तो करता है उसी कमरे में बैठे-बैठे उसे देखते रहें, पर ऐसा मुमकिन नहीं है. वह जब तक हंस-खेल रहा है तब तक तो ठीक, ज़रा सा उआं-उआं… किया नहीं कि सब अलर्ट मोड पर आ जाते हैं.
पत्नी इला यानी बच्चों की दादी उन्हें आंख के इशारे से बाहर जाने को कहती है, इशारा कि नन्हा दूध पीएगा. बोतल से दूध अभी पीना शुरू नहीं किया है न, जब शुरू करेगा तब शायद यह बाध्यता बंद हो.
इला, बहू आर्या और बेटे श्‍लोक की मिली-जुली हंसी, बातचीत के स्वर के साथ पोते की आवाज़ें कानों में पड़ती हैं, तब लगता है कि उन्हें मर्द होने की सज़ा मिल रही है, वरना क्या किसी की मजाल जो उन्हें कमरे से बाहर का रास्ता दिखाए.
उन्हें याद है जब श्‍लोक पैदा हुआ था तब वह इला के इर्दगिर्द रहना चाहते थे, पर तब दूसरा ज़माना और दूसरी समस्याएं थीं. मां आंखोें ही आंखों में घुड़कती, इशारा साफ़ होता कि दादी, बुआ, चाचियों की मौजूदगी में ज़रा पिता प्रेम कम प्रदर्शित करो.
संयुक्त परिवार में दादी, चाचा-चाची, माता-पिता की गोद से श्‍लोक को छुट्टी मिलती, तब वह उनके हाथ आता. रात को ज़रा सा रोया, तो दरवाज़े पर, “क्या हुआ?” का प्रश्‍न लिए उसे संभालने के लिए कोई न कोई खड़ा मिलता. यह वाकई एक सुविधा-सहूलियत थी, जो शिशु के लालन-पालन की दुश्‍चिंताओं से मुक्त किए थी, पर अपने बच्चे  का साथ पाना, उसके साथ खुलकर खेलने की नैसर्गिक इच्छा लोक लाज के चलते आधी-अधूरी रही, इसका मलाल तो रहा ही.

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दिनभर ऑफिस और शाम को परिवार से घिरे श्‍लोक को निहारने या कभी-कभार गोद में उठा लेने भर से संतोष क्या ही मिलता.  
सुदेश विचारों में डूबे हुए थे कि तभी उनकी नज़र सामने के दरवाज़े पर गई. पूर्वा और श्‍लोक खड़े बातें कर रहे थे. पूर्वा, आर्या के बचपन की सहेली है. इन दिनों अक्सर ही घर आ जाती है. आर्या की डिलीवरी के बाद उसकी काफ़ी मदद रही थी. पर इन दिनों वह उन्हें खटकने लगी है.
पिछले दो-चार बार से नोटिस किया है कि पूर्वा के हाव-भाव कुछ बदले से हैं और श्‍लोक के भी. श्‍लोक और उसकी केमिस्ट्री किसी आने वाले ख़तरे का संकेत दे रही है. हो सकता है कि स्त्री-पुरुष के बीच के प्रकृति प्रदत्त आकर्षण को लेकर वह कुछ ज़्यादा ही सोच रहे हों, पर यदि थोड़ा भी कुछ है तो वह भी सही नहीं.
आर्या और इला बच्चे में व्यस्त हैं, इसलिए शायद वह पूर्वा और श्‍लोक की दबी-दबी मुस्कुराहट नहीं देख पाती हैं. नहीं ध्यान दे पाती कि जब श्‍लोक पूर्वा को छोड़ने जाता है, तो दरवाज़े के बाहर देर तक उनके बीच बातचीत होती रहती है. उन्होंने शायद नोटिस किया कि नन्हें को पूर्वा को थमाते हुए जब श्‍लोक की उंगलियां स्पर्श कर जाती हैं, तब कैसे उसके चेहरे पर हया की लाली छा जाती है. कल किस तरह उसने बालों की लटों को अदा से कान के पीछे किया, आज कैसे श्‍लोक को तिरछी विहंसती नज़रों से देखा. किस तरह आज श्‍लोक की नज़रें रह-रहकर उस पर टिक जा रही थीं.
भला हो जो आर्या उस व़क्त वॉशरूम में थी और इला रसोई में, पर वह वहीं कुर्सी पर बैठे उनकी केमिस्ट्री का यह नया अध्याय पढ़कर यह समझने की कोशिश कर रहे थे कि जो वह समझ रहे हैं वह कितना सही है.
आजकल लड़के-लड़कियां बात-बेबात एक-दूसरे को स्पर्श कर लेते हैं, गले लग जाते हैं. ऐसे में यह सब कोई बड़ी बात भी तो नहीं, पर फिर मन कहता है कि ज़रूर प्यार का कोई हार्मोन एक्टिव हुआ है, तभी उन दोनों को एक-दूसरे को तिरछी नज़र से देखने की ज़रूरत पड़ रही है.
“पापा… पापा…” सहसा श्‍लोक की आवाज़ कानों में पड़ी, तो सुदेश चौंककर विचारों के घेरे से बाहर निकले.
“अं… हां… क्या हुआ.”
“ऐसा क्या सोच रहे हैं कि मेरी बात ही नहीं सुन रहे और हां, ये मफलर उतार दीजिए.  अब इतनी सर्दी नहीं है कि मफलर की ज़रूरत पड़े. खैर ये बताइए गाड़ी की चाभी  कहां है?” उसने पूछा.
“गाड़ी की चाभी का क्या करोगे?”
“आर्या की कैब तीन-चार बार कैंसिल हो चुकी है. उसे छोड़ आता हूं.” श्‍लोक के कहने पर वह उठे और एक ड्रॉवर को खंगाल कर चाभी निकाली और पकड़ा दी.
“बताओ, यहां रखी है चाभी और मैं पूरे घर में ढूंढ़ आया.” श्‍लोक झुंझलाया, तो  वह मुस्कुराए. दरअसल इला ने इन दिनों  सख्त हिदायत दी है, “अगर किसी का सामान अस्त-व्यस्त दिखा यानी निर्धारित स्थान से चीज़ हटी तो फिर ढूंढ़ते रहना.”
शुरुआत में चीज़ों को ढूंढने में उन्होंने भी काफ़ी मशक्कत की. फिर समझ गए कि टीवी कैबिनेट के नीचे बनी चौड़ी-गहरी ड्रॉवर में बड़ी बेदर्दी से इला चाभी, चश्मा, रुमाल, डायरी और छुट्टे रुपए-पैसे डाल देती है. समझने में समय लगा कि ग़ुस्सा निकालते समय भी वह ध्यान रखती है कि चीज़ें सुरक्षित रहें.
ऐसे में विरोध भी दिख जाता है और ज़रूरी सामान की सुरक्षा को भी कोई ख़तरा नहीं, हां ढूंढ़ने वाला हलकान हो तो इसमें वह परम आनंद का अनुभव करती है. सुदेश के विचारों की धारा सहसा इला की ओर मुड़ गई, जो आजकल काफ़ी ख़ुश और व्यस्त है. पोता होने की ख़ुशी में वह उड़ी-उड़ी फिर रही है.
एक समय था जब उसके और इला के रिश्तों में भूचाल आया था… वह उससे नाराज़ थी. विचारों का कारवां सहसा अतीत की ओर मुड़ गया, तो उनकी भावभंगिमा गंभीर हो गई… देर तक वह अतीत में डूबे रहे तक़रीबन एक-डेढ़ घंटा… वर्तमान में आए, तो देखा इला चाय की ट्रे पकड़े कह रही थी, “उतार दो मफलर, चाय के लिए तीन आवाज़ें दीं, पर सुना नहीं तुमने.”

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“मम्मी, आप पापा का मफलर छिपा क्यों नहीं देतीं.” श्‍लोक जो शायद अभी-अभी पूर्वा को छोड़कर घर में घुसा था. उसने भी ईला का साथ दिया.
“मफलर तब छिपाऊं जब ये उतारकर इधर-उधर डालें.” चाय का ट्रे थामे इला ने खिंचाई की तो सुदेश मुस्कुरा पड़े और चुपचाप चाय का कप उठाकर चुस्कियां भरने लगे.
चाय का कप खाली करके तिपाई पर रखा तो नज़र श्‍लोक पर पड़ी, जो मोबाइल पर नज़रें गड़ाए मंद-मंद मुस्कुरा रहा था.
“ये समय संक्रमण काल का है, सावधानी में ही सुरक्षा है.” वह सहसा बोले तो श्‍लोक  चिहुंका.
“मतलब!”
सुदेश उसे गहरी नज़र से देखते हुए बोले, “आओ बरखुरदार, लॉन में टहलकर आते हैं.” श्‍लोक अभी भी असमंजस में था तो वह उसके कंधे पर हाथ रखकर झुके और कान में फुसफुसाए, “चलो बाहर, कुछ ज़रूरी बात कहनी है तुमसे.”
श्‍लोक हकबकाकर उठा और सुदेश के पीछे चल पड़ा. लॉन में धूप सिमट चुकी थी और अब हवा में हल्की सिहरन थी, सो सुदेश ने मफलर को ज़रा ठीक से कानों में लपेटा.
“क्या कहना था मुझसे…” श्‍लोक ने व्यग्रता से पूछा. सुदेश श्‍लोक के हाथों को थामते हुए बोले, “मौसम बदल रहा है. इस बदलते मौसम को संक्रमण काल कहते हैं. फरवरी से मार्च की ओर बढ़ते महीने में ज़रा सावधानी बरतनी चाहिए, ज़रा सी लापरवाही हुई नहीं कि बीमारी गले आ पड़ी.”
“अरे वो सब छोड़िए, ये बताइए कि कहना क्या है?”
“जब नवंबर शुरू होता है न, मैं तभी से अपने खानपान का ध्यान रखना आरंभ कर देता हूं. गरिष्ठ और ठंडा नहीं खाता. पहनने-ओढ़ने में भी कोताही नहीं करता. डरता हूं बीमार न पडूं इसलिए सजग रहता हूं.”
“अरे वो सब समझ गया, ये बताइए कि कहना क्या था मुझसे?” श्‍लोक खीजा, तो सुदेश गंभीरता से बोले, “यही कि तुम्हारे जीवन में भी संक्रमण काल चल रहा है.”
“क्या मतलब?” वह सकपकाया.
“मतलब, नए-नए पिता बने हो. तुम्हारी पत्नी अब मां भी है. आर्या ने नौ महीने की गर्भावस्था को पार कर बेटे को जन्म दिया है. इस व़क्त आर्या और अपने बच्चे  के प्रति पूर्ण समर्पित रहो.”
“समर्पित माने?”
“डेडिकेटेड.”
“वो तो हूं!”
श्‍लोक के स्वर में विस्मय आ घुला तो सुदेश ने सिर हिलाया, “पूरी तरह से समर्पित होते तो यूं…” कहते-कहते वह रुके, फिर क्षणिक चुप्पी के बाद गला खंखारकर संकोच से बोले, “जो ग़लती मैंने की, तुम न करना.” श्‍लोक की हैरान नज़रों से बचते हुए शून्य में देखते वे बोलते रहे, “पूरा जीवन इला के प्रति समर्पित रहा, पर जीवन के उस पड़ाव पर जब जवानी और बुढ़ापे के बीच जंग छिड़ी होती है, एक औरत शारीरिक और मानसिक बदलाव से गुज़र रही होती है, उस संक्रमण काल में मैंने उसके प्रति लापरवाही दिखाई.”
“कैसी लापरवाही?” श्‍लोक की भृकुटियां सिकुड़ीं तो वह उसके हाथों को दबाते हुए बोले, “उम्र के उस संक्रमण काल में मन भटक रहा था. स्मार्टफोन ने बहुत सी चीज़ें सहज उपलब्ध करा दी थीं. मैं भी उस दलदल में फंसा. जानी-अनजानी महिला मित्रों से रिश्ते बेशक जिस्मानी नहीं थे, पर जो भी थे इला का गुरूर तोड़ने के लिए काफ़ी थे.
श्‍लोक सन्न बैठा था. उसकी आंखों में मम्मी  के उग्र, चिड़चिड़े, अक्स उभरे. महसूस किया था पिछले कुछ सालों में वह पापा की ज़रा सी बात पर उखड़ जाती थी. मानो वह पापा पर झल्लाने का मौक़ा ढूंढ़ती हों. पापा की ज़रा सी बात को तूल देना और बातें सुनाना उनका स्वभाव बनता गया. कभी-कभी वह अनमनी-गुमसुम दिखतीं तो कभी बेहद उग्र. मेनोपॉज़ के बाद महिलाओं में ऐसे परिवर्तन आते हैं, यह उसने सुना था. लेकिन पापा की ज़रा सी ग़लती पर बरस पड़ने वाली मम्मी अपने किन छालों को फोड़ती हैं, यह आज समझा.
बेचारे पापा, मम्मी के मूड स्विंग को कैसे  झेलते हैं. अच्छी-भली ख़ुशमिजाज़ मां को मेनोपॉज़ ने चौपट कर दिया. वह तो इन कुछ सालों में यही सोचता आया. पर आज जो पापा ने कहा है उसे जानकर वह व्यथित था.
“इला ने मुझे झेल लिया, क्योंकि वह बसे-बसाए घर और तुम पर कोई आंच नहीं आने देना चाहती थी, पर आर्या…”
“आर्या को बीच में मत लाइए पापा… उसे क्या हुआ है. मैं क्या आपकी तरह हूं?”
“मेरी तरह न बनो, आर्या और तुम्हारे रिश्ते को कुछ न हो, इसीलिए संक्रमण काल में सावधानी का सूत्र दे रहा हूं.”
“अरे पापा आप कुछ भी…” श्‍लोक ने आंखें चुराईं, तो सुदेश उसकी पीठ थपथपाकर बोले, “इला ने जो नहीं किया वह आर्या कर सकती है.”
“आर्या कुछ नहीं करेगी. क्योंकि उसका गुरूर कायम रहेगा. पर आप पापा!..” श्‍लोक ने हैरानी और ग़ुस्से के मिले-जुले भाव से सुदेश को देखा, तो वह अपराध भाव से बोले, “सॉरी शब्द छोटा है, फिर भी उसे दिल से कह रहा हूं.”
“सॉरी तो मैं फील कर रहा हूं मम्मी के लिए.”
“उनके बदले मिजाज़ की ये वजह थी! आप ऐसा कुछ करोगे कौन सोच सकता था.” श्‍लोक के चेहरे पर नाराज़गी, अफ़सोस और हताशा देख सुदेश कुछ देर मौन रहे, फिर धीरे से उसके कंधे को छुआ, “नाराज हो.”
“हूं तो…” उसने कंधा झटका और फिर उनके बीच मौन पसर गया.
“पर ये भी सोचता हूं… ये सच्चाई बताने का रिस्क आपने मुझे संक्रमण काल के ख़तरे से बचाने के लिए लिया है तो ऐसे पापा बुरे तो नहीं हो सकते हैं.” कुछ देर बाद उसने स्वीकारा तो सुदेश अफ़सोस से बोले, “बुरा शायद मैं कभी भी नहीं था, बस कमज़ोर था. इसीलिए संक्रमण काल में ख़ुद को सुरक्षित नहीं रख पाया.”
पिता का झुका सिर और मां का परिवार के प्रति समर्पण याद कर श्‍लोक ने ख़ुद को तुरंत संभाला, “कमज़ोर नहीं हो सकते मेरे पापा… तटस्थ भी नहीं. मम्मी का खोया विश्‍वास हासिल कीजिए.”
“कोशिश तो करता हूं, पर ये आसान नहीं है. कुछ मसलों में भरोसा टूटने के बाद जुड़ता नहीं है. कुछ ज़ख़्म ऐसे होते हैं, जो दिखते नहीं, पर दर्द रहता है. कुछ ग़लतियां सारी अच्छाइयों को ख़ाक कर देती हैं.”
“तुम लोग यहां हो और मैं पूरे घर में ढूंढ़ आई.”
बरामदे में सहसा आ खड़ी हुई इला की आवाज़ सुनकर पहले तो दोनों चौंके, फिर श्‍लोक तेज़ी से ईला की ओर बढ़ा और उसे गले से लगा लिया.

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“क्या हुआ तुझे?” उसका अप्रत्याशित  व्यवहार देख संशकित इला ने पीठ पर हाथ फेरते पूछा, तो गले लगे-लगे ही बोला, “आपको ख़ुश देखकर अच्छा लगता है.”
इला क्या समझी पता नहीं, पर सुदेश उसकी मनःस्थिति समझ रहे थे. यूं लगा मानो उनके गले में कुछ अटक गया हो. वह कुछ कहते उससे पहले ही इला श्‍लोक से बोली, “मां तो तेरी हमेशा ही ख़ुश रहती है, अब ज़रा आर्या को भी ख़ुश कर दो. रियांश दो महीने का हो गया है. उसे हमारे पास छोड़कर आर्या को थोड़ा आसपास घुमा लाया करो. और नहीं तो वैलेंटाइन पर डिनर ही प्लान कर लो.”
“अरे वाह! क्या बात है मम्मी, आप तो पूरी अपटेड रहती हो. क्यों नहीं आप भी पापा के साथ डिनर प्लान कर लेती हो.”
“हां… हां… अब इस उम्र में यही बाकी रह गया है.” इला की नज़रें सुदेश पर से फिसलती हुई श्‍लोक पर टिकीं, तो उन नज़रों में श्‍लोक ने एक हारा हुआ शिकायती भाव पढ़ लिया और फिर असहजता से अपने कमरे की ओर चल पड़ा.
श्‍लोक के जाते ही सुदेश इला की ओर लपके और उसका हाथ पकड़कर बोले, “श्‍लोक ठीक तो कह रहा है, कई दिनों से बाहर नहीं गए. तुम भी तो कितने दिनों से घर में ही फंसी हो. घूम आते हैं कहीं. मन बहल जाएगा.”
“मेरा मन बच्चों के साथ बढ़िया बहलता है.” इला का स्वर तल्ख़ हुआ तो सुदेश ने बेचारगी भरी नज़रों से उसे देखा, वो नज़रें कह रही थीं, “जो कुछ पीछे हुआ उसमें हमेशा उलझे रहने से आगे बढ़ना मुश्किल होता है.” जवाब में इला की खाली नज़रों ने कहा, “अब तुम बताओगे मुझे ये सब…”
“बताना चाहता हूं कुछ समय तुम्हारे साथ.” सुदेश के भीगे स्वर को सुन इला पल भर को ठिठकी.
“तो आओ, थोड़ी मटर छील दो.” रसोई की बढ़ती इला बिना उसे देखे बोली, तो सुदेश झट से उसके पीछे हो लिए.
रसोई की खटपट के बीच उनका रसगुल्ला यानी रियांश के किलकने की आवाज़ कानों में पड़ती रही, साथ ही पड़ती रही आर्या और श्‍लोक की छुटपुट बातचीत. वो शायद बड़े उत्साह से वैलेंटाइन प्लान कर रहे थे.
आने वाले दो-चार दिन में वैलेंटाइन बीत चुका था. मौसम भी बदल गया था. सुदेश ने अपना मफलर निकालकर रख दिया था. बदलते मौसम में सावधानी बरतने का गुण श्‍लोक ने अपने पापा से बख़ूबी सीखा. इसीलिए इन दिनों जब भी पूर्वा आई, श्‍लोक अचानक व्यस्त हो जाता आर्या और रियांश में. ऐसे में हतोत्साहित पूर्वा का आना न के बराबर ही हो गया.
रियांश दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा था और बढ़ रहा था श्‍लोक और आर्या का प्यार और एक-दूसरे के प्रति समर्पण…
रही बात इला और सुदेश  की… तो वह भी वर्तमान का लुत्फ़ उठा रहे हैं. हां, इन सबके बीच अतीत के साइड इफेक्ट कभी-कभी इला में दिख जाते हैं, पर सुदेश ने उसे भी स्वीकार कर लिया है. वह जानता है कि फिल्मों में हैप्पी एंडिंग के साथ दर्शक निश्‍चिंत होकर मुस्कुराते हुए बाहर निकल आते हैं, पर असल जीवन में हैप्पीनेस बरक़रार रखने के लिए सदा प्रयासरत रहना पड़ता है. वह जानता है कि परिवार नामक संस्था चलाने वाली औषधि, अतीत के साइड इफेक्ट की मारकता को तिल-तिल कम ज़रूर करेगी.

मीनू त्रिपाठी


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